Sunday, 29 May 2011

दलित बनाम अ-दलित Dr Alok Chantia


एक रोते बच्चे को टाफी देकर चुप कराया जा सकता है परन्तु उससे न तो बच्चे की भूख मिटती है और न ही उसके विकास में कोई महत्वपूर्ण लाभ होता है। फिर भी मां- पिता को उसे टाफी देना एक कारगर उपाय लगता है लेकिन इससे उन्हें क्या लाभ होता है? बच्चा उनके कामों में रुकावट नहीं डालता और वह अपने कामों में बिना किसी रुकावट के लगे रहते हैं और दुनिया की दृष्टि में वे सदैव बच्चे के मां बाप ही जाने जाते हंै, जबकि उन्हें  टाफी के गुण-दोष और उसके प्रभाव की जरा सी जानकारी नहीं होती और वे जानना भी नहीं चाहते, उन्हंे तो सिर्फ यह पता है कि टाॅफी मीठी होती है और रोते बच्चे को चुप कराने का एक अविश्वसनीय विकल्प है। ऐसा ही प्रभाव है भारतीय समाज और आरक्षण का। पूना पैक्ट के प्रभाव से उपजे डा. अम्बेडकर एवं महात्मा गांधी के बीच हुए समझौते ने आरक्षित सीट का प्रावधान किया जो आज तक चला आ रहा है। इस देश में किसी भी काम की समय सीमा नहीं है जिसके कारण साठ वर्ष के बाद भी दलित वहीं खड़े हैं जहां वह आरम्भ से खड़े थे। जितने प्रतिशत दलित हर युग में अपनी प्रतिभा के कारण अपना स्थान समाज में बना लेते थे उतने ही प्रतिशत आज भी हंै। शबरी का अपमान हो या एकलव्य की शारीरिक यातना वह तब भी थी और आज भी है। शारीरिक श्रम करने वाला सदैव से ही शोषित रहा है जो आज भी जारी है। क्या प्रजातंत्र में दलित को कोई सुखद परिणाम मिला जबकि वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है कि पृथ्वी के समस्त मनुष्य जैविक रूप से समान हैं और उन सबको होमो-सैपियन्स कहा जाता है तो फिर यह विभेद क्यों पैदा हो रहा है। इसका उत्तर स्पष्ट है-संस्कृति। संस्कृति ने ही जैविक विभेद से ज्यादा बड़े विभेद  खड़े कर दिये। प्रजाति शब्द प्रकाश में आया जो मुख्यतः वातावरण से प्रभावित तथ्य है पर संस्कृति ने मनुष्य अन्तहीन श्रेणी में विभक्त हो गया और संस्कृति के सतत प्रभाव के कारण एक जैसे जीनी पदार्थ के स्वामी होने के बाद भी होमो सैपियन्स में कुछ श्रेष्ठता की भावना से जीने लगे और कुछ हीन भावना से ग्रसित हो गये और इसी हीन भावना की करीब 5000 वर्ष पुरानी श्रृखंला ने मानव को सिर्फ दो श्रेणी में बांट दिया दलित और अदलित। प्रजातंत्र में हीन भावना को समाप्त कर संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुरूप एक समानता को उत्पन्न करने के लिए शायद सरकार ने आरक्षण जैसे शुद्ध का बीजा रोपण कर दिया गया लेकिन दलित को अदालित के समान लाने में सरकार को कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं प्राप्त हुई और सरकार इस तथ्य को स्वयं आरक्षण की अवधि बढ़ा कर साबित कर देती है। दलित राजनीति डा. अम्बेडकर के ईदगिर्द सिमिट गयी पर दलित समाज ने कभी गम्भीरता पूर्वक यह विचार नहीं किया कि सरकार की नीति में स्वयं ऐसे तथ्य है जो समानता के भाव को नकारते है। इसका परिणाम दलित को नौकरी और शिक्षा में दिये जा रहे आरक्षण पर विचार करके जाना जा सकता है। दलित को नौकरी पाने के लिए आवश्यक योग्यता सदैव से अदलित से कम रखी जाती है। यही स्थ्तिि शिक्षा में प्रवेश पाने के लिए भी है। यदि अदलित को 45: अंको की न्यूनतम् आवश्यकता होती है तो दलित को सिर्फ 40ः  पर ही प्रवेश मिल जाता है। इसके अतिरिक्त विशेष कोटा के अन्र्तगत सीट न भरी ना  जाने की स्थ्तिि में दलित के कितने ही न्यूनतम् अंक क्यो न हो उसे प्रवेश या नौकरी मिल जायेगी पर अदलित को योग्यतम् की उत्तर जीविता के सिद्धान्त से होकर गुजरना पड़ता है। सह हो सकता है कि सरकार कह दे कि सदियो से शोषित होने एवं समानता के स्तर पर लाने के लिए के मन में आक्रोश जग रहा है कि योग्यता की श्रेणी में खड़े होकर भी वह शिक्षा, नौकरी से बाहर है और देश की लगभग आधी अदलित जनसंख्या में अगर यही आक्रोश है तो समरसता और समानता सिर्फ एक हलावा है जिस पर रोक अनुसूचित जाति/जनजाति उत्पीड़न अधिनियम -1989 के कारण ज्यादा है ना कि प्रेम की भावना के कारण। दलित समाज में विद्वानो की कमी नही है, उन्हे स्वयं यह विचार करना चाहिए कि अदलित समाज उन्हे सम्मान क्यो नहीं दे रहा है इसका उत्तर स्पष्ट है कि सरकार ने होमोसैयिन्स की जैविक क्षमता की अनदेखी की है। जब पृथ्वी का हर मनुष्य समान है उसकी बौद्धिक क्षमता समान है। तो सरकार क्यो विभेदीकरण कर रही है । सरकार की नीतियो से ऐसा प्रतीत होने लगा है कि दलित लोगो के पास अदलित से कम बुद्धि होती है, और इसीलिए उन्हे अंको के स्तर पर पर्याप्त छूट दी जाती है। जबकि वैज्ञानिकता इसको नकारती है। दलित भी अदलित की तरह बुद्धि वाले है और दलित समाज को सरकार  की इस नीति का विरोध करना चाहिए जो उन्हें बुद्धि के स्तर पर अदलित से नीचे रखता है। शायद इससे बड़ा विभेद क्या हो सकता है कि इस देश में एक दलित की बुद्धि अदलित के बराबर नहीं मानी जा रही है और इसलिए अदलित आज भी अपने को श्रेष्ट समझता है, इसी आधार पर उच्च शिक्षा और उच्च नौकरी पाने वाले दलितों को अयोग्यता के आधार पर सब कुछ प्राप्त करने वाला मानता है। जिसके कारण समरसता का लोप स्वतन्त्रता के बाद ज्यादा हुआ है। आरक्षण एक समयबद्ध प्रक्रिया है और उसे समय के साथ समाप्त हो जाना चाहिए था। पर ऐसा हुआ नहीं। जन्म के समय मां के पक्ष से दूध पीने वाला बच्चा भी एक समय बाद दूसरे भोजन पर आश्रित होकर अपना विकास सुनिश्चित करता है उसी प्रकार दलितों को स्वयं ही आरक्षण को यह लगे कि अपने विकास के नए विकल्प चुनने चाहिए ताकि अदालतों को यह लगे कि दलित का विकास सिर्फ आरक्षण से ही नहीं हो रहा है। दूसरे दलितों को इस बात के लिए राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाना चाहिए कि अदलितांे से उन्हें किसी भी स्तर पर बुद्धि से कम न आंका जाये और बुद्धि के स्तर पर समानता और समान योग्यता को आधार बनाया जाये ताकि अदलित में यह भावना न पनपे कि दलित बुद्धि के स्तर पर उनसे कम हैं।  यदि दलित इन तथ्यों पर विजय पा लेगें तो उन्हें समानता और समरसता स्वयं मिल जायेगी। आरक्षण से उपजे दलित और अदलित शब्द स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे।
लेखक - ‘मानवाधिकार संस्था‘ आखिल भारतीय अधिकार संगठन’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं जयनारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय में मानवशास्त्र विभाग में सहायक आचार्य हंै। डा0 आलोक चांटिया राजधानी लखनऊ से प्रकाशित होने वाले विभिन्न समाचार पत्रों में बतौर स्तम्भकार कार्य कर रहे हंै। आपको उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश-विदेश में मानवाधिकार, सूचना, शिक्षा, चिकित्सा के अधिकार, जैसे मूलभूत विषयों के विशेषज्ञ के रूप में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया जाता रहा है। भारतीय समाजिक संरचना और गीता एवं रामचरित मानस के तुलनात्मक अध्ययन पर आपकी शोधपरक पुस्तक ‘विकल्प का समाज’ काफी चर्चित रही है।
  सम्पर्क सूत्र-मो0  - 9415083663

