आज मजदूर दिवस है और यह अपने आप में कितनी आश्चर्य जनक बात है कि मानव सभ्यता की इतनी लम्बी यात्रा के बाद भी मानव की एक श्रेणी ऐसी है जिसे हम मजदूर कहते है वैसे तो ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के दसवे मंडल के अनुसार जो शारीरिक श्रम करने वाला होता है वही शूद्र कहलाता है तो उस के प्रकाश में आज शुद्रो की संख्या ही बढ़ी है पर ऐसा क्या है कि मानव जीवन की महत्ता बताने वाले हर धर्म अपने यह शूद्रो को बनाये रखना चाहते है ? क्या हम पाने सुख के लिए आज भी ऐसी मानव फ़ौज चाहते है जो उतने सुख में ना रहे जितने में हम रहते है ? जब मानव जीवन नश्वर है और बड़ी मुश्किल से मिलता है तो हम क्यों नही चाहते कि हर मनुष्य को इस बात का सुख और आनंद मिले कि उसे मानव जीवन मिला ? हम क्यों कहते है कि यह सब कर्मो का खेल है और इसी लिए मजदूर को नरक सा जीवन मिला है और उसे यह सब भोगना ही पड़ेगा और अगर यह दर्शन सत्य है तो फिर हम्मे से कोई क्यों अपने दर्द के लिए डॉक्टर , मंदिर , साधू , फकीर के पास दौड़ता है यानि वह मानता है कि कुछ भी प्रयास से बदला जा सकता है तो क्या मानव झूट का सहारा लेकर अपने दायित्वों से बचना चाहता है ? या फिर उसे गुलाम चाहिए और मानवाधिकार के आईने में यह अब संभव नही है तो अभावो में रहने वाले ऐसे मनुष्यों को हमने जिन्दा रखा जिनको हम अपने सुख के लिए प्रयोग करते है और हर देश का कानून , संविधान और खुद लोग ( समृद्ध ) यह कह कर बच निकलते है कि वे ( मजदूर ) अपनी मर्जी से काम कर रहे है कोई उन पर जबरदस्ती नही कर रहा है , इस लिए कोई कार्यवाही बनती ही नही है | एक सामान्य मनुष्य गर्मी में इतना पागल हो उठता है कि वह पैदल चलने कि सोच ही नही पाता और एक उसी के समान मनुष्य उतनी ही गर्मी में आपको रिक्शा में लेकर ढोता है और पसीने से लत पथ उस मनुष्य से हम अपने गंतव्य पर पहुच कर यह भी नही पूछते कि भैया क्या प्यास तो नही लगी है क्योकि आपके लिए तो यह उसके कर्म है जो वह भोग रहा है ? कभी सोचा कि अगर सब भगवन को ही देना था तो उसने आरम्भ ( ६० लाख साल पहले जब पहली बार मनुष्य के साक्ष्य पृथ्वी पर मिले ) के मनुष्य को नंगा , भूखा , बिना घर के क्यों रखा ? क्या इस लिए कि उन सब के कर्म में यह लिखा था और आज से १०००० ( दस हजार साल ) पहले तक वह ऐसे ही रहा या फिर वह कर्म का पुजारी आपके लिए संस्कृति की वह दीवार बना रहा था जिस पर आज आप हम और ऐश कर रहे है | उन्ही मनुष्यों के अवशेष है यह मजदूर कहे जाने वाले मनुष्य जिनका सम्मान हम सबको इस लिए करना चाहिए क्योकि मानव संस्कृति के देवता है ये सब जो पाने को गला कर खेतो में आनाज उगाते है | तपती धूप में आपका घर बनाते है | और इसी लिए मंदिर नही मस्जिद नही गुरु द्वारा नही गिरजा घर नही मंदिर के देवताओ को अपने इर्द गिर्द खोजिये और उन्हें एक गिलास ठंडा पानी ही पिया दीजिये क्योकि भगवन तो प्रेम का भूखा है और इतना पाकर भी तृप्त हो जायेगा और समझ लेगा की अभी पृथ्वी पर उसके अवशेष में मानव शेष है | मजदूर भाई बहनों का शत शत अभिनन्दन , आज अखिल भारतीय अधिकार संगठन ने राज्य सभा में एक याचिका प्रस्तुत करके मजदूरो के बेहतर जीवन के लिए वकालत की है जो आने वाले समय में उनके लिए मील का पत्थर साबित होगी ....हे पृथ्वी के श्रम देवी देवता मेरा प्रणाम स्वीकार करो ....डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
