Saturday, 11 August 2012

ghar ka chulha jalta

हर कोई मेरी आँखों का पानी छीनता रहा ,
फिर हस उनको ही मेरे आंसू कहता रहा ,
पहले तिल तिल कर जलाता रहा  मुझको ,
लाश कह कर मुझको मिटटी में मिलाता रहा ,
बेवजह अपनी ख़ुशी में मुझको जला डाला ,
उन लकड़ी से किसी के घर का चूल्हा जलता ,
आलोक ढूंढा भी तो चिता की उठती आग में ,
पूरब को देख लेता तो मैं रोज वही मिलता ............................क्यों हम ऐसा कर रहे हैं  क्यों हम एक दूसरे के लिए जीने की बात करके सिर्फ छलते है .जिन्दा आदमी को लाश बना देता है और हर आशा को मार देते है ...क्या यही भाई चारा है हमारा ..................डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

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