Thursday, 26 May 2011

जुलाई माह अर्थात शिक्षक भर्ती माह

डिग्री कालेजों में जुलाई माह आते ही शुरू हो जाते है प्राचार्य व शिक्षकों को नियुक्त करने का सिलसिला । पूरे वर्ष पढाने वाले लोग वर्ष के अंत में जाने कहा गुम हो जाते है। क्या ये लोग विज्ञापित पद पर अनुमोदन तक का सफर तय करते है ? यह हाल है शिक्षा का । क्या वास्तव में निजी कालेजो के प्रबंधक सरकार की आंखों में धूल झोकते है या फिर दोनो की मिली भगत से चलता है यह करोबार। यह सोचनीय है।
स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों को ख्ुले लगभग 1 दशक बीतने को जा रहा है किन्तु अधिकंाश महाविद्यालयों के पास न तो जमीन है न भवन न प्रयोगशाला आैर तो आैर न ही शिक्षक भी है इस तथ्य को देर सवेर उच्च शिक्षा अधिकारी भी स्वीकार करते रहते है फिर भी धडल्ले से चल रहक है यह महाविद्यालय का करोबार ।
सवाल यह उठता है कि सरकार इन अव्यवस्थाअो को क्यों दूर नही कर पाती। क्या वास्तव में प्रबंधक सरकार की आंखों में धूल झोकते है फिर दोनो की मिली भगत से चलता है यह करोबार। आखिर क्यों जुलाई माह में शुरू हो जाते है प्राचार्य एवं शिक्षको के विज्ञापन ? क्या वास्तव में अनुमोदित प्राघ्यापक नियुक्त हो पाते है या फिर कागजो में सिमट कर रह जाते है। क्या शासनादेश के अनुरूप उनको वेतन मिलता है क्या उन्हे महाविद्यालय द्धारा सीपीएफ दिया जाता है । विशविवद्यालय प्रशासन प्रतिवर्ष अपने वचाव हेतु इनसे हलफनामा को लेकर अपने कार्यों से इति श्री कर लेता है
मै सविनय निवेदन करता हू समस्त कुलपतियों से उक्त बिन्दुआे पर जांच कर अनिमियता को समाप्त करे।

