डिग्री कालेजों में जुलाई माह आते ही शुरू हो जाते है प्राचार्य व शिक्षकों को नियुक्त करने का सिलसिला । पूरे वर्ष पढाने वाले लोग वर्ष के अंत में जाने कहा गुम हो जाते है। क्या ये लोग विज्ञापित पद पर अनुमोदन तक का सफर तय करते है ? यह हाल है शिक्षा का । क्या वास्तव में निजी कालेजो के प्रबंधक सरकार की आंखों में धूल झोकते है या फिर दोनो की मिली भगत से चलता है यह करोबार। यह सोचनीय है।
स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों को ख्ुले लगभग 1 दशक बीतने को जा रहा है किन्तु अधिकंाश महाविद्यालयों के पास न तो जमीन है न भवन न प्रयोगशाला आैर तो आैर न ही शिक्षक भी है इस तथ्य को देर सवेर उच्च शिक्षा अधिकारी भी स्वीकार करते रहते है फिर भी धडल्ले से चल रहक है यह महाविद्यालय का करोबार ।
सवाल यह उठता है कि सरकार इन अव्यवस्थाअो को क्यों दूर नही कर पाती। क्या वास्तव में प्रबंधक सरकार की आंखों में धूल झोकते है फिर दोनो की मिली भगत से चलता है यह करोबार। आखिर क्यों जुलाई माह में शुरू हो जाते है प्राचार्य एवं शिक्षको के विज्ञापन ? क्या वास्तव में अनुमोदित प्राघ्यापक नियुक्त हो पाते है या फिर कागजो में सिमट कर रह जाते है। क्या शासनादेश के अनुरूप उनको वेतन मिलता है क्या उन्हे महाविद्यालय द्धारा सीपीएफ दिया जाता है । विशविवद्यालय प्रशासन प्रतिवर्ष अपने वचाव हेतु इनसे हलफनामा को लेकर अपने कार्यों से इति श्री कर लेता है
मै सविनय निवेदन करता हू समस्त कुलपतियों से उक्त बिन्दुआे पर जांच कर अनिमियता को समाप्त करे।
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