Monday, 30 April 2012
mera jivan hta hai
रात जैसे जैसे गहराती गई ,
तारो सी जिन्दगी आती गई ,
सुबह तक सूरज सा चमका ,
सांस अँधेरे में समाती गई |,
पूरी रात जिसकी बाहों में रहा ,
वही समय अब न जाने कहाँ ,
ढूंढता भी रहा फिर पूरब में ,
वो उम्र का लम्हा फिर वहां|
मौत की बात करने से डरे ,
फिर भी एक दिन हम मरे ,
सच से भागने की ये आदत ,
इस झूठ का हम क्या करें |
रिश्तो के बाज़ार में अकेला ,
फिर भी उसी का हर मेला ,
कोई क्यों बढ़ कर मिला ,
कोई क्यों भावना से खेला |
जिन्दा रहने पर एक भी नही ,
मरने पर चार कंधे का सहारा ,
कोई भी न बैठा मेरे साथ कभी ,
पर आज था सारा जहाँ हमारा |
एक बूंद में छिपी नदी की कहानी ,
एक आंसू में थी बूंद की जवानी ,
कितना बहूँ की समंदर मिल जाये ,
रास्ते की कसक न होती सुहानी |
आलोक को पाकर चाँद भी चमका ,
तारो का भी कुछ संसार था दमका ,
क्यों फिर भी रहा सफ़र अँधेरे में ,
सपनो में जीकर दिल क्यों छमका |
रेत सा जीवन मुट्ठी में बंद है ,
जीने के चार दिन भी चंद है ,
हस लो तुम जितना भी चाहो ,
रोने का अपना अलग ही द्वन्द है |
तारो सी जिन्दगी आती गई ,
सुबह तक सूरज सा चमका ,
सांस अँधेरे में समाती गई |,
पूरी रात जिसकी बाहों में रहा ,
वही समय अब न जाने कहाँ ,
ढूंढता भी रहा फिर पूरब में ,
वो उम्र का लम्हा फिर वहां|
मौत की बात करने से डरे ,
फिर भी एक दिन हम मरे ,
सच से भागने की ये आदत ,
इस झूठ का हम क्या करें |
रिश्तो के बाज़ार में अकेला ,
फिर भी उसी का हर मेला ,
कोई क्यों बढ़ कर मिला ,
कोई क्यों भावना से खेला |
जिन्दा रहने पर एक भी नही ,
मरने पर चार कंधे का सहारा ,
कोई भी न बैठा मेरे साथ कभी ,
पर आज था सारा जहाँ हमारा |
एक बूंद में छिपी नदी की कहानी ,
एक आंसू में थी बूंद की जवानी ,
कितना बहूँ की समंदर मिल जाये ,
रास्ते की कसक न होती सुहानी |
आलोक को पाकर चाँद भी चमका ,
तारो का भी कुछ संसार था दमका ,
क्यों फिर भी रहा सफ़र अँधेरे में ,
सपनो में जीकर दिल क्यों छमका |
रेत सा जीवन मुट्ठी में बंद है ,
जीने के चार दिन भी चंद है ,
हस लो तुम जितना भी चाहो ,
रोने का अपना अलग ही द्वन्द है |
RIGHT TO MEDIA
सत्ता ध्र्सराष्ट्र की तरह अंधी होती है और वह सदैव इस प्रयास में रहती है कि उसके हाथ में सत्ता बनी रहे भले ही वह हर अनैतिक कार्य करे पर ऐसे समय में मीडिया कि भूमिका उस संजय कि तरह है जो कुरुक्षेत्र की हर घटना का सही वर्णन करके सच का साथ दे और सत्ता पर उन लोगो को बैठने का मौका दे जो जनता के लिए जीना चाहते है| आज के दौर में जब जनता मत दान जैसे सबसे महत्वपूर्ण और प्रजातंत्र की रीढ़ का मतलब नही समझ रही है तो उसको क्या मतलब कि देश में कौन सा ननगा नाच नेता कर रहे है और फिर सच की खोज करने वालो की