Tuesday, 17 May 2011

मानवाधिकार और मीडिया Dr Alok Chantia

मानव ने पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद उद्भव की एक लम्बी श्रंृखला, आस्टेªलोपिथिकस से होमोसैपियंस बनने में तय की है। परन्तु संस्कृति ने मानव के उद्भव को जैविक मानव से सांस्कृतिक मानव की प्रक्रिया में परिवर्तित कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि मानव ने सिर्फ प्रकृति के सहारे रहने के बजाए अपनी आवश्यकता करने के अनुसार प्रकृति से अनुकूलता कर ली और उसने पशुपालन, खेती, आवास बनाकर एक व्यवस्थित जीवन जीना नव पाषाण काल से आरम्भ कर दिया। उसका परिणाम यह है कि प्राकृतिक आपदाओं और प्राकृतिक मृत्यु के बाद भी पृथ्वी पर मानव की संख्या किसी भी जन्तु से ज्यादा हो गयी और बहुत से जन्तु तो मानव की जनसंख्या के बढ़ते रहने के कारण ही पृथ्वी से विलुप्त हो गये। जीवन को चलाये रखने के लिए मनुष्य के समक्ष योग्यतम् की उŸारजीविता के सिद्धान्त ने एक समस्या खड़ी कर दी जिसके कारण जिस संस्कृति को बनाकर मानव ने प्रकृति से अपने मानवाधिकार को सुनिश्चित किया था, वह मानवाधिकार प्रकृति से हटकर धीरे-धीरे राष्ट्र राज्य संकल्पना की ओर उन्मुख हो गया, जिसके कारण प्रकृति की अपेक्षा मानव को अपने जीवन को न्यूनतम् स्तर पर रखने के लिए सरकार से अपनी आवश्यकतायें पूर्ण कराना कठिन हो गया। जंगल में शेर को राजा बनाये जाने वाली कहानी की तरह ही मानव ने भी मानव को राजा तो बना दिया पर शेर की ही तरह, राजा (सरकार) अपने जीवन को चलाये रखने के लिए ज्यादा प्रयास करती रही है जिससे जंगल राज की तरह जनता एक खाद्य श्रंृखला के रूप् में रही और सभी मनुष्य समान होने के बाद भी, मनुष्य का शोषण मनुष्य ही करने लगा। इसी प्रक्रिया ने मानवाधिकार को और मुखरित करने में योगदान किया, पर किसी स्थान, समुदाय में चल रहे मानवाधिकार हनन को दूसरे स्थान समुदाय तक पहुँचाने और मानव समुदाय में एक सामान्य चेतना लाने का कार्य मीडिया द्वारा किया गया।
       मीडिया, मानव समाज के मघ्य एक ऐसी कृत्रिम आंखे बन कर स्थापित हुआ जिसने कमरे में बैठे व्यक्ति के जीवन में समाचार पत्र, टी. वी. आदि के माध्यम से मानवीय मूल्यों को बनाये रखने में सहयोग किया और मीडिया के इसी रूप के कारण मानव समूहों की समय-समय पर राष्ट्रीय और अन्र्तराष्ट्रीय मुद्दों पर प्रतिक्रिया दिखाई देने लगी। पर मीडिया भी मानव से चलने वाला एक उपक्रम है। जिस पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि उसने सिर्फ मानव के जीवन को उठाने का कार्य ही नहीं किया बल्कि उसने स्वयं को जीवित रखने के लिए स्वयं ऐसी कृत्रिम स्थिति उत्पन्न करने का प्रयास किया जो मानवाधिकारों के उद्देश्यों के विपरीत है। निम्न उदाहरणों से स्पष्ट हो जायेगा कि मानवाधिकारों के संरक्षण और हनन को बढावा देने में मीडिया ने क्या योगदान दिया।
केरल के कोच्ची शहर की यह 23 वर्षीय लड़की अपनी शादी तय हो जाने पर अपने घर जाने के लिए निकली, उसने एर्नाकुलम एक्सप्रेस टेªन में अपना आकर्षण महिलाओं के डिब्बे में किराया यह सोचकर लिया कि वह वहाँ सुरक्षित रहेगी, देर रात गए एक व्यक्ति डिब्बे में दाखिल हुआ और अकेली युवती को देख उसके साथ छेड़छाड करने लगा।
       वह युवती बलात्कार का शिकार बन गई, उस पूरे यात्रा के दौरान उस डिब्बे में कोई सुरक्षाकर्मी या गार्ड मौजूद नहीं था, अपनी होस मिटाने के बाद बदहोस उस व्यक्ति ने इस लड़की को चलती ट्रेन के बाहर फेक दिया, पुलिस ने बताया कि यह युवती वलाथोल और शोरनपुर रेलवे स्टेशनों के बीच पटरियों के किनारे खून से लथपथ मिली थी इस समय वह अस्पताल के आपातकालीन कक्ष में है और उसकी हालत गम्भीर बनी हुई है, पुलिस का कहना है कि इस मामले में अभी कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। कई संगठन ने इसके लिए प्रदर्शन किया है, जिसके कारण प्रशासन ने तुरंत कार्यवाही करने के आदेश दिया है, डोनाल्ड रम्सफेल्ड की आत्मकथा के अंश वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयार्क टाइम्स ने छापे।(23 नवम्बर 2010, द हिन्दू)
       अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफेल्ड के अनुसार अमेरिका पर 11 सितम्बर 2001 को हुए हमलो के 15 दिनों के बाद पेन्टागन के इराक के लिए युद्धनीति पर पुर्नविचार कहने को कहा था।
       डोनाल्ड रम्सफेल्ड 78 वर्ष के है और उन्होनें अपनी आत्मकथा लिखी है जिसमें इन बातों का जिक्र है - इस आत्मकथा से लीक हुए अंशों को वाशिंगटन पोस्ट एवं न्यूयार्क टाइम्स ने छापा है, बी.बी.सी. के वाशिंगटन संवाददाता स्टीव किंग्सटन का कहना है कि आत्मकथा से इस विचार को बल मिलता है कि तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश पहले से ही ईराक पर नजरें गढ़ाए बैठे थे जबकि उनका प्रशासन अल कायदा के खिलाफ जंग की तैयारी कर रहा था।
       न्यूयार्क टाइम्स में छपे एक अंश के अनुसार रम्सफेल्ड ने बताया है कि किस तरह 9/11 के 15 दिन बाद उन्हे अकेले अमरीकी राष्ट्रपति के कार्यालय ओवल आॅफिस में बुलाया गया, रम्सफेल्ड के हवाले से बताया गया है कि, ‘‘मुझे ईराक युद्ध के बारे में तत्कालीन योजनाओं पर पुनर्विचार करने को कहा गया और बुश का जोर इस बात पर था कि जिन विकल्पों पर विचार हो वे रचनात्मक यानि एक नये तरीके की हो।’’ उधर पूर्व राष्ट्रपति बुश ने अपनी किताब में कहा था कि उन्होंने ऐसा अनुरोध छह हफ्ते बाद किया था, लेकिन डोनल्ड रम्सफेल्ड को ईराक युद्ध के बारे में कोई अफसोस नहीं है, उनका तर्क है कि यदि सद्दाम हुसैन सत्ता में बने रहते तो मध्य पूर्व में आज स्थिति और खतरनाक होती, उनका ये भी कहना है कि वे और संख्या में सैनिक भेज सकते थे। रम्सफोर्ड का कहना है कि उन्हे सबसे ज्यादा अफ़सोस इस बात का है कि उन्होंनें अबू गरैब जेल कांड के सार्वजनिक होने के बाद तत्काल पद क्यों नहीं छोड़ दिया, (न्यूयार्क टाइम्स, 21 जुलाई 2010) हालाँकि वे कहते हैकि उनके जार्ज बुश ने दो बार उनके इस्तीफे की पेशकश को नामंजूर कर दिया था।
डीएमके के सांसद और तमिलनाडु में दलितों के मसीहा ए राजा को कल सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया था, साथ ही उनके सहयोगियों ने एक पूर्व टेलीकाॅम सचिव सिद्धार्थ बेहुरा और निजी सचिव आर.के.चंदालिया को भी गिरफ्तार किया गया था। सीबीआई ने आज उन्हें और उनके सहयोगियों को सीबीआई की पटियाला कोर्ट के सामने पेश किया। मालूम हो कि पूर्व केन्द्रीय दूरसंचार मंत्री ए राजा 2जी  स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले के सिलसिले में गिरफ्तार किये गये हैं।
