Sunday 29 May 2011

दलित बनाम अ-दलित Dr Alok Chantia


एक रोते बच्चे को टाफी देकर चुप कराया जा सकता है परन्तु उससे न तो बच्चे की भूख मिटती है और न ही उसके विकास में कोई महत्वपूर्ण लाभ होता है। फिर भी मां- पिता को उसे टाफी देना एक कारगर उपाय लगता है लेकिन इससे उन्हें क्या लाभ होता है? बच्चा उनके कामों में रुकावट नहीं डालता और वह अपने कामों में बिना किसी रुकावट के लगे रहते हैं और दुनिया की दृष्टि में वे सदैव बच्चे के मां बाप ही जाने जाते हंै, जबकि उन्हें  टाफी के गुण-दोष और उसके प्रभाव की जरा सी जानकारी नहीं होती और वे जानना भी नहीं चाहते, उन्हंे तो सिर्फ यह पता है कि टाॅफी मीठी होती है और रोते बच्चे को चुप कराने का एक अविश्वसनीय विकल्प है। ऐसा ही प्रभाव है भारतीय समाज और आरक्षण का। पूना पैक्ट के प्रभाव से उपजे डा. अम्बेडकर एवं महात्मा गांधी के बीच हुए समझौते ने आरक्षित सीट का प्रावधान किया जो आज तक चला आ रहा है। इस देश में किसी भी काम की समय सीमा नहीं है जिसके कारण साठ वर्ष के बाद भी दलित वहीं खड़े हैं जहां वह आरम्भ से खड़े थे। जितने प्रतिशत दलित हर युग में अपनी प्रतिभा के कारण अपना स्थान समाज में बना लेते थे उतने ही प्रतिशत आज भी हंै। शबरी का अपमान हो या एकलव्य की शारीरिक यातना वह तब भी थी और आज भी है। शारीरिक श्रम करने वाला सदैव से ही शोषित रहा है जो आज भी जारी है। क्या प्रजातंत्र में दलित को कोई सुखद परिणाम मिला जबकि वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है कि पृथ्वी के समस्त मनुष्य जैविक रूप से समान हैं और उन सबको होमो-सैपियन्स कहा जाता है तो फिर यह विभेद क्यों पैदा हो रहा है। इसका उत्तर स्पष्ट है-संस्कृति। संस्कृति ने ही जैविक विभेद से ज्यादा बड़े विभेद  खड़े कर दिये। प्रजाति शब्द प्रकाश में आया जो मुख्यतः वातावरण से प्रभावित तथ्य है पर संस्कृति ने मनुष्य अन्तहीन श्रेणी में विभक्त हो गया और संस्कृति के सतत प्रभाव के कारण एक जैसे जीनी पदार्थ के स्वामी होने के बाद भी होमो सैपियन्स में कुछ श्रेष्ठता की भावना से जीने लगे और कुछ हीन भावना से ग्रसित हो गये और इसी हीन भावना की करीब 5000 वर्ष पुरानी श्रृखंला ने मानव को सिर्फ दो श्रेणी में बांट दिया दलित और अदलित। प्रजातंत्र में हीन भावना को समाप्त कर संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुरूप एक समानता को उत्पन्न करने के लिए शायद सरकार ने आरक्षण जैसे शुद्ध का बीजा रोपण कर दिया गया लेकिन दलित को अदालित के समान लाने में सरकार को कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं प्राप्त हुई और सरकार इस तथ्य को स्वयं आरक्षण की अवधि बढ़ा कर साबित कर देती है। दलित राजनीति डा. अम्बेडकर के ईदगिर्द सिमिट गयी पर दलित समाज ने कभी गम्भीरता पूर्वक यह विचार नहीं किया कि सरकार की नीति में स्वयं ऐसे तथ्य है जो समानता के भाव को नकारते है। इसका परिणाम दलित को नौकरी और शिक्षा में दिये जा रहे आरक्षण पर विचार करके जाना जा सकता है। दलित को नौकरी पाने के लिए आवश्यक योग्यता सदैव से अदलित से कम रखी जाती है। यही स्थ्तिि शिक्षा में प्रवेश पाने के लिए भी है। यदि अदलित को 45: अंको की न्यूनतम् आवश्यकता होती है तो दलित को सिर्फ 40ः  पर ही प्रवेश मिल जाता है। इसके अतिरिक्त विशेष कोटा के अन्र्तगत सीट न भरी ना  जाने की स्थ्तिि में दलित के कितने ही न्यूनतम् अंक क्यो न हो उसे प्रवेश या नौकरी मिल जायेगी पर अदलित को योग्यतम् की उत्तर जीविता के सिद्धान्त से होकर गुजरना पड़ता है। सह हो सकता है कि सरकार कह दे कि सदियो से शोषित होने एवं समानता के स्तर पर लाने के लिए के मन में आक्रोश जग रहा है कि योग्यता की श्रेणी में खड़े होकर भी वह शिक्षा, नौकरी से बाहर है और देश की लगभग आधी अदलित जनसंख्या में अगर यही आक्रोश है तो समरसता और समानता सिर्फ एक हलावा है जिस पर रोक अनुसूचित जाति/जनजाति उत्पीड़न अधिनियम -1989 के कारण ज्यादा है ना कि प्रेम की भावना के कारण। दलित समाज में विद्वानो की कमी नही है, उन्हे स्वयं यह विचार करना चाहिए कि अदलित समाज उन्हे सम्मान क्यो नहीं दे रहा है इसका उत्तर स्पष्ट है कि सरकार ने होमोसैयिन्स की जैविक क्षमता की अनदेखी की है। जब पृथ्वी का हर मनुष्य समान है उसकी बौद्धिक क्षमता समान है। तो सरकार क्यो विभेदीकरण कर रही है । सरकार की नीतियो से ऐसा प्रतीत होने लगा है कि दलित लोगो के पास अदलित से कम बुद्धि होती है, और इसीलिए उन्हे अंको के स्तर पर पर्याप्त छूट दी जाती है। जबकि वैज्ञानिकता इसको नकारती है। दलित भी अदलित की तरह बुद्धि वाले है और दलित समाज को सरकार  की इस नीति का विरोध करना चाहिए जो उन्हें बुद्धि के स्तर पर अदलित से नीचे रखता है। शायद इससे बड़ा विभेद क्या हो सकता है कि इस देश में एक दलित की बुद्धि अदलित के बराबर नहीं मानी जा रही है और इसलिए अदलित आज भी अपने को श्रेष्ट समझता है, इसी आधार पर उच्च शिक्षा और उच्च नौकरी पाने वाले दलितों को अयोग्यता के आधार पर सब कुछ प्राप्त करने वाला मानता है। जिसके कारण समरसता का लोप स्वतन्त्रता के बाद ज्यादा हुआ है। आरक्षण एक समयबद्ध प्रक्रिया है और उसे समय के साथ समाप्त हो जाना चाहिए था। पर ऐसा हुआ नहीं। जन्म के समय मां के पक्ष से दूध पीने वाला बच्चा भी एक समय बाद दूसरे भोजन पर आश्रित होकर अपना विकास सुनिश्चित करता है उसी प्रकार दलितों को स्वयं ही आरक्षण को यह लगे कि अपने विकास के नए विकल्प चुनने चाहिए ताकि अदालतों को यह लगे कि दलित का विकास सिर्फ आरक्षण से ही नहीं हो रहा है। दूसरे दलितों को इस बात के लिए राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाना चाहिए कि अदलितांे से उन्हें किसी भी स्तर पर बुद्धि से कम न आंका जाये और बुद्धि के स्तर पर समानता और समान योग्यता को आधार बनाया जाये ताकि अदलित में यह भावना न पनपे कि दलित बुद्धि के स्तर पर उनसे कम हैं।  यदि दलित इन तथ्यों पर विजय पा लेगें तो उन्हें समानता और समरसता स्वयं मिल जायेगी। आरक्षण से उपजे दलित और अदलित शब्द स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे।
लेखक - ‘मानवाधिकार संस्था‘ आखिल भारतीय अधिकार संगठन’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं जयनारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय में मानवशास्त्र विभाग में सहायक आचार्य हंै। डा0 आलोक चांटिया राजधानी लखनऊ से प्रकाशित होने वाले विभिन्न समाचार पत्रों में बतौर स्तम्भकार कार्य कर रहे हंै। आपको उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश-विदेश में मानवाधिकार, सूचना, शिक्षा, चिकित्सा के अधिकार, जैसे मूलभूत विषयों के विशेषज्ञ के रूप में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया जाता रहा है। भारतीय समाजिक संरचना और गीता एवं रामचरित मानस के तुलनात्मक अध्ययन पर आपकी शोधपरक पुस्तक ‘विकल्प का समाज’ काफी चर्चित रही है।
  सम्पर्क सूत्र-मो0  - 9415083663