जिंदगी यह कितने दिन सुरक्षित है यह इमानदार लोगो की हत्या और शोषण से स्पष्ट है | शेषण ने इस देश को सुधरने का ही तो प्रयास किया पर एक भी नेता ऐसा नही मिला ज उनको राष्ट्रपति बनाया जाने पर सहमति जताते और इसी से राजनितिक डालो के चरित्र और उनकी असली मंशा सबके सामने नंगी खड़ी है | ऐसे में मीडिया ही एक ऐसा साधन साधन बचता है जिसके सहारे देश की जनता को सच मालूम होता है और देश के नेताओ को भी यह खौफ रहता है की कही मीडिया को न पता चल जाये अगर आज मीडिया न होती तो क्या बंगारू लक्षमण जेल के पीछे जा पाते ? अरुशी कांड आज इस लिए जिन्दा है क्योकि मीडिया ने उसे उठाया | मनु सिंघवी जैसे भोले दिखने वाले नेता का असली चेहरा हम क्यों जन पाए क्यों कि मीडिया ने उसको सामने लेन में मदद की| नेता और प्रशासन में पतन का परिणाम है कि जब भी किसी माध्यम से जनता के जागरूक होने का डर नेताओ में पैदा होता है तुरंत इन्हें संसोधन की जरूरत समझ में आने लगती है | चुनाव आयोग ने इन पर शिकंजा कसा तो इन्हों ने उसको बहु सदसीय बना दिया | जन सुचना अधिकार अधिनियम से इनकी पोल खुलने लगी तो उसके लिए संसोधन की बात करने लगे | इन्हें जनता का खर्च ३२ रूपए का दिखाई देता है और इसी लिए महंगाई बढ़ाते चले जा रहे है अपर अपने भत्ते काफी कम दिखाई देते है और बिना किसी विरोध के उसको संसोधन करते है | क्या जनता और अपने स्तर को नेता एक जैसा समझ पाए है | नही इसी लिए जब ये जनता के सामने नंगे होते दिखाई देते है तो कपडा पहने या लोग कानून बना कर अपने चरित्र को ढकने का प्रयास करते है | इनके चरित्र को उसी से समझ लिया जाना चाहिए जब अपने लिए इन्हें अपराध सिद्ध न हो जाने तक अपने पार्टी के उम्मीदवार शरीफ लगते है और ये उसके लिए कोई कठोर कानून नही बना प् रहे है क्योकि पैसा और बहुबल पर जीते जाने वाले चुनाव का दौर ख़त्म हो जायेगा और जनता अपने मन मंथन से शरीफ लोगो को चुनने लगेगी तब सुख राम , शिबू शोरेन , जय ललिता , लालू प्रसाद आदि का क्या होगा पर एक आम आदमी के लिए इनको याद है अपराधी करण नही होना चाहिए और भारत का चाहे प्रवेश का मामला हो या फिर कही नौकरी का मामला , हर जगह यह कालम बना रहता है कि आप पर कोई अपराधिक मुकदमा तो लंबित नही है या आप सजा पा चुके है या कभी कोई दंड मिला हो , निष्काषित हुए हो | क्या यह नेताओ के लिए दोहरा चरित्र का उदाहरन नही है जो अपने लिए हमेशा वही कानून बनाते है जिससे उनका फायेदा होता रहे | ऐसे में क्या कुछ कहने की जरूरत रह जाती है कि इनको सामाजिक मीडिया से इतना डर क्यों सताने लगा है ??????? देश में कितने नेताओ की लड़की का अपहरण होता है ??????? कितनो के साथ बलात्कार होता है ? कितने के घर डाका पड़ता है ??? कितने के घर नही है ?? कितने गरीब है ??? कितने भूख का मतलब जानते है ???? क्या इस से मतलब साफ़ नही कि देश से डाकू क्यों खत्म दिखाई देते है क्योकि उनके बस पद बदल गए है और इसी लिए ये बाहुबली मीडिया पर नकेल डाल प्रजातंत्र में तानाशाही का प्रयोग करते और हम एक नपुंसक राष्ट्र के लिए जीने वाले सिर्फ बीज बन कर रह जाते है क्योकि विरोध करने की ताकत तो ये नेता कब कि छीन कर हमें सिर्फ खेतो में काम करने वाला बैल बना चुके है | अब जागने की जरुरुत है और मीडिया को बचने के लिए आवाज उठाने की जरूरत है ...डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