कोर्ट नें सीबीआई और राजा दोनों का पक्ष ध्यानपूर्वक सुना और फिर राजा को उनके सहयोगियों समेत सीबीआई को पांच दिन  की रिमांड पर दे दिया। सीबीआई ने कोर्ट में दलील दी थी कि अभी तक पूछ-ताछ में राजा ने घोटाले के संदर्भ में जानकारियां सीबीआई को नहीं दी है इसलिए सीबीआई उन्हे अपनी कस्टडी में लेकर पूछताछ करना चाहती है। उल्लेखनीय है कि सीबीआई को राजा मामले में अगले 60 दिनों के अन्दर चार्जशीट भी दाखिल करनी है।
सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि, ‘‘हम अगले 60 दिनों में तीनों आरोपियों के खिलाफ औपचारिक आरोप पत्र भी दायर करेंगे। इस मामले में और भी गिरफ्तारियां हो सकती है।’’ नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन प्रक्रिया से देश को 58,000 करोड़ से 1.76 लाख करोड़ रूपये तक के राजस्व का नुकसान होने का अनुमान व्यक्त किए जाने और राजा पर अनियमितताओं का आरोप लगने के बाद 14 नवम्बर को राजा ने पद से इस्तीफा दे दिया था। (दैनिक जागरण, 03 फरवरी 2011)
बैगलूर, 26 नवम्बर का दिन था, घड़ी में रात के साढ़े नौ बजे थे, आमतौर पर मीडिया हाउस में शिफ्टों में काम होता है, और व्यस्तता आमतौर पर 9 बजे के बाद कम हो जाती है सो हमारे आॅफिस में भी लोग धीरे-धीरे अपने अपने कामों में निवृŸा हो रहे थे, कुछ खाना खाने के लिए कैंटीन की ओर बढ़ रहे थे तो कुछ टीवी चैनल बदल कर आपस में बहस कर रहे थे कि कौन सा चैनल हमसे बेहतर है और कौन सा हमसे खराब। इसी बहस के दौरान अचानक हमारे डेस्क का फोन बजा, शिफ्ट इंचार्ज ने फोन उठाया, मुंबई के रिपोर्टर का फोन था, जिसने खबर दी थी कि हमारी मायानगरी में कुछ नापाक लोग घुस चुके है और वो आम लोगों को बंधक बना कर गोलों की बरसात कर रहे हैं। इतना सुनना था कि डेस्क के अलसाये लोग फौरन अपनी-अपनी सीट पर पहुंच गये और लगे अपने-अपने हिसाब से खबर को लिखने और दिखाने।
करीब पांच मिनट के अंदर हमारा पूरा आॅफिस एक रणक्षेत्र में तब्दील हो गया, जिन चैनलों पर गाने बज रहे थे उन्हे हटाकर न्यूज चैनल लगा दिये गये और ज्यादा से ज्यादा ताजा खबरों का जायजा लेने के लिए बार-बार अपने मुंबई संवाददाता को फोन किया जाने लगा। पूरी मीडिया जगत में ये खबर आग की तरह फैल गई कि मुंबई आतंकवादियों से घिर गई है, ताज होटल में आतंकवादी हथियारों के साथ घुस गये हैं। उन्होनें वहां के लोगों को बंधक बना लिया है।
हमारे डेस्क इंचार्ज ने फौरन हमारी आपातकालीन बैठक बुलाई और कहा कि इस खबर को बढ़िया से बढ़िया कवरेज देना है, क्योंकि ये वो चिंगारी है जो हमारी टीआरपी बढ़ा सकती है। जो लोग थोड़ी देर पहले घर जाने का सपना देख रहे थे उन्हें रात के कवरेज के लिए रोक दिया गया और वो लोग अपना अपना नम्बर बढ़ानें के लिए रूकने को तैयार हो गये अब ना तो उन्हे अपने घर की चिंता थी और न ही परिवार की। उन्हे लगा कि शायद लम्बे समय से रूका उनका प्रमोशन इस कवरेज के बाद जरूर पूरा हो जायेगा।
किसी भी चैनल ने आम लोगों के बारे में ना तो जाना और न ही कुछ बयां किया। सब राजनेताओं को धोने में लगे थे। खैर जब हमारी आर्मी ने सारे आतंकियों को मौत की नींद सुलाने के बाद मुंबई फतेह की तो सारी मीडिया नें तारीफों का पुलिंदा बांध दिया। पूरी खबर के प्रशारण के बाद हमारे डेस्क इंचार्ज ने तालियों के साथ अपनी टीम को थैंक्स कहा और कहा कि हम कवरेज में सबसे आगे रहे। हमारी टीआरपी सबसे हाई रही। और उसके बाद सब कुछ वैसे ही चलने लगा जैसा कि चलता आ रहा था। और लोगा अगली बड़ी खबर का इंतजार करने लगे।
ये झांकी हर मीडिया हाउस की है, संवेदनाओं की दुहाई देने वाला मीडिया आज खुद संवेदनहीन और भ्रमित हो गया है। आज उसे आम आदमी की समस्या नही बल्कि अपनी टीआरपी रेट दिखाई देती है। पल पल नेताओं को कोसने वाली मीडियाकर्मियों की हालत देखकर ऐसा लगता है जैसे कि वो हर पल 26/11 जैसे आतंकवादी हमले का इंतजार कर रहे हो, ताकि वो ये बता और दाखिल कर सकें कि लोगों की मौत के आंकड़े को सही बतानें में वो कितना औरों से आगे रहे हैं? (आॅन इण्डिया मीडिया ब्लाग)
पाकिस्तान के सभी समाचार पत्रों ने अमरीकी राष्ट्रपिता बराक ओबामा की भारत यात्रा को पहले पन्ने पर छापा है, कुछ अख़बारों ने उनकी भारत यात्रा पर संपादकीय भी लिखे हैं और ओबामा और मिशल की वह तश्वीरे प्रकाशित की है जब उन्होंने स्कूली छात्रों के साथ कोली नृत्य किया था, अंग्रेजी के सब से बड़े अखबार ‘डेली डाॅन’ ने राष्ट्रपिता ओबामा की ख़बर को मुख्य तौर पर पहले पन्ने पर प्रकाशित किया है और उसका शीर्षक है - बी ए गुड नेबर, ओबामा टेल्स इंडिया यानि ओबामा की भारत को सलाह कि अच्छे पड़ोसी बनों। अखबार आगे लिखता है कि राष्ट्रपति ओबामा ने मुंबई में छात्रों के तीखे सवालों के जवाब दिये और पाकिस्तान पर पूछे गए सवाल पर कहा कि पाकिस्तान की स्थिरता से अगर किसी देश को अधिक लाभ होगा तो वह है भारत और उन्हें आशा है कि दोनों देश बातचीत के माध्यम से सभी मुद्दे सुलझाएंगे। अखबार ने लिखा है कि अमरीकी राष्ट्रपति ने भारतीय छात्रों के सवालों का जवाब देते हुए पाकिस्तान को स्पष्ट संदेश दिया कि वह आतंकवाद और चरमपंथ ने निपटने के लिए अपने प्रयासों को और तेज करें, अंग्रेजी के एक ओर अखबार ‘डेली टाइम्स’ ने भी ओबामा की भारत यात्रा को अपनी मुख्य ख़बर बनाया है उसका शीर्षक है - ओबामा पुशेस इंडिया टु टाॅक टु पाकिस्तान यानि ओबामा ने भारत पर पाकिस्तान से बातचीत कि लिए दबाव डाला।
अखबार लिखता है कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत और पाकिस्तान से कहा कि वे बातचीत के जरिए पहले वे मुद्दे हल करें जो ज्यादा विवादास्पद नहीं है और अमरीका दोनों देशों पर शांति लागू नहीं कर सकता।
राष्ट्रपिता ओबामा का उल्लेख देते हुए अखबार आगे लिखता है कि पाकिस्तान में राजनीतिक स्थिरता भारत के हित में है और स्थिर पाकिस्तान का सबसे ज्यादा फायदा भी भारत को ही होगा, अखबार लिखता है कि अमरीका ने एक बार फिर पाकिस्तान से कहा है कि वह आतंकवाद और चरमपंथ को निपटने के लिए अपनी कोशिश तेज करे ताकि इस क्षेत्र में शांत स्थापित हो सके।
अखबार ने ओबामा की भारत पर यात्रा पर संपादकीय भी लिखा है जिसमे कहा गया है कि पाकिस्तान को उम्मीद है कि राष्ट्रपति ओबामा भारतीय नेतृत्व से कश्मीर मुद्दे पर बात करेंगे और उसके हल के लिए भारत पर दबाव डालेंगे। अंग्रेजी के अखबार ‘‘दि नेशन’’ ने भी ओबामा की ख़बर को पहले पन्ने पर जगह दी है और उसका शीर्षक है- केरेट्स फाॅर इंडिया, स्टिक फाॅर पाकिस्तान यानि भारत की पीठ थपथपाई और पाकिस्तान को झाड़ा।