2 comments:

  1. शारीरिक श्रम करने वाला सदैव से ही शोषित रहा है जो आज भी जारी है।

    शुक्रिया।

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  2. चान्तिया जी, आपके के विचार सही हैं पर मेरा नजरिया इस समस्या को देखने का अलग ही है. असल में दलित या अदलित शब्द मात्र एक प्रतीक है. सारे विश्व में दलित /दलित हैं, थे और रहेंगे. सारा खेल "पॉवर पोलिटिक्स" का है, मनुष्य ही नहीं प्रकृति के सारे जीव इसके शिकार हैं. गौर से देखें तो मनुष्य ही नहीं सभी जीवों में दलित अदलित है. अपनी शक्ति बढाने के लिए एक समूह दूसरे समूह की कीमत पर जब प्रयास करता है और सफल हो जाता है तो वही से दलित अदलित की शुरुवात होती है. जितने भी जीव इस दुनिया में हैं उनमे मनुष्य की बुद्धि संभवतः सर्वाधिक विकसित होने के कारण उसने पहले दूसरे जीवों को किनारे लगाने के तरीके विकसित किये और उनपर अधिकार जमाना शुरू किया. और जब इसमें काफी कुछ सफल हो गया तो आपस में ही अधिकारों या "शक्ति" तो प्राप्त करने की होड़ के परिणामस्वरूप दलित/अदलित की उत्पत्ति हुई. आवश्यकता इस बात की है लोग मानसिक संकीर्णता को छोड़ अपने "सेल्फ" को विस्तृत करें, उसका दायरा बढ़ाएं . दलित अदलित शब्द स्वतः समाप्त हो जायंगे.

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