Sunday, 29 April 2012
tum kah do to
तुम कह दो तो एक कविता तुम पर लिख दूँ ,
तुम कह दो तो उसमे मन की बात कह दूँ ,
न जाने कितनी तपती रेत गुजरी पैरो तले,
तुम कह दो तो एक बूंद रहो पानी पर रख दूँ ,
आँखे न बंद करो इतनी बेबसी अब ऐसे आलोक ,
तुम कहो तो सपनो का रंग उनमे भी भर दूँ ,
जब आये ही थे खाली हाथ तो इतना दर्द क्यों ,
तुम कहो तो मुट्ठी में अँधेरा ही बंद कर दूँ ,
जब मिले थे इस दुनिया से क्या याद है तुमको ,
तुम हो तो यादो में नन्हा सा एक झरोखा कर दूँ ,
गुमनाम कौन न हुआ यहा चार कंधो पर चल कर ,
तुम कहो तो आज बस आंसुओ का बसेरा कर दूँ ,
देखने कहो बस एक बार जी भर कर मुझे जिन्दगी ,
तुम कहो तो हर सांस में आलोक से सबेरा कर दूँ
तुम कह दो तो उसमे मन की बात कह दूँ ,
न जाने कितनी तपती रेत गुजरी पैरो तले,
तुम कह दो तो एक बूंद रहो पानी पर रख दूँ ,
आँखे न बंद करो इतनी बेबसी अब ऐसे आलोक ,
तुम कहो तो सपनो का रंग उनमे भी भर दूँ ,
जब आये ही थे खाली हाथ तो इतना दर्द क्यों ,
तुम कहो तो मुट्ठी में अँधेरा ही बंद कर दूँ ,
जब मिले थे इस दुनिया से क्या याद है तुमको ,
तुम हो तो यादो में नन्हा सा एक झरोखा कर दूँ ,
गुमनाम कौन न हुआ यहा चार कंधो पर चल कर ,
तुम कहो तो आज बस आंसुओ का बसेरा कर दूँ ,
देखने कहो बस एक बार जी भर कर मुझे जिन्दगी ,
तुम कहो तो हर सांस में आलोक से सबेरा कर दूँ
saatan dharm
सनातन धर्म और मानव कल्याण
डॉ आलोक चान्टिया , अध्यक्ष , अखिल भारतीय अधिकार संगठन , लखनऊ .
सनातन शब्द से ही यह आभास सभी को मिल जाता है कि एक ऐसे धर्म की चर्चा का प्रयास जिसके उद्भव के बारे में किसी को कोई जानकारी नही है वैसे काफी लोग हिन्दू शब्द को सनातन धर्म से जोड़ कर देखते है और अक्सर कहते मिल जाते है कि हिन्दू धर्म तो सनातन धर्म है जबकि सबसे प्रमाणिक वेड ऋग्वेद में कही भी भी हिन्दू शब्द का प्रयोग हुआ ही नही है | हमारे देश में जनसँख्या बढ़ने का सबसे बड़ा दुष्परिणाम जो हुआ वो है अपने धर्म की जड़ो से दूर हो जाना | यह प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में किसी भी सत्ता के लिए कहना आसान है कि उसके देश में कोई भूखा नही मर रहा है पर भूख को मिटने के लिए दिन रात मर रहा है , इस बात से शायद ही कोई इंकार कर सकता है और रात दिन आदमी को आने वाले समय की चिंता रहती है कि आने वाला कल कैसा होगा और इसी चिंता में उसके पास इतना समय ही नही रहा कि वह कभी अपने धर्म कि जड़ो को महसूस करे और यही कारण है कि आम आदमी यह भी जनता कि सनातन और हिन्दू में कोई फर्क है भी या नही ??????