Wednesday, 20 May 2015

इसे कहते है महिला सशक्तिकरण

देश में भारतीय महिमा का २१ वीं सदी में सशक्तिकरण ...................
महिला पुरुष की गुलाम नहीं है |
वो अपनी इच्छा से शादी तोड़ सकती है ||
ज्यादातर महिला अभी भी या तो नौकरी में नहीं है तो उनको गुजारा भत्ता चाहिए |
जिन महिलाओ के पास नौकरी है पर बच्चे है तो बच्चे की जिम्मेदारी तो पुरुष की भी है और इस लिए बच्चो के लिए गुजारा भत्ता चाहिए |
वो इसकेलिए परिवार न्यायालय जा सकती है
परिवार न्यायलय में वकील का कोई स्थान नहीं है |
अगर न्यायाधीश उचित समझे तो वकील बतौर वाद मित्र हो सकता है जिसका खर्च सरकार देगी |
अब शुरू होता है महिला सशक्तिकरण का असली चेहरा |
पीड़ित महिला की बात को सुनने के लिए वकील ही चाहिए | जो २००० से ५००० तक शुरआती दौर में फीस लेगा |
पहली ही सुनवाई में न्यायाधीश नैसर्गिक नियमो को धायण में रखते हुए | ५००, या १००० या १४०० या २००० रुपये अंतरिम भत्ता बांध देंगे |
वकील अपनी हर पेशी पर आपसे पैसा लेता रहेगा |
केस चलेगा करीब ८ साल आया १० साल पर अंतरिम भत्ता तभी बढ़ेगा जब अंतिम बहस होगी\
इतनी छोटी को देकर पीटीआई को अघोषित रूप से सरकार की तरफ से वैधानिक आजादी  मिल जाती है |
महिला अपने बच्चो के जीने , पढ़ने , भविष्य के लिए कमर तोड़ती है |
आप सोच कर देखिये क्या आज के भारत में १४०० या २००० रुपये में पूरा महीना निकला जा सकता है |
पर सरकार की दृष्टि से महिला को न्याय तो मिला ना |
उसके गरिमा की रक्षा तो हुई न |
अब तो पुरुष की गुलाम तो नहीं है |
क्या ये आजादी है ?
क्या ये महिला सशक्तिकरण है |
आज बच्चो के पढ़ाई पर सबसे ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ता है |
दो बच्चो के लिए १४०० या २००० कितना होगा ?
जबकि एक बच्चे की फीस अच्छे स्कूल में ३००० से कम नहीं है |
तो क्या महिला को स्वतंत्र करने से ज्यादा उसे बच्चो के लिए जीने वाली बना कर सरकार ने छोड़ दिया |
जय ये महिला सशक्तिहै |
अखिल भारतीय अधिकार संगठन के इस विमर्श में शामिल होकर हमारा ज्ञान बढाइये |



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