अखबार नें अमेरिकी राष्ट्रपिता बराक ओबामा की उस टिप्पणी को अपनी मुख्य ख़बर बनाया है जिसमें उन्होंने पाकिस्तान की आलोचना की है कि आतंकवाद के खात्में के लिए उसकी कोशिश काफी नहीं हैं, अखबार ने आगे लिखा है कि अमरीकी राष्ट्रपति ने भारतीय छात्रों से बात करते हुए कहा कि आतंकवाद के खात्में के लिए पाकिस्तानी की प्रगति जितनी होनी चाहिए थी, उतनी नहीं है और पाकिस्तान को अपने प्रयास तेज़ करने चाहिए। उर्दू का एक अखबार ‘रोजनामा एक्सप्रेस’ का शीर्षक है- खुशहाल पाकिस्तान का ज्यादा फायदा भारत को है, अखबार आगे लिखता है कि राष्ट्रपति ओबामा ने भारत से कहा कि वह आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान की मदद करें क्योंकि केवल अमेरिका नहीं बल्कि पूरी दुनिया आतंकवाद का शिकार है, अख़बार ने राष्ट्रपिता ओबामा और उनकी पत्नी मिशल ओबामा की वह तश्वीरें भी प्रकाशित की है जिसमें मुंबई  में स्कूली छात्रों के साथ नाच किया था। (रोजनामा एक्सप्रेस, पाकिस्तान)
लंदन। भारत में संयुक्त परिवार एक ऐसा सामाजिक ढांचा है जो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक हर किसी बढ़िया सुरक्षा और बेहतर माहौल देता है। लेकिन धीरे-धीरे भारत में भी एकल परिवारों का चलन बढ़ रहा है और लोग अकेले रहने के आदी हो चले है। जिन्हें अकेले रहने की आदत है, उनके लिए बुरी खबर है। वैसे तो अकेलापन सभी उम्र के लोगों के लिए खतरनाक है लेकिन बुजुर्गों के लिए अकेलापन जानलेवा सावित हो रहा है।
ब्रिटेन के समाचार पत्र ‘डेली मेल’ में प्रकाशित एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि 10 में से एक बुजुर्ग ‘जबरदस्त’ एकाकीपन से ग्रसित है। इससे अवसाद घर करता है। साथ ही साथ उनकी कसरत करने और खाने-पीने की आदतें धीरे-धीरे खत्म होती चली जाती है। यह बुजुर्गों के स्वास्थ्य के लिए उतना ही खतरनाक है जितना मोटापा या फिर धूम्रपान है। (डेलीमेल, 17 जनवरी 2011)
अब तो डाॅक्टर्स भी मानते है कि खराब स्वास्थ्य और एकाकीपन का करीबी रिश्ता है। 2200 लोगों पर कराए गए एक सर्वेक्षण के दौरान 5 में से 1 व्यक्ति ने यह माना है कि एकाकीपन से स्वास्थ्य खराब होता है, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू. एच. ओ.) एकाकीपन को स्वास्थ्य खराब होने के बड़े कारणों में से मानता है। शोधकर्ता मानते है कि सामाजिक सक्रियता के अभाव में लोगों में रोग घर कर लेते हैं। ऐसे रोगों में अल्जाइमर प्रमुख है। मानवाधिकार के लिए काम करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट्स वाॅच ने भारत में वर्ष 2008 में तीन जगहों पर हुए बम धमाकों पर बनाई गई अपनी रिपोर्ट में भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की कड़ी आलोचना की है।
ह्यूमन राइट्स वाॅच का कहना है, ‘‘सरकारी संस्था एन.एच.आर.सी. ने आतंकवादी घटनाओं के संदिग्धों की शिकायतों पर ढुलमुल रवैया अपनाया है, सबसे स्पष्ट उदाहरण बटला हाऊस मुठभेड़ में एन.एच.आर.सी. की जाँच का है, इस मामले में एन.एच.आर.सी. के अपने आदेश का उल्लंघन हुआ जिसके तहत सभी मुठभेड़ों की जाँच होनी चाहिए।’’ उनका कहना है, ‘‘दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश पर एन.एच.आर.सी. ने बटला हाऊस की जाँच की और केवल पुलिस के पक्ष पर आधारित रिपोर्टस में पुलिस को निर्दोष करार दे दिया, इस मामले में एक नई गम्भीर जाँच होनी चाहिए।’’
ह्यूमन राइट्स वाॅच की दक्षिण एशिया मामलों की निर्देंशक मीनाक्षी गांगुली का कहना है, ‘‘जहाँ तक आतंकवाद विरोधी कार्यवाई के दौरान दुव्र्यवहार की बात है राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोेग केवल मूक दर्शक बनकर रह गया है।’’
ह्यूमन राइट्स वाॅच ने वर्ष 2008 में जयपुर, अहमदाबाद और नई दिल्ली में हुए बम धमाकों के बाद के घटनाक्रम पर ‘दि एंटीनेशनल्स’ शीर्षक से रिपोर्ट बनाई है, इन घटनाओं की जिम्मेदारी इंडियन मुजाहिद्दीन ने ली थी। इस संस्था के 160 लोगों से बातचीत के आधार पर रिपोर्ट तैयार की है और जिन लोगों से बात की गई है उनमें दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और उŸार प्रदेश के संदिग्ध लोग, उनके परिजन, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और सुरक्षा विशेषज्ञ शामिल है। ह्यूमन राइट्स वाॅच ने कहा है कि भारतीय अधिकारियों नें 2008 में हुए बम विस्फोटों की जांच में आतंकवाद विरोधी दस्तों ने अनेक मुसलमान पुरूषों से पूछताछ की, उन्हें ‘एंटी-नेशनल’ यानी देशद्रोही करार दे दिया और अंततः नौ राज्यों के 70 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए। रिपोर्टस के अनुसार पुलिस नें संदिग्धों को पकड़ने ंके बाद हफ्तों तक उनकी गिरफ्तारी नहीं दिखाई ताकि वे पहले दोष स्वीकार कर लें, इनमें से कई लोगों ने आरोप लगाया है कि उन्हें प्रताड़ित किया गया, आँखों की पट्टी बाँधकर रखा गया, उनकी पिटाई की गई, ब्लैक पेपर पर हस्ताक्षर कराए गए और उनके परिजनों को धमकाया गया।
ह्यूमन राइट्स वाॅच का कहना है कि भारत सरकार को जल्द ही न्याय प्रणाली में सुधार करना चाहिए ताकि दोबारा मानवाधिकारों का हनन न हो। मीनांक्षी गंागुली का कहना है, ‘‘वर्ष 2008 में हुए बम धमाकों के सिलसिले में संदिग्धों के साथ हिरासत में हर स्तर पर दुव्र्यवहार हुआ, पुलिस थाने से लेकर जेल तक, मेजिस्ट्रेटों ने इनकी शिकायतों को नज़रअंदाज किया... हमें ऐसा होने की सम्भावना चीन में है, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र (भारत), इससे कहीं बेहतर कर सकता है।’’
ह्यूमन वाॅच ने कहा है थ्क पुलिस को अब पता चल चुका है कि मालेगाँव बम विस्फोट के लिए हिन्दू चरमपंथी शामिल है, इसलिए मालेगाँव बम विस्फोट के सिलसिले में पकड़े गये नौ मुस्लिम नौजवानों के मामले में जल्द से जल्द एक निष्पक्ष जाँच कार्यवाई जाए।
क्या मीडिया मानवाधिकार को बढ़ावा दे रही है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार, गरिमापूर्ण जीवन के पक्ष को मूलाधिकार के रूप में रखता है। नैना साहनी हत्याकांड, जसिका लाल हत्याकांड, नीतीश कटारा हत्याकांड, आरूषि हत्याकांड आदि उदाहरणों से स्पष्ट है कि मानव जीवन को संरक्षण प्रदान करने और एक भी व्यक्ति के जीवन के प्रति जन मानस को उद्द्वेलित करके उसे सामूहिक मन के सिद्धान्त में परिवर्तित करने में मीडिया ने प्रयास किया है। मीडिया की कार्यप्रणाली सदैव से ही वाद, प्रतिवाद और संवाद के बीच अनुनाद करती रही है, इससे यही स्पष्ट हुआ है कि मीडिया ने यह साबित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया कि प्रजातांत्रिक देश में पद और सत्ता के आधार पर मानव-मानव में भेद नही किया जा सकता, सभी मनुष्य समान है, महाराष्ट्र में सŸाा और सेना के लोगों के कृत्यों को उजागर कर मीडिया ने उन लोगों के मानवाधिकार को स्थापित करवानें में मील का पत्थर बनकर दिखाया जिनके लिए आदर्श सोसाइटी का निर्माण हुआ था। पर मीडिया ने सिर्फ बड़े ही प्रकरणों को उठाया है। ग्रामों, मोहल्लों, बेरोजगारों, आदि की समस्या को वह इतने निष्ठा से सामने नही ला पाया जबकि भारत जैसे देश में जहां 70 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामों में रहती है। सरकार ने ग्रामों को जिस तरह से सŸाा में भागीदारी दी है और आर्थिक स्वावलम्बन की तरफ अग्रसर किया है, वैसा हो नही रहा है, पर मीडिया भारत के इस बहुसंख्यक जनसंख्या को सामने लाने में ज्यादा रूचि नही लेता है और इसीलिए मीडिया और मानवाधिकार इस स्तर पर अलग-अलग दिखाई देता है।
