Tuesday 17 May 2011

मानवाधिकार और मीडिया Dr Alok Chantia

मानव ने पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद उद्भव की एक लम्बी श्रंृखला, आस्टेªलोपिथिकस से होमोसैपियंस बनने में तय की है। परन्तु संस्कृति ने मानव के उद्भव को जैविक मानव से सांस्कृतिक मानव की प्रक्रिया में परिवर्तित कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि मानव ने सिर्फ प्रकृति के सहारे रहने के बजाए अपनी आवश्यकता करने के अनुसार प्रकृति से अनुकूलता कर ली और उसने पशुपालन, खेती, आवास बनाकर एक व्यवस्थित जीवन जीना नव पाषाण काल से आरम्भ कर दिया। उसका परिणाम यह है कि प्राकृतिक आपदाओं और प्राकृतिक मृत्यु के बाद भी पृथ्वी पर मानव की संख्या किसी भी जन्तु से ज्यादा हो गयी और बहुत से जन्तु तो मानव की जनसंख्या के बढ़ते रहने के कारण ही पृथ्वी से विलुप्त हो गये। जीवन को चलाये रखने के लिए मनुष्य के समक्ष योग्यतम् की उŸारजीविता के सिद्धान्त ने एक समस्या खड़ी कर दी जिसके कारण जिस संस्कृति को बनाकर मानव ने प्रकृति से अपने मानवाधिकार को सुनिश्चित किया था, वह मानवाधिकार प्रकृति से हटकर धीरे-धीरे राष्ट्र राज्य संकल्पना की ओर उन्मुख हो गया, जिसके कारण प्रकृति की अपेक्षा मानव को अपने जीवन को न्यूनतम् स्तर पर रखने के लिए सरकार से अपनी आवश्यकतायें पूर्ण कराना कठिन हो गया। जंगल में शेर को राजा बनाये जाने वाली कहानी की तरह ही मानव ने भी मानव को राजा तो बना दिया पर शेर की ही तरह, राजा (सरकार) अपने जीवन को चलाये रखने के लिए ज्यादा प्रयास करती रही है जिससे जंगल राज की तरह जनता एक खाद्य श्रंृखला के रूप् में रही और सभी मनुष्य समान होने के बाद भी, मनुष्य का शोषण मनुष्य ही करने लगा। इसी प्रक्रिया ने मानवाधिकार को और मुखरित करने में योगदान किया, पर किसी स्थान, समुदाय में चल रहे मानवाधिकार हनन को दूसरे स्थान समुदाय तक पहुँचाने और मानव समुदाय में एक सामान्य चेतना लाने का कार्य मीडिया द्वारा किया गया।
       मीडिया, मानव समाज के मघ्य एक ऐसी कृत्रिम आंखे बन कर स्थापित हुआ जिसने कमरे में बैठे व्यक्ति के जीवन में समाचार पत्र, टी. वी. आदि के माध्यम से मानवीय मूल्यों को बनाये रखने में सहयोग किया और मीडिया के इसी रूप के कारण मानव समूहों की समय-समय पर राष्ट्रीय और अन्र्तराष्ट्रीय मुद्दों पर प्रतिक्रिया दिखाई देने लगी। पर मीडिया भी मानव से चलने वाला एक उपक्रम है। जिस पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि उसने सिर्फ मानव के जीवन को उठाने का कार्य ही नहीं किया बल्कि उसने स्वयं को जीवित रखने के लिए स्वयं ऐसी कृत्रिम स्थिति उत्पन्न करने का प्रयास किया जो मानवाधिकारों के उद्देश्यों के विपरीत है। निम्न उदाहरणों से स्पष्ट हो जायेगा कि मानवाधिकारों के संरक्षण और हनन को बढावा देने में मीडिया ने क्या योगदान दिया।
केरल के कोच्ची शहर की यह 23 वर्षीय लड़की अपनी शादी तय हो जाने पर अपने घर जाने के लिए निकली, उसने एर्नाकुलम एक्सप्रेस टेªन में अपना आकर्षण महिलाओं के डिब्बे में किराया यह सोचकर लिया कि वह वहाँ सुरक्षित रहेगी, देर रात गए एक व्यक्ति डिब्बे में दाखिल हुआ और अकेली युवती को देख उसके साथ छेड़छाड करने लगा।