/ जैसा कि शोध से प्रमाणित है फारस कि तरफ से आने वाले आक्रमण करियो ने स को ह खा और यही कारण है कि सिन्धु के किनारे रहने वाले हिन्दू कहलाने लगे और भारत की जगह हिन्दुओ के रहने का स्थान हिंदुस्तान कहलाने लगा और आज यह शब्द हमारे इवान में इतना घुल मिल गया है कि हम हिन्दू नाम पर कट मिटने को तैयार रहते है पर सनातन धर्म तो वह है जिसका आदि अंत ही नही है और यही कारण है कि मनुष्य को भी सनातन खा जाना चाहिए क्योकि न तो विश्व में और न ही भारत में आज तक इस तथ्य पर अंतिम निर्णय हो पाया है कि मानव का उद्भव कब हुआ कैसे हुआ तो उस अर्थ में हम सबको अटकलों से ज्यादा यह मान लेना चाहिए कि मानव खुद में सनातन है और यही नही गाँधी जी ने एक बार कहा था कि विश्व में चाहे जितने धर्म हो पर इस बात से कोई धर्म इनकार नही कर सकता है कि किसी ने भागवान को नही देखा है और यही वह बिंदु है जो हम सबको प्रेम भाव से रहने और एक दूसरे के साथ इर्ष्या का करने के लिए प्रेरित करता है | सनातन धर्म भी सर्व धर्म समभाव की वकालत करता है क्योकि धर्म के आनेक होने से सिर्फ भागवान को जानने का तरीका कई हो गया न कि भागवान भी कई तरीके का हो गया | और यह भी सत्य है कि मानव इस दुनिया में किस तरह फैला , इस पर भी मतभेद है लेकिन विभिन्न तरह के पर्यावरण के कारण एक ही तरह के अनुवांशिक पदार्थो का वाहक होने के बाद भी मानव की विभिन्न श्रेणिया हो गयी जिसे हम प्रजाति के नाम से जानते है पर सनातन धर्म इस विज्ञानं को काफी पहले ही समझ चूका था और यही कारण है कि उसने वसुधैव कुतुम्बुकम यानि पूरी पृथ्वी ही परिवार की तरह है और इसका आज के सन्दर्भ में यह भी अर्थ स्पष्ट है कि सनातन धाम ने इस शिक्षा को पल्लवित किया कि जो भी तुम्हरे पास है उस पर पुरे विश्व या विश्व के अन्य भागो में रहने वालो का भी अधिकार है पर इस भाव में आर्थिकी का कोई पुट नही था बल्कि आतिथ्य का भाव था और एक दूसरे को भी इन्हें का अवसर प्रदान करने का भाव था लेकिन आज यही भाव भूमंडली करण के रूप में फिर हमारे सामने विद्यमान है पर उसमे आर्थिकी का भाव ज्यादा है न कि वसुधैव कुत्तुम्बकम का और इसी अर्थ में सनातन दह्र्म लोक कल्याणकारी बन जाता है और मानव में भागवान होने की संकल्पना साकार हो जाती है जिसके कारण किसी के भूखा सोने की कल्पना ही एक अपराध बोध से भर देती है आज भी व्रत , ददन देना उसी के अवशेष के रूप में हमारे बीच में है | सनातन धर्म में किसी के इए द्वेष का कोई स्थान ही नही था और यही कारण है कि राम के द्वारा शबरी के झूटे बेर खाने का प्रकरण ह या फिर कृष्ण द्वारा विदुर(दासी पुत्र ) के घर खाना खाने का प्रश्न हो , हर जगह भागवान ने यही संदेश देने का प्रयास किया है कि जाति धर्म , धन से आदमी को छोटा बड़ा नही आँका जाना चाहिए बल्कि उसके अंदर मानव और मानवता के भाव को सम्मान देना चाहिए पर सनातन धर्म की यह मूल भावना आज के भारत में ही विलोपन की तरफ है जिसके कारण भारत में भारत वासी तो बढ़ गए पर भारतीयों की निरंतर कमी आई है जो कल्याणकारी भावना के विपरीत है और उन पर पिता परमात्मा के विपरीत हा जिन्होंने अवतार लेकर समानता और सम भाव का सन्देश दिया था | आज का मानव यह भूल गया है की मानव धर्म क्या था | एक बार शंकराचार्य से किसी ने उछ की मानव को