भारत में साक्षरता पर आरम्भ से जोर दिया जाता रहा है ना कि शिक्षित होने पर। यह माना जाता है कि शिक्षित होने की पहली कड़ी ही साक्षर होना है। पर यह प्रक्रिया इतनी लम्बी है कि आज भी भारत के 35 प्रतिशत लोग साक्षर नही है। ऐसी स्थिति में सŸाा की जटिलता, नियम को समझते हुए ग्रामों को एक विकसित ग्राम बनाना सरल कार्य नही है परन्तु मीडिया, मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता जगाते हुए इस प्रक्रिया को तेज कर सकता है। जिस देश के ज्यादातर ग्रामों में बिजली नही है, साक्षरता नही है, सभ्यता नाम की कोई चीज नही है, वहाँ पर मीडिया, मानवाधिकार के प्रति जागरूकता आज भी भारत के सबसे पुराने माध्यम रेडियो से पूरी कर सकती है।
म्हिला सशक्तीकरण की तरफ प्रयास कर रहे देश में जिस तरफ लिंगानुपात घट रहा है, और जिस तरह हरियाणा की खाप पंचायत द्वारा लड़कियों की हत्या की खबर मीडिया सामने ला रहा है, उसी का परिणाम है कि सरकार खाप पंचायत के विरूद्ध कानून लाने के लिए विचार कर रही है। पर यह एक सच है कि मीडिया द्वारा दहेज हत्या की सूचनायें आने के कारण लड़कियो में विवाह के प्रति मनोवैाानिक डर पैदा हो गया है। पर उसके विपरीत मीडिया के कारण ही हरियाणा में विदेशी लड़कों से शादी के बाद लड़कियों के उत्पीड़न की सूचनाओं से ही सरकार द्वारा हर दूसरों दिन टी.वी., समाचार पत्रों मे यह विज्ञापन दिया जाने लगा कि अगर आप अपनी लड़की का विवाह विदेश में कर रहे है तो लड़के के बारे में क्या जानकारी होनी चाहिए। मीडिया ने ही जसिकालाल और मधुमिता हत्याकाण्ड को उसकी पूर्णतः तक पहुँचाया जिसके कारण जनमानस में न्यायपालिका से ज्यादा मीडिया पर विश्वास बढ़ा है और इसीलिए कोच्चि की टेªन लड़की से हुए बलात्कार को छिपाने के बजाये उसके परिवार ने मीडिया के माध्यम से लड़की को न्याय दिलाने का साहस किया।
विश्व में हर देश के करीब हम मीडिया के द्वारा हो जाते है मीडिया ने मानव को उसके देश-विदेश से प्रेम में परिवर्तित करने का प्रयास किया है। आज कोई भी व्यक्ति सिर्फ अपने ही देश से सरोकार नही रखता बल्कि वह मिस्र, पाकिस्तान, श्रीलंका, अमेरिका के आतंकवादी हमले पर भी अपने विचार कई मंचों से रखता है। विश्व को बचाने की मुहिम में हर मानव संलग्न होना नही मान लिया गया कि इराक के प्रकरण में सिर्फ अमेरिका के कहने भर से यह नही मान लिया गया कि इराक के पास जैविक हथियार थे और वह विश्व के लिए खतरा था। पर वैश्विक स्तर पर मीडिया के प्रयास के कारण ही वाशिंगटन पोस्ट एवं न्यूयार्क टाइम्स में अमेरिका के पूर्व रक्षामंत्री डोनाल्ड रम्सफेल्ड द्वारा पूरा विश्व यह जान पाया कि इराक पर हमला एक कृतिम प्रयास था जिसमें मानवाधिकारों की अनदेखी हर स्तर पर कर दी गयी और लाखों मानवो को उसके जीवन के अधिकार को छीन लिया।
       सामान्यतया राष्ट्र-राज्य की संकल्पना में यही आशा की जाती है कि राज्य के लिए जनता ही सर्वोच्च प्राथमिकता होगी, परन्तु जनसंख्या और संसाधनों के असंतुलन ने ऐसी विषम स्थिति उत्पन्न कर दी कि जनसंख्या की उपेक्षा सŸाा पक्ष द्वारा की जाने लगी और जिसने अराजकता को बढ़ावा दिया। मूल्यहीन समाज की संरचना का उदाहरण बनाकर सŸाापक्ष अपने द्वारा किये गये मूल्यहीन समाज की संरचना का उदाहरण बनाकर सŸाापक्ष अपने द्वारा किये गये समस्त कृत्यों को सही ठहराया जाने लगा और सŸाापक्ष के लोगों के सामाजिक मूल्यों के विपरीत किये जा रहे कार्यों को भी मौन स्वीकृति प्रदान की जाने लगी क्योंकि उपनिवेशवाद के प्रतिबिम्ब की तरह सŸाा ने यह माना कि आदमी पने स्वयं के जीवन के लिए इतना परेशान है कि वह किसी भी गलत कार्य करने का साहस ही नही करेगा और इसीलिए टू जी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी घोटाला या फिर राष्ट्रमण्डल खेलों का आयोजन में होने वाली धांधली के लिए आरम्भ में सरकार ने कोई गलती ही नही मानी। परन्तु जनता ही सर्वोपरि है और उसे सब जानने का अधिकार है। इस उद्देश्य के आधार इन समस्त घोटालों के बारे में मीडिया ने जिस तरह मुहिम चलाकर राष्ट्र के धन पर जनता के अधिकार को सुनिश्चित किया, उसने यह सिद्ध करने में अहम् भूमिका निभायी कि सरकार जनता से बड़ी नही है और कई लोगों को इस्तीफा देना पड़ा, जेल जाना पड़ा। मीडिया का अस्तित्व एक विधिक व्यक्ति की तरह है जिसकी यांत्रिक आंखों से पृथ्वी पर रहने वाले मानव वैश्विक सरोकार से जुड़ गये और मानवाधिकार को परिभाषित करने के नये आधार सामने आ गये।
वृद्ध लोगों की समस्याएं हो या उनके एकाकीपन से जुड़े पहलू हो, मीडिया ने उनके अधिकारों एवं कानून के लिए मूल्यों की एक लम्बी बहस आरम्भ किया है, जिस पर विमर्श की जरूरत है। पुलिस को सामान्यतया एक सरकारी अविधिक कार्य करने वाले के रूप् में चित्रित किया जाता है। सामान्य जनता में यह डर रहता है कि अगर पुलिस चाह ले तो किसी को भी फंसा सकती है। इस दृष्टिकोण से स्पष्ट है कि पुलिस का समाज में कोई सकारात्मक आधार नही है। इस दृष्टिकोण को दिशा तब मिलती दिखाई देती है जब पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ दिखाकर लोगो को मार दिया जाता है। बाटला हाउस की मुठभेड़ ने इस संशंय को और भी बढ़ाया है परन्तु मीडिया ने मानवाधिकार के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए इस तरह फर्जी मामलों को सामने लाकर जनमानस में यह विश्वास उत्पन्न करने में सहायता की है कि पुलिस के गलत कार्यों के विरूद्ध भी कार्यवाही की जा सकती है।
मानवाधिकार एक अवधारणा है जिसे पूर्णता मीडिया द्वारा प्रदान किया जा रहा है। आज सम्पूर्ण विश्व मीडिया के ही इर्द-गिर्द दिखायी देता है क्योंकि पारदर्शिता का सोपान ही मीडिया है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि मीडिया ने सूक्ष्म विकास के लिए कम कार्य किया है। उसने आतंकवाद, युद्ध, व्यापार, भूमण्डलीकरण, वैश्विक राजनीति आदि पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर रखा है। परन्तु इन्ही सबके संरक्षण से सामान्य व्यक्ति के अधिकारों को संरक्षित किया जा सकता है। मीडिया ने एक परासŸाा का आवरण तैयार किया है जिसकी आँखें सब देख रही है और जिनके प्रकाश में हर व्यक्ति मनुष्य बनने और होने के लिए अपने अधिकारों के लिए लड़ता दिखाई देने लगा है, यही आधुनिकता से उŸार आधुनिकता की तरफ बदलाव है। मीडिया, सामाजिक नियंत्रण का सबसे बड़ा हथियार है जिससे मानवाधिकार को पैना बनाया जा सकता है।
सन्दर्भ


