Sunday, 9 June 2013

कैसी है ये जिन्दगी

हिमालय से निकली गंगा सी जिन्दगी ............
शहर से गुजरेगी मैली सी जिन्दगी ...........
कितने भी जतन खेलेंगे सब जिन्दगी ...........
खुद को पाक कर बनायेंगे कोठे सी जिन्दगी .........
हर छूने वालो में अपने को तलाशती जिन्दगी ....
जिन्दगी में खुद से दूर जाती जिन्दगी ...........
मिठास की तलाश में घर छोड़ आई जिन्दगी .........
खुद की लाश को बाचती अब जिन्दगी ............
थक हार के जिन बाहों में समायी जिन्दगी ........
खारी ही सही दागो संग समाती जिन्दगी ........
गंगा से गंगा सागर बनी क्या पाई ये जिन्दगी ............
खुद के मन से ना निकल पड़ना ये जिन्दगी .........
तुझसे अपने पापो को धोने देखो खड़ी हैं जिन्दगी .........................शुभ रात्रि

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