पहचानने का तरीका क्या है तो उन्होंने कहा कि जिस घर में पशु पक्षी पाले हो , पेड़ पौधों के साथ तुलसी लगी हो बह्ग्वान का नाम लिया जा रहा हो तो समझ लेना कि मानव यही है पर सनातन धर्म के विपरीत जिस तरह से प्रयावरण को हानि पहुचाई जा रही है , न जाने कितनी प्रजातिया पेड़ पौधों , जीव जन्तुओ की पृथ्वी से समाप्त हो गई है और मानव में गर्रेबी , भुखमरी व्याप्त है , मानव घर विहीन है | सनातन धर्म के विरुद्ध यह मानव कल्याण नह है | सनातन धर्म , दूसरे की जमीन , धन को मिटटी की तरह देखने की बात करता है और पडोसी उसके धन सम्पदा की सुरक्षा करते है आर आज हडपने की नियत ज्यादा हो गई है | यज्ञा वल्क्य ने अपनी स्मृति में लिखा है कि परायी औरत मिटटी के ढेले की तरह है और उसकी तरफ नजर उठा कर भी नही देखना चाहिए पर भारत में रोज २०० लडकियों का अपहरण हो रहा है , बलात्कार , वैश्यावृति हो रही है जो स्पष्ट करता है हम महिला को मांस का टुकड़ा और अपने आनंद का साधन ज्यादा समझने लगे है जबकि सनातन धर्म कहता है कि झा नारी की जा होती है वही पर देवता निवास करते है पर अगर औरत घरो में जलाई जा रही है तो यह भी स्पष्ट है कि मानव ने भागवान के अस्तित्व को नाकारा है और उसका परिणाम सामने है , जिस तरह से मानव रोग ग्रसित हो रहा है , मानसिक रोगी हो रहा है , उस से यही लगता है कि सनातन धर्म में भागवान के पर जाने के लिए जो रस्ते सुझ्ये गए थे उसमे सबसे बड़ा था कि हर प्राणी में , कण कण में भागवान है और हमें सभी का आदर करना चाहिए पर आज हमने मानव और प्राणियों को भागवान से अलग कर दिया है , हमारे लिए भागवान मंदिर में बैठा पत्थर का है और वह सिर्ग हमारे आरती पर भोग लगाने दान करने से प्रसन्न हो जाता है जबकि ऐसा नही है | सनातन धर्म को सही अर्थो में आज समझने की जरूरत है क्योकि जिस तरह से जनसँख्या बढ़ रही है और संसाधनों का आभावहो रहा है उसमे भागवान पर से आस्था का कम होना सिर्फ रोगों की ओर हमें ले जा रहा है और जिओ और जीने दो की अवधारणा को अपनाने से सनातन धर्म हमें मानव कल्याण के ज्यादा नजदीक ले जाता है और यही वह स्त्थिति है जब आपको परम पिता को अनभव करने का मौका मिलता है जो हम मानव जीवन पाकर भी गवां देते है | सनातन धर्म की लोक कल्याणकारी अवधारणा से ही आज की दुनिया का कल्याण है आर सके लिए आपको रुकना होगा और मानसिक चिंतन में मानव के लिए सोचना होगा |
डॉ आलोक चान्टिया , अध्यक्ष , अखिल भारतीय अधिकार संगठन , लखनऊ .
सनातन शब्द से ही यह आभास सभी को मिल जाता है कि एक ऐसे धर्म की चर्चा का प्रयास जिसके उद्भव के बारे में किसी को कोई जानकारी नही है वैसे काफी लोग हिन्दू शब्द को सनातन धर्म से जोड़ कर देखते है और अक्सर कहते मिल जाते है कि हिन्दू धर्म तो सनातन धर्म है जबकि सबसे प्रमाणिक वेड ऋग्वेद में कही भी भी हिन्दू शब्द का प्रयोग हुआ ही नही है | हमारे देश में जनसँख्या बढ़ने का सबसे बड़ा दुष्परिणाम जो हुआ वो है अपने धर्म की जड़ो से दूर हो जाना | यह प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में किसी भी सत्ता के