1.     द हिन्दू, 23 नवम्बर 2010, मद्रास
2.     न्यूयार्क टाइम्स, 21 जुलाई 2010, न्यूयार्क
3.     दैनिक जागरण, 3 फरवरी 2011, लखनऊ
4.     आॅन इण्डिया ब्लाग
5.     रोजनामा एक्सप्रेस, 10 नवम्बर 2010, इस्लामाबाद, पाकिस्तान
6.     डेलीमेल, 17 जनवरी 2011, यू.के.


     डा0 आलोक चांटिया, सहायक आचार्य (मानवशास्त्र विभाग),
एस,जे,एन,पी,जी, कालेज, लखनऊ





 

Saturday, 14 May 2011

कानपूर विश्वविद्यालय का निजी महाविद्यालय को मान्यता देने का गोरख धंधा

आज शिक्षा माफ़िया में छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय से संबध करके निजी महाविद्यालय को खोलने की होड़ लगी हुयी है तथा अनेक शिक्षा माफिया अपनी स्नातक और परास्नातक तथा बी एड और एम् एड की मान्यता को स्थायी करवाने में लगे हुए है.एक अनुमान के मुताबिक इस वर्ष १०० से अधिक निजी महाविद्यालय की शिक्षा की नयी दुकाने इस विश्वविद्यालय से इस साल जुड़ने वाली है.इस साल विश्वविद्यालय के जो कर्मचारी मान्यता देने की इस प्रक्रिया में शामिल है उन को लाखो रुपये की काली कमाई हो रही है.मान्यता देने की इस प्रक्रिया में विश्वविद्यालय के कर्मचारी महाविद्यालय के मानक कम और नोटों की गद्दिया ज्यादा देखते है.इन कर्मचारियों का असल में महाविद्यालय से कोई लेना देना होता ही नहीं है लगर लेना होता है तो वो होता है रिश्वत से.कौन महाविद्यालय कितनी अधिक रिश्वत दे रहा है बस इस बात से मतलाब होता है क्योकि विश्वविद्यालय के कर्मचारी भली भाति जानते है के इन निजी महाविद्यालय में न तो इनके बच्चे पढेगे और नहीं इनके रिश्तेदार पढेगे अगर एसा होता भी है तो फिर इन निजी महाविद्यालय में इनके लिए अलग से कॉपी लिखने की व्यवथा हो जाएगी.आज इस विश्वविद्यालय से संबध शायद ही कोई निजी महाविद्यालय होगा जिसके पुरे मानक हो.अरे पुरे मानक तो छोडो आधे मानक ही हो.फिर भी विश्वविद्यालय मान्यता देने में लगा हुआ है क्यों की विश्वविद्यालय के कर्मचारी रिश्वत ले कर कागजो में मानक पुरे कर देते है.इस वर्ष अनेक महाविद्यालय को स्थायी मान्यता दी जा रही है और वो भी इस शर्त पर की इसके बदले नोटों की मोती गद्दी चाहिए.हैरान कर देने वाली बात तब होती है जब महाविद्यालय ३ साल शिक्षण कार्य कर चुकाने के बाद भी उसके मानक पुरे नहीं होते है फिर भी विश्वविद्यालय उसे स्थायी मान्यता दे रहा है वो भी केवल नोटों के दम पर.विश्वविद्यालय के कर्मचारी स्थायी मान्यता देते वक्त न तोयह देखते है की अनुमोदित टीचर है की नहीं और न ही यह देखते है की इन टीचरों को वेतन दिया गया की नहीं और न ही छात्रो की योग्यता की जांच करते है बस एक बात की ही जांच कटे है वो है नोटों की गद्दिया .कुलपति जी से इस ब्लॉग के मध्याम से अनुरोध है की निजी महाविद्यालय की कमसे कम स्थायी मान्यता देते समय इन बातो का ध्यान अवश्य रखे-

१-सम्बंधित महाविद्यालय में अनुमोदित टीचरों से अध्यापन कार्य करवाया गया है की नहीं इस बात की जानकारी छात्रो से गुप्त तरीके से करे।

२-छात्रो की योग्यता की भी जांच करे।

३-अनुमोदित टीचरों को वेतन ठीक तरह से दिया गया है की नहीं ।

४-पुस्तकालय की किताबे छात्रो में दी गयी की नहीं।

५-छात्रो के खेलकूद की व्यवस्था गत वर्षो में क्या थी।

६-महाविद्यालय की प्रयोगशाला में गत वर्षो में प्रयोगात्मक काम छात्रो ने किया है की नहीं इसकी जांच छात्रो की योग्यता की जाए।

७-महाविद्यालय में छात्रो के लिए शुध्द पेय जल के साधन उचित है की नहीं।

८-छात्रायो के लिए अलग से लेडिज प्रसाधन की व्यवस्था है की नहीं।

९-छात्राओं के लिए कोमन रूम की व्यवस्था है की नहीं .कोमन रूम में उनके बैठने के लिए फर्नीचर है की नहीं.

Friday, 13 May 2011

यह कैसी जिंदगी?

कभी कभी सोचता हूँ कि हम प्रगति व विकास के रस्ते पर हैं या विनाश के। कल्पना कीजये जब इस मानव की रचना पृथ्वी पर हुई होगी तो सबसे बड़ी उसकी समस्या क्या थी। मेरी समझ में सबसे बड़ी समस्या अपनी आबादी को बढाना रही होगी। क्योंकि मनुष्य अन्य जीवों के मुकाबले काफी कमजोर प्राणी रहा होगा । उसके पास न तो बड़े बड़े जानवरों जैसा शरीर न ताकत, न भागने की छमता ,और न ही प्रकृति से लड़ने की छमता। हाँ एक चीज़ उसके पास जरूर थी और वो थी उसकी अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक बुद्धि । इसी बुद्धि के कारण उसने अन्य जीवों पर विजय प्राप्त करने के तरीके निकले। नयी नयी खोजें अविष्कार किये जिनसे उसने अपना जीवन सहज बनाने के चक्कर में और भी जटिल एवं समस्याग्रस्त करता गया। जीवन तो सीमित है पर जीने के लिए सामान असीमित बना डाले,और आज उसी के चक्कर में लालच , भ्रष्टाचार , बेईमानी में अपने दिल पर भारी बोझ लिए वह जीने को मजबूर है। कल्पना कीजिये आज से १००-२०० वर्ष पूर्व के भारत के नागरिक की । उस समय व्यक्ति के पास गिने चुने कार्य थे जिसमे मुख्य रूप से भोजन , कपडा एवं रहने के लिए सुरक्षित स्थान की ही समस्या रहा करती रही होगी।मुख्य रूप से जीवन को पूर्ण करने के लिए आज भी वही कार्य हैं। परन्तु आज के युग में तमाम संसाधनों के पा लेने की बहुत सारी कल्पनाएँ हैं। आज हर एक के पास ढेर सारे सपने एवं उन सपनों को पूरा करने के लिए ढेर सारे कार्य हैं । जीवन चक्र पहले भी पूरा कर रहा था और जीवन चक्र आज भी मानव पूरा कर रहा है; परन्तु बड़ी भीड़ , अधिक परेशानी , अधिक चिंताओं के बीच। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के बीच आज जीवन कठिन होता जा रहा है। हताशा, निराशा में तरह तरह के मनोवैज्ञानिक रोग बढ रहें हैं। महानगरों में देखिये जिंदगी २४ घंटे किस रफ़्तार से भाग रही है । एक ऐसी भीड़ की तरह जो शायद अपना लक्ष्य भूल गयी हो। जहाँ हर व्यक्ति बिन दिमाग लगाये दुसरे व्यक्ति के पीछे उससे आगे निकलने के लिए दौड़ रहा हो। सुख चैन हराम है ।छोटे संकुचित लक्ष्य और बस भागम भाग।अपनापन समाप्त हो रहा है, आत्मीयता समाप्त हो रही है । मित्रता लाभ के लोभ या हानि के भयवश है; पारिवारिक रिश्ते स्वार्थ पर आधारित हैं।

Tuesday, 10 May 2011

Culture Specific and Culture Sensitive End-of-Life Care: A Case Study Based on Kashi Labh Mukti Bhawan, Banaras

In all the major civilizations of the world, death, dying, disposal of dead body and the rituals related with death have been major concern of the society. In Hinduism, old age care and death have achieved not only special connotations in terms of spiritual and religious values but also culturally defined modes of behaviour. Kashi, the holy city of Hindus, has special significance in the process of old age care, dying and death. The city abounds in terms of old age care institutions run either by some charitable organizations or by some social welfare organizations, yet it is the Kashi Labh Mukti Bhawan which is a unique organization that illustrates the culture specific and culture sensitive end-of-life care in abundance. For those living out of the sacred space of Kashi, this organization serves as an instrument to fulfill their last wish to die in Kashi and have their last rites and other rituals in this sacred city.