       वह युवती बलात्कार का शिकार बन गई, उस पूरे यात्रा के दौरान उस डिब्बे में कोई सुरक्षाकर्मी या गार्ड मौजूद नहीं था, अपनी होस मिटाने के बाद बदहोस उस व्यक्ति ने इस लड़की को चलती ट्रेन के बाहर फेक दिया, पुलिस ने बताया कि यह युवती वलाथोल और शोरनपुर रेलवे स्टेशनों के बीच पटरियों के किनारे खून से लथपथ मिली थी इस समय वह अस्पताल के आपातकालीन कक्ष में है और उसकी हालत गम्भीर बनी हुई है, पुलिस का कहना है कि इस मामले में अभी कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। कई संगठन ने इसके लिए प्रदर्शन किया है, जिसके कारण प्रशासन ने तुरंत कार्यवाही करने के आदेश दिया है, डोनाल्ड रम्सफेल्ड की आत्मकथा के अंश वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयार्क टाइम्स ने छापे।(23 नवम्बर 2010, द हिन्दू)
       अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफेल्ड के अनुसार अमेरिका पर 11 सितम्बर 2001 को हुए हमलो के 15 दिनों के बाद पेन्टागन के इराक के लिए युद्धनीति पर पुर्नविचार कहने को कहा था।
       डोनाल्ड रम्सफेल्ड 78 वर्ष के है और उन्होनें अपनी आत्मकथा लिखी है जिसमें इन बातों का जिक्र है - इस आत्मकथा से लीक हुए अंशों को वाशिंगटन पोस्ट एवं न्यूयार्क टाइम्स ने छापा है, बी.बी.सी. के वाशिंगटन संवाददाता स्टीव किंग्सटन का कहना है कि आत्मकथा से इस विचार को बल मिलता है कि तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश पहले से ही ईराक पर नजरें गढ़ाए बैठे थे जबकि उनका प्रशासन अल कायदा के खिलाफ जंग की तैयारी कर रहा था।
       न्यूयार्क टाइम्स में छपे एक अंश के अनुसार रम्सफेल्ड ने बताया है कि किस तरह 9/11 के 15 दिन बाद उन्हे अकेले अमरीकी राष्ट्रपति के कार्यालय ओवल आॅफिस में बुलाया गया, रम्सफेल्ड के हवाले से बताया गया है कि, ‘‘मुझे ईराक युद्ध के बारे में तत्कालीन योजनाओं पर पुनर्विचार करने को कहा गया और बुश का जोर इस बात पर था कि जिन विकल्पों पर विचार हो वे रचनात्मक यानि एक नये तरीके की हो।’’ उधर पूर्व राष्ट्रपति बुश ने अपनी किताब में कहा था कि उन्होंने ऐसा अनुरोध छह हफ्ते बाद किया था, लेकिन डोनल्ड रम्सफेल्ड को ईराक युद्ध के बारे में कोई अफसोस नहीं है, उनका तर्क है कि यदि सद्दाम हुसैन सत्ता में बने रहते तो मध्य पूर्व में आज स्थिति और खतरनाक होती, उनका ये भी कहना है कि वे और संख्या में सैनिक भेज सकते थे। रम्सफोर्ड का कहना है कि उन्हे सबसे ज्यादा अफ़सोस इस बात का है कि उन्होंनें अबू गरैब जेल कांड के सार्वजनिक होने के बाद तत्काल पद क्यों नहीं छोड़ दिया, (न्यूयार्क टाइम्स, 21 जुलाई 2010) हालाँकि वे कहते हैकि उनके जार्ज बुश ने दो बार उनके इस्तीफे की पेशकश को नामंजूर कर दिया था।
डीएमके के सांसद और तमिलनाडु में दलितों के मसीहा ए राजा को कल सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया था, साथ ही उनके सहयोगियों ने एक पूर्व टेलीकाॅम सचिव सिद्धार्थ बेहुरा और निजी सचिव आर.के.चंदालिया को भी गिरफ्तार किया गया था। सीबीआई ने आज उन्हें और उनके सहयोगियों को सीबीआई की पटियाला कोर्ट के सामने पेश किया। मालूम हो कि पूर्व केन्द्रीय दूरसंचार मंत्री ए राजा 2जी  स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले के सिलसिले में गिरफ्तार किये गये हैं।
कोर्ट नें सीबीआई और राजा दोनों का पक्ष ध्यानपूर्वक सुना और फिर राजा को उनके सहयोगियों समेत सीबीआई को पांच दिन  की रिमांड पर दे दिया। सीबीआई ने कोर्ट में दलील दी थी कि अभी तक पूछ-ताछ में राजा ने घोटाले के संदर्भ में जानकारियां सीबीआई को नहीं दी है इसलिए सीबीआई उन्हे अपनी कस्टडी में लेकर पूछताछ करना चाहती है। उल्लेखनीय है कि सीबीआई को राजा मामले में अगले 60 दिनों के अन्दर चार्जशीट भी दाखिल करनी है।
सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि, ‘‘हम अगले 60 दिनों में तीनों आरोपियों के खिलाफ औपचारिक आरोप पत्र भी दायर करेंगे। इस मामले में और भी गिरफ्तारियां हो सकती है।’’ नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन प्रक्रिया से देश को 58,000 करोड़ से 1.76 लाख करोड़ रूपये तक के राजस्व का नुकसान होने का अनुमान व्यक्त किए जाने और राजा पर अनियमितताओं का आरोप लगने के बाद 14 नवम्बर को राजा ने पद से इस्तीफा दे दिया था। (दैनिक जागरण, 03 फरवरी 2011)
बैगलूर, 26 नवम्बर का दिन था, घड़ी में रात के साढ़े नौ बजे थे, आमतौर पर मीडिया हाउस में शिफ्टों में काम होता है, और व्यस्तता आमतौर पर 9 बजे के बाद कम हो जाती है सो हमारे आॅफिस में भी लोग धीरे-धीरे अपने अपने कामों में निवृŸा हो रहे थे, कुछ खाना खाने के लिए कैंटीन की ओर बढ़ रहे थे तो कुछ टीवी चैनल बदल कर आपस में बहस कर रहे थे कि कौन सा चैनल हमसे बेहतर है और कौन सा हमसे खराब। इसी बहस के दौरान अचानक हमारे डेस्क का फोन बजा, शिफ्ट इंचार्ज ने फोन उठाया, मुंबई के रिपोर्टर का फोन था, जिसने खबर दी थी कि हमारी मायानगरी में कुछ नापाक लोग घुस चुके है और वो आम लोगों को बंधक बना कर गोलों की बरसात कर रहे हैं। इतना सुनना था कि डेस्क के अलसाये लोग फौरन अपनी-अपनी सीट पर पहुंच गये और लगे अपने-अपने हिसाब से खबर को लिखने और दिखाने।
करीब पांच मिनट के अंदर हमारा पूरा आॅफिस एक रणक्षेत्र में तब्दील हो गया, जिन चैनलों पर गाने बज रहे थे उन्हे हटाकर न्यूज चैनल लगा दिये गये और ज्यादा से ज्यादा ताजा खबरों का जायजा लेने के लिए बार-बार अपने मुंबई संवाददाता को फोन किया जाने लगा। पूरी मीडिया जगत में ये खबर आग की तरह फैल गई कि मुंबई आतंकवादियों से घिर गई है, ताज होटल में आतंकवादी हथियारों के साथ घुस गये हैं। उन्होनें वहां के लोगों को बंधक बना लिया है।
हमारे डेस्क इंचार्ज ने फौरन हमारी आपातकालीन बैठक बुलाई और कहा कि इस खबर को बढ़िया से बढ़िया कवरेज देना है, क्योंकि ये वो चिंगारी है जो हमारी टीआरपी बढ़ा सकती है। जो लोग थोड़ी देर पहले घर जाने का सपना देख रहे थे उन्हें रात के कवरेज के लिए रोक दिया गया और वो लोग अपना अपना नम्बर बढ़ानें के लिए रूकने को तैयार हो गये अब ना तो उन्हे अपने घर की चिंता थी और न ही परिवार की। उन्हे लगा कि शायद लम्बे समय से रूका उनका प्रमोशन इस कवरेज के बाद जरूर पूरा हो जायेगा।
किसी भी चैनल ने आम लोगों के बारे में ना तो जाना और न ही कुछ बयां किया। सब राजनेताओं को धोने में लगे थे। खैर जब हमारी आर्मी ने सारे आतंकियों को मौत की नींद सुलाने के बाद मुंबई फतेह की तो सारी मीडिया नें तारीफों का पुलिंदा बांध दिया। पूरी खबर के प्रशारण के बाद हमारे डेस्क इंचार्ज ने तालियों के साथ अपनी टीम को थैंक्स कहा और कहा कि हम कवरेज में सबसे आगे रहे। हमारी टीआरपी सबसे हाई रही। और उसके बाद सब कुछ वैसे ही चलने लगा जैसा कि चलता आ रहा था। और लोगा अगली बड़ी खबर का इंतजार करने लगे।
ये झांकी हर मीडिया हाउस की है, संवेदनाओं की दुहाई देने वाला मीडिया आज खुद संवेदनहीन और भ्रमित हो गया है। आज उसे आम आदमी की समस्या नही बल्कि अपनी टीआरपी रेट दिखाई देती है। पल पल नेताओं को कोसने वाली मीडियाकर्मियों की हालत देखकर ऐसा लगता है जैसे कि वो हर पल 26/11 जैसे आतंकवादी हमले का इंतजार कर रहे हो, ताकि वो ये बता और दाखिल कर सकें कि लोगों की मौत के आंकड़े को सही बतानें में वो कितना औरों से आगे रहे हैं? (आॅन इण्डिया मीडिया ब्लाग)
पाकिस्तान के सभी समाचार पत्रों ने अमरीकी राष्ट्रपिता बराक ओबामा की भारत यात्रा को पहले पन्ने पर छापा है, कुछ अख़बारों ने उनकी भारत यात्रा पर संपादकीय भी लिखे हैं और ओबामा और मिशल की वह तश्वीरे प्रकाशित की है जब उन्होंने स्कूली छात्रों के साथ कोली नृत्य किया था, अंग्रेजी के सब से बड़े अखबार ‘डेली डाॅन’ ने राष्ट्रपिता ओबामा की ख़बर को मुख्य तौर पर पहले पन्ने पर प्रकाशित किया है और उसका शीर्षक है - बी ए गुड नेबर, ओबामा टेल्स इंडिया यानि ओबामा की भारत को सलाह कि अच्छे पड़ोसी बनों। अखबार आगे लिखता है कि राष्ट्रपति ओबामा ने मुंबई में छात्रों के तीखे सवालों के जवाब दिये और पाकिस्तान पर पूछे गए सवाल पर कहा कि पाकिस्तान की स्थिरता से अगर किसी देश को अधिक लाभ होगा तो वह है भारत और उन्हें आशा है कि दोनों देश बातचीत के माध्यम से सभी मुद्दे सुलझाएंगे। अखबार ने लिखा है कि अमरीकी राष्ट्रपति ने भारतीय छात्रों के सवालों का जवाब देते हुए पाकिस्तान को स्पष्ट संदेश दिया कि वह आतंकवाद और चरमपंथ ने निपटने के लिए अपने प्रयासों को और तेज करें, अंग्रेजी के एक ओर अखबार ‘डेली टाइम्स’ ने भी ओबामा की भारत यात्रा को अपनी मुख्य ख़बर बनाया है उसका शीर्षक है - ओबामा पुशेस इंडिया टु टाॅक टु पाकिस्तान यानि ओबामा ने भारत पर पाकिस्तान से बातचीत कि लिए दबाव डाला।
अखबार लिखता है कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत और पाकिस्तान से कहा कि वे बातचीत के जरिए पहले वे मुद्दे हल करें जो ज्यादा विवादास्पद नहीं है और अमरीका दोनों देशों पर शांति लागू नहीं कर सकता।
राष्ट्रपिता ओबामा का उल्लेख देते हुए अखबार आगे लिखता है कि पाकिस्तान में राजनीतिक स्थिरता भारत के हित में है और स्थिर पाकिस्तान का सबसे ज्यादा फायदा भी भारत को ही होगा, अखबार लिखता है कि अमरीका ने एक बार फिर पाकिस्तान से कहा है कि वह आतंकवाद और चरमपंथ को निपटने के लिए अपनी कोशिश तेज करे ताकि इस क्षेत्र में शांत स्थापित हो सके।
अखबार ने ओबामा की भारत पर यात्रा पर संपादकीय भी लिखा है जिसमे कहा गया है कि पाकिस्तान को उम्मीद है कि राष्ट्रपति ओबामा भारतीय नेतृत्व से कश्मीर मुद्दे पर बात करेंगे और उसके हल के लिए भारत पर दबाव डालेंगे। अंग्रेजी के अखबार ‘‘दि नेशन’’ ने भी ओबामा की ख़बर को पहले पन्ने पर जगह दी है और उसका शीर्षक है- केरेट्स फाॅर इंडिया, स्टिक फाॅर पाकिस्तान यानि भारत की पीठ थपथपाई और पाकिस्तान को झाड़ा।
अखबार नें अमेरिकी राष्ट्रपिता बराक ओबामा की उस टिप्पणी को अपनी मुख्य ख़बर बनाया है जिसमें उन्होंने पाकिस्तान की आलोचना की है कि आतंकवाद के खात्में के लिए उसकी कोशिश काफी नहीं हैं, अखबार ने आगे लिखा है कि अमरीकी राष्ट्रपति ने भारतीय छात्रों से बात करते हुए कहा कि आतंकवाद के खात्में के लिए पाकिस्तानी की प्रगति जितनी होनी चाहिए थी, उतनी नहीं है और पाकिस्तान को अपने प्रयास तेज़ करने चाहिए। उर्दू का एक अखबार ‘रोजनामा एक्सप्रेस’ का शीर्षक है- खुशहाल पाकिस्तान का ज्यादा फायदा भारत को है, अखबार आगे लिखता है कि राष्ट्रपति ओबामा ने भारत से कहा कि वह आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान की मदद करें क्योंकि केवल अमेरिका नहीं बल्कि पूरी दुनिया आतंकवाद का शिकार है, अख़बार ने राष्ट्रपिता ओबामा और उनकी पत्नी मिशल ओबामा की वह तश्वीरें भी प्रकाशित की है जिसमें मुंबई  में स्कूली छात्रों के साथ नाच किया था। (रोजनामा एक्सप्रेस, पाकिस्तान)
लंदन। भारत में संयुक्त परिवार एक ऐसा सामाजिक ढांचा है जो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक हर किसी बढ़िया सुरक्षा और बेहतर माहौल देता है। लेकिन धीरे-धीरे भारत में भी एकल परिवारों का चलन बढ़ रहा है और लोग अकेले रहने के आदी हो चले है। जिन्हें अकेले रहने की आदत है, उनके लिए बुरी खबर है। वैसे तो अकेलापन सभी उम्र के लोगों के लिए खतरनाक है लेकिन बुजुर्गों के लिए अकेलापन जानलेवा सावित हो रहा है।
ब्रिटेन के समाचार पत्र ‘डेली मेल’ में प्रकाशित एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि 10 में से एक बुजुर्ग ‘जबरदस्त’ एकाकीपन से ग्रसित है। इससे अवसाद घर करता है। साथ ही साथ उनकी कसरत करने और खाने-पीने की आदतें धीरे-धीरे खत्म होती चली जाती है। यह बुजुर्गों के स्वास्थ्य के लिए उतना ही खतरनाक है जितना मोटापा या फिर धूम्रपान है। (डेलीमेल, 17 जनवरी 2011)
अब तो डाॅक्टर्स भी मानते है कि खराब स्वास्थ्य और एकाकीपन का करीबी रिश्ता है। 2200 लोगों पर कराए गए एक सर्वेक्षण के दौरान 5 में से 1 व्यक्ति ने यह माना है कि एकाकीपन से स्वास्थ्य खराब होता है, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू. एच. ओ.) एकाकीपन को स्वास्थ्य खराब होने के बड़े कारणों में से मानता है। शोधकर्ता मानते है कि सामाजिक सक्रियता के अभाव में लोगों में रोग घर कर लेते हैं। ऐसे रोगों में अल्जाइमर प्रमुख है। मानवाधिकार के लिए काम करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट्स वाॅच ने भारत में वर्ष 2008 में तीन जगहों पर हुए बम धमाकों पर बनाई गई अपनी रिपोर्ट में भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की कड़ी आलोचना की है।
ह्यूमन राइट्स वाॅच का कहना है, ‘‘सरकारी संस्था एन.एच.आर.सी. ने आतंकवादी घटनाओं के संदिग्धों की शिकायतों पर ढुलमुल रवैया अपनाया है, सबसे स्पष्ट उदाहरण बटला हाऊस मुठभेड़ में एन.एच.आर.सी. की जाँच का है, इस मामले में एन.एच.आर.सी. के अपने आदेश का उल्लंघन हुआ जिसके तहत सभी मुठभेड़ों की जाँच होनी चाहिए।’’ उनका कहना है, ‘‘दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश पर एन.एच.आर.सी. ने बटला हाऊस की जाँच की और केवल पुलिस के पक्ष पर आधारित रिपोर्टस में पुलिस को निर्दोष करार दे दिया, इस मामले में एक नई गम्भीर जाँच होनी चाहिए।’’
ह्यूमन राइट्स वाॅच की दक्षिण एशिया मामलों की निर्देंशक मीनाक्षी गांगुली का कहना है, ‘‘जहाँ तक आतंकवाद विरोधी कार्यवाई के दौरान दुव्र्यवहार की बात है राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोेग केवल मूक दर्शक बनकर रह गया है।’’
ह्यूमन राइट्स वाॅच ने वर्ष 2008 में जयपुर, अहमदाबाद और नई दिल्ली में हुए बम धमाकों के बाद के घटनाक्रम पर ‘दि एंटीनेशनल्स’ शीर्षक से रिपोर्ट बनाई है, इन घटनाओं की जिम्मेदारी इंडियन मुजाहिद्दीन ने ली थी। इस संस्था के 160 लोगों से बातचीत के आधार पर रिपोर्ट तैयार की है और जिन लोगों से बात की गई है उनमें दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और उŸार प्रदेश के संदिग्ध लोग, उनके परिजन, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और सुरक्षा विशेषज्ञ शामिल है। ह्यूमन राइट्स वाॅच ने कहा है कि भारतीय अधिकारियों नें 2008 में हुए बम विस्फोटों की जांच में आतंकवाद विरोधी दस्तों ने अनेक मुसलमान पुरूषों से पूछताछ की, उन्हें ‘एंटी-नेशनल’ यानी देशद्रोही करार दे दिया और अंततः नौ राज्यों के 70 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए। रिपोर्टस के अनुसार पुलिस नें संदिग्धों को पकड़ने ंके बाद हफ्तों तक उनकी गिरफ्तारी नहीं दिखाई ताकि वे पहले दोष स्वीकार कर लें, इनमें से कई लोगों ने आरोप लगाया है कि उन्हें प्रताड़ित किया गया, आँखों की पट्टी बाँधकर रखा गया, उनकी पिटाई की गई, ब्लैक पेपर पर हस्ताक्षर कराए गए और उनके परिजनों को धमकाया गया।
ह्यूमन राइट्स वाॅच का कहना है कि भारत सरकार को जल्द ही न्याय प्रणाली में सुधार करना चाहिए ताकि दोबारा मानवाधिकारों का हनन न हो। मीनांक्षी गंागुली का कहना है, ‘‘वर्ष 2008 में हुए बम धमाकों के सिलसिले में संदिग्धों के साथ हिरासत में हर स्तर पर दुव्र्यवहार हुआ, पुलिस थाने से लेकर जेल तक, मेजिस्ट्रेटों ने इनकी शिकायतों को नज़रअंदाज किया... हमें ऐसा होने की सम्भावना चीन में है, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र (भारत), इससे कहीं बेहतर कर सकता है।’’
ह्यूमन वाॅच ने कहा है थ्क पुलिस को अब पता चल चुका है कि मालेगाँव बम विस्फोट के लिए हिन्दू चरमपंथी शामिल है, इसलिए मालेगाँव बम विस्फोट के सिलसिले में पकड़े गये नौ मुस्लिम नौजवानों के मामले में जल्द से जल्द एक निष्पक्ष जाँच कार्यवाई जाए।
क्या मीडिया मानवाधिकार को बढ़ावा दे रही है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार, गरिमापूर्ण जीवन के पक्ष को मूलाधिकार के रूप में रखता है। नैना साहनी हत्याकांड, जसिका लाल हत्याकांड, नीतीश कटारा हत्याकांड, आरूषि हत्याकांड आदि उदाहरणों से स्पष्ट है कि मानव जीवन को संरक्षण प्रदान करने और एक भी व्यक्ति के जीवन के प्रति जन मानस को उद्द्वेलित करके उसे सामूहिक मन के सिद्धान्त में परिवर्तित करने में मीडिया ने प्रयास किया है। मीडिया की कार्यप्रणाली सदैव से ही वाद, प्रतिवाद और संवाद के बीच अनुनाद करती रही है, इससे यही स्पष्ट हुआ है कि मीडिया ने यह साबित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया कि प्रजातांत्रिक देश में पद और सत्ता के आधार पर मानव-मानव में भेद नही किया जा सकता, सभी मनुष्य समान है, महाराष्ट्र में सŸाा और सेना के लोगों के कृत्यों को उजागर कर मीडिया ने उन लोगों के मानवाधिकार को स्थापित करवानें में मील का पत्थर बनकर दिखाया जिनके लिए आदर्श सोसाइटी का निर्माण हुआ था। पर मीडिया ने सिर्फ बड़े ही प्रकरणों को उठाया है। ग्रामों, मोहल्लों, बेरोजगारों, आदि की समस्या को वह इतने निष्ठा से सामने नही ला पाया जबकि भारत जैसे देश में जहां 70 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामों में रहती है। सरकार ने ग्रामों को जिस तरह से सŸाा में भागीदारी दी है और आर्थिक स्वावलम्बन की तरफ अग्रसर किया है, वैसा हो नही रहा है, पर मीडिया भारत के इस बहुसंख्यक जनसंख्या को सामने लाने में ज्यादा रूचि नही लेता है और इसीलिए मीडिया और मानवाधिकार इस स्तर पर अलग-अलग दिखाई देता है।
भारत में साक्षरता पर आरम्भ से जोर दिया जाता रहा है ना कि शिक्षित होने पर। यह माना जाता है कि शिक्षित होने की पहली कड़ी ही साक्षर होना है। पर यह प्रक्रिया इतनी लम्बी है कि आज भी भारत के 35 प्रतिशत लोग साक्षर नही है। ऐसी स्थिति में सŸाा की जटिलता, नियम को समझते हुए ग्रामों को एक विकसित ग्राम बनाना सरल कार्य नही है परन्तु मीडिया, मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता जगाते हुए इस प्रक्रिया को तेज कर सकता है। जिस देश के ज्यादातर ग्रामों में बिजली नही है, साक्षरता नही है, सभ्यता नाम की कोई चीज नही है, वहाँ पर मीडिया, मानवाधिकार के प्रति जागरूकता आज भी भारत के सबसे पुराने माध्यम रेडियो से पूरी कर सकती है।
म्हिला सशक्तीकरण की तरफ प्रयास कर रहे देश में जिस तरफ लिंगानुपात घट रहा है, और जिस तरह हरियाणा की खाप पंचायत द्वारा लड़कियों की हत्या की खबर मीडिया सामने ला रहा है, उसी का परिणाम है कि सरकार खाप पंचायत के विरूद्ध कानून लाने के लिए विचार कर रही है। पर यह एक सच है कि मीडिया द्वारा दहेज हत्या की सूचनायें आने के कारण लड़कियो में विवाह के प्रति मनोवैाानिक डर पैदा हो गया है। पर उसके विपरीत मीडिया के कारण ही हरियाणा में विदेशी लड़कों से शादी के बाद लड़कियों के उत्पीड़न की सूचनाओं से ही सरकार द्वारा हर दूसरों दिन टी.वी., समाचार पत्रों मे यह विज्ञापन दिया जाने लगा कि अगर आप अपनी लड़की का विवाह विदेश में कर रहे है तो लड़के के बारे में क्या जानकारी होनी चाहिए। मीडिया ने ही जसिकालाल और मधुमिता हत्याकाण्ड को उसकी पूर्णतः तक पहुँचाया जिसके कारण जनमानस में न्यायपालिका से ज्यादा मीडिया पर विश्वास बढ़ा है और इसीलिए कोच्चि की टेªन लड़की से हुए बलात्कार को छिपाने के बजाये उसके परिवार ने मीडिया के माध्यम से लड़की को न्याय दिलाने का साहस किया।
विश्व में हर देश के करीब हम मीडिया के द्वारा हो जाते है मीडिया ने मानव को उसके देश-विदेश से प्रेम में परिवर्तित करने का प्रयास किया है। आज कोई भी व्यक्ति सिर्फ अपने ही देश से सरोकार नही रखता बल्कि वह मिस्र, पाकिस्तान, श्रीलंका, अमेरिका के आतंकवादी हमले पर भी अपने विचार कई मंचों से रखता है। विश्व को बचाने की मुहिम में हर मानव संलग्न होना नही मान लिया गया कि इराक के प्रकरण में सिर्फ अमेरिका के कहने भर से यह नही मान लिया गया कि इराक के पास जैविक हथियार थे और वह विश्व के लिए खतरा था। पर वैश्विक स्तर पर मीडिया के प्रयास के कारण ही वाशिंगटन पोस्ट एवं न्यूयार्क टाइम्स में अमेरिका के पूर्व रक्षामंत्री डोनाल्ड रम्सफेल्ड द्वारा पूरा विश्व यह जान पाया कि इराक पर हमला एक कृतिम प्रयास था जिसमें मानवाधिकारों की अनदेखी हर स्तर पर कर दी गयी और लाखों मानवो को उसके जीवन के अधिकार को छीन लिया।
       सामान्यतया राष्ट्र-राज्य की संकल्पना में यही आशा की जाती है कि राज्य के लिए जनता ही सर्वोच्च प्राथमिकता होगी, परन्तु जनसंख्या और संसाधनों के असंतुलन ने ऐसी विषम स्थिति उत्पन्न कर दी कि जनसंख्या की उपेक्षा सŸाा पक्ष द्वारा की जाने लगी और जिसने अराजकता को बढ़ावा दिया। मूल्यहीन समाज की संरचना का उदाहरण बनाकर सŸाापक्ष अपने द्वारा किये गये मूल्यहीन समाज की संरचना का उदाहरण बनाकर सŸाापक्ष अपने द्वारा किये गये समस्त कृत्यों को सही ठहराया जाने लगा और सŸाापक्ष के लोगों के सामाजिक मूल्यों के विपरीत किये जा रहे कार्यों को भी मौन स्वीकृति प्रदान की जाने लगी क्योंकि उपनिवेशवाद के प्रतिबिम्ब की तरह सŸाा ने यह माना कि आदमी पने स्वयं के जीवन के लिए इतना परेशान है कि वह किसी भी गलत कार्य करने का साहस ही नही करेगा और इसीलिए टू जी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी घोटाला या फिर राष्ट्रमण्डल खेलों का आयोजन में होने वाली धांधली के लिए आरम्भ में सरकार ने कोई गलती ही नही मानी। परन्तु जनता ही सर्वोपरि है और उसे सब जानने का अधिकार है। इस उद्देश्य के आधार इन समस्त घोटालों के बारे में मीडिया ने जिस तरह मुहिम चलाकर राष्ट्र के धन पर जनता के अधिकार को सुनिश्चित किया, उसने यह सिद्ध करने में अहम् भूमिका निभायी कि सरकार जनता से बड़ी नही है और कई लोगों को इस्तीफा देना पड़ा, जेल जाना पड़ा। मीडिया का अस्तित्व एक विधिक व्यक्ति की तरह है जिसकी यांत्रिक आंखों से पृथ्वी पर रहने वाले मानव वैश्विक सरोकार से जुड़ गये और मानवाधिकार को परिभाषित करने के नये आधार सामने आ गये।
वृद्ध लोगों की समस्याएं हो या उनके एकाकीपन से जुड़े पहलू हो, मीडिया ने उनके अधिकारों एवं कानून के लिए मूल्यों की एक लम्बी बहस आरम्भ किया है, जिस पर विमर्श की जरूरत है। पुलिस को सामान्यतया एक सरकारी अविधिक कार्य करने वाले के रूप् में चित्रित किया जाता है। सामान्य जनता में यह डर रहता है कि अगर पुलिस चाह ले तो किसी को भी फंसा सकती है। इस दृष्टिकोण से स्पष्ट है कि पुलिस का समाज में कोई सकारात्मक आधार नही है। इस दृष्टिकोण को दिशा तब मिलती दिखाई देती है जब पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ दिखाकर लोगो को मार दिया जाता है। बाटला हाउस की मुठभेड़ ने इस संशंय को और भी बढ़ाया है परन्तु मीडिया ने मानवाधिकार के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए इस तरह फर्जी मामलों को सामने लाकर जनमानस में यह विश्वास उत्पन्न करने में सहायता की है कि पुलिस के गलत कार्यों के विरूद्ध भी कार्यवाही की जा सकती है।
मानवाधिकार एक अवधारणा है जिसे पूर्णता मीडिया द्वारा प्रदान किया जा रहा है। आज सम्पूर्ण विश्व मीडिया के ही इर्द-गिर्द दिखायी देता है क्योंकि पारदर्शिता का सोपान ही मीडिया है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि मीडिया ने सूक्ष्म विकास के लिए कम कार्य किया है। उसने आतंकवाद, युद्ध, व्यापार, भूमण्डलीकरण, वैश्विक राजनीति आदि पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर रखा है। परन्तु इन्ही सबके संरक्षण से सामान्य व्यक्ति के अधिकारों को संरक्षित किया जा सकता है। मीडिया ने एक परासŸाा का आवरण तैयार किया है जिसकी आँखें सब देख रही है और जिनके प्रकाश में हर व्यक्ति मनुष्य बनने और होने के लिए अपने अधिकारों के लिए लड़ता दिखाई देने लगा है, यही आधुनिकता से उŸार आधुनिकता की तरफ बदलाव है। मीडिया, सामाजिक नियंत्रण का सबसे बड़ा हथियार है जिससे मानवाधिकार को पैना बनाया जा सकता है।
सन्दर्भ


1.     द हिन्दू, 23 नवम्बर 2010, मद्रास
2.     न्यूयार्क टाइम्स, 21 जुलाई 2010, न्यूयार्क
3.     दैनिक जागरण, 3 फरवरी 2011, लखनऊ
4.     आॅन इण्डिया ब्लाग
5.     रोजनामा एक्सप्रेस, 10 नवम्बर 2010, इस्लामाबाद, पाकिस्तान
6.     डेलीमेल, 17 जनवरी 2011, यू.के.


     डा0 आलोक चांटिया, सहायक आचार्य (मानवशास्त्र विभाग),
एस,जे,एन,पी,जी, कालेज, लखनऊ





 

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