The present study is based on Kashi Labh Mukti Bhawan. It explores the nature of services and facilities available for the dying old aged persons in this organization. It also endeavours to understand the fulfillment of religious and psychosocial needs and satisfaction which old aged persons and their family receive through this organization. Data of the study have been gathered through formal interviews and observation technique.
The study finds that the Kashi Labh Mukti Bhawan is not simply a shelter home and support apparatus to provide end-of-life care to the dying ones but is performing an important role in attaining religious goals and psychological solace to the dying old aged person. The Kashi Labh Mukti Bhawan thus becomes a facilitator and serves the cause of the old aged person in his journey towards salvation and spiritual satisfaction at the fag end of his life. As such, this institution exemplifies the end-of-life care which is culture sensitive and encompasses the values and belief system of Hinduism.
Feel free to comment ….
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umeshka@gmail.com

Saturday, 7 May 2011

कानपुर यूनिवर्सिटी का एक और गोरख धंधा

कानपुर यूनिवर्सिटी का एक और गोरख धंधा 
स्ववित्तपोषी कालेज एवं अंशकालिक  के प्रवक्ताओ  का जो की पहले ही शोषण के शिकार है परीक्षा पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के दौरान शिक्षक कल्याण के नाम पर ५ परसेंट पारिश्रमिक काट लिया जाता है और मजे की बात यह है की इनको वापस कभी भी किसी कैजुएलटी के बाद उस फंड से एक फूटी कौड़ी नही मिलती. विश्विद्यालय में ऊंची रसूख वाले टीचर्स और उनके पिछलग्गू रिश्तेदारों समेत टी डब्ल्यू ऍफ़ का पैसा मनमानी तरीके से खा जाते है.
कुलपति महोदय से अनुरोध है की इस सम्बन्ध में सार्थक कदम उठाये ताकि विश्वविद्यालय में न्याय पूर्ण  प्रणाली दुरुस्त तरीके से कर कर सके.

Happy mother day

Maa se jivan mil kar aata hai,
Maa se jivan chal kar aata hai,
ek baar pakd lo ungli bhi uski,
Maa sun kr dil sukh uska pata hai
All Indian Rights Organization(AIRO) salutes all mothers of this blue planet on mother's day
regard
ALOK CHANTIA
FOR
AIRO

विश्वविद्यालय में हुयी सियारों की प्रभुताई

१०० श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों  की सूची में भारत का कोई भी विश्वविद्यालय नहीं है. उंह ये भी कोई खबर है. अरे खबर तो वो है कि कितना डी ए बढ़ा. कहा कैसे पैसा बनेगा ? ये खबर है भाई
एक कवि ने चुटकी ली    (http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5106042.cms )

माया लोकतंत्र की विश्वविद्यालय  में मशहूर
जिसमें भ्रष्टाचार नित पनप रहा भरपूर
पनप रहा भरपूर, माल सरकारी खाते
फिर भी ब्यूरोक्रैट बिचारे नहीं अघाते
चोरकट  शिक्षक  नेता गण चाबें वोट-चबेना
उन्हें भला शिक्षा से क्या है लेना-देना
हंसों को जूठा चना, मोती चुनते काग
लक्ष्मीवाहन जीमते कोयल वाला भाग
कोयल वाला भाग भैरवी गिद्ध गा रहे
सारे बगुला भगत प्रशंसा नित्य पा रहे
विश्वविद्यालय में हुयी  सियारों की प्रभुताई
वहां सिंह सम्मान किस तरह पाए भाई 
                                                                                       
                                                               साभार "दिव्यदृष्टि" नवभारत टाईम्स 
                                                        
                                                           
                                                                          

Friday, 6 May 2011

अखिल भारतीय अधिकार संगठन ( Akhil Bharatiya Adhikar sangathan)


Once every Indian was enamoured by the fact that India used to be a “ Golden Bird” but today he is disenchanted with this, in spite of knowing the fact why India lost the legacy of being called ‘Golden Bird’, every Indian takes pride in leading a life of animal instead of doing anything concrete to gain back its lost status. Every year we celebraterate 26th January and 15 august as ceremonies and rituals only and create a mockery of one of the biggest democracy of the world after USA. We Indians never thought to maintain a balance between our natural resources and strength of population. Today we are more than one billion leaving behind China which used to be one of the most populous nations of the world. Due to imbalance between natural resources and population our nation became a nation of hunger, unemployment, weakness and diseases and our ‘Mother India’ became the Mother of hungry, unemployed, necked, diseased and distressed Indians, instead of being a mother of healthy & prosperous Indians. Our national leaders never try to save the image of our ‘Mother India’ as growing population. only serves their selfish interests of casteism, regionalism and strengthens their vote banks. We Indians are living in the utopian world of freedom, liberty and democracy. We never realize the value of our precious votes and its casting rights. What it has given to us? Only false consolations regarding progress of nation and false promises to Indians Where is electricity, food, public transport, roads and health services for common Indians? We need not tell what our leaders are doing for the nation and its people? We have to think how much respect our national leaders have given to our sacred Constitution and its ideals? We have created plethora of Laws but could not solve the problem of our nation. We have dowry prohibition Act, 1961 but daily thousands of women are sacrificed on the alter of dowry, we can not secure the lives of our women and girl children. who are killed in the womb of the mother, in spite of heaving Pre Natal Diagnostic Techniques (Regulation and Prevention of Misuse)Act, 1994. Today we have realised the futility of judicial administration and we have no faith in our police system.
 Come and join hands with AIRO and be a true Indian.


with regards
Dr Alok Chantia
9415083663
alokchantia@gmail.com

Sunday, 1 May 2011

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से एक अपील; उच्च शिक्षा संस्थानों के प्रबंधको के लिए ऐपटीट्यूड टेस्ट अनिवार्य किया जाये

आज कल डिग्री कालेज या कोई भी शैक्षणिक संस्थान खोलना कुबेर के खजाने को खोलने जैसा है. वास्तव में इन संस्थानों के प्रबंधक/मालिक  धनपशु होते है जिन्हें शिक्षा के विकास और उसके प्रचार प्रसार से दूर दूर तक लेना देना नहीं होता है वे मात्र आर्थिक लाभ हेतु दुकाने खोल कर बैठ जाते है और येन केन प्रकारेण अपनी पाशविक प्रवृत्ति की पूर्ती में लगे रहते है. यह बड़ी चिंताजनक बात है कि उठाईगीर, गुंडे, मवाली, राजनीतिक माफिया ,भ्रष्टाचारी, विश्वविद्यालय के बाबू और जुगाडू टीचर (जिन्हें पढने पढ़ाने से एलर्जी है ) शैक्षणिक संस्थान खोल कर काले धन को सफ़ेद करते है वहा काम करने वाले तीचेर्स को जूती और नौकर समझते है सबसे मजे की बात है कि महान शिक्षाविद का टैग लगा कर सामाजिक सेवा का दंभ लिए मूंछ ऊंची कर घुमते है. इसका प्रमाणस्वरुप  छत्रपति शाहूजी विश्वविद्यालय से सम्बंधित संस्थानों के मालिको की पृष्ठभूमि देखिये.
 ये प्रक्रिया अपने द्वितीय चरण में है मतलब भ्रष्ट प्रबंधक तो भ्रष्ट कार्यकारिणी. अब इसके आगे का चरण है भ्रस्त और पस्त टीचर. जब टीचर को प्रबंधक की चरणवंदना करके वेतन मिलेगा तो वह पढ़ायेगा क्यों? दूसरी बात कि नक़ल के सहारे  छात्रों को जब पास होना है तो वे पढेगे क्यों? अब छात्र भी भ्रष्ट. चौथे चरण में यही छात्र जब शिक्षक बनेगे तब आएगा बल्कि यों कहें कि बस सन्निकट है. ये भूतपूर्व नकलची छात्र अब शिक्षक के रूप में क्या पढायेगे? कि नक़ल कैसे की जाती है? फिर क्या होगा अंधेर नगरी चौपट राजा. शिक्षा व्यवस्था का सर्वनाश समूल नाश.
ऐसी स्थिति को रोकने के लिए विश्वविद्यालय  अनुदान आयोग को  शिक्षको की तरह प्रबंधको के लिए भी नोर्म्स फिक्स करना होगा. आयोग को अगर शिक्षा को बचाना है तो प्रबंधको के लिए एक ऐपटीट्यूड टेस्ट अनिवार्य कर देना चाहिए जो नेट परीक्षा की भांति हो. इससे सही मायनो में शैक्षिक संस्थानों में शिक्षा एक उद्द्येश्य एक लक्ष्य के रूप में कायम रह पाएगी

                                                                                                                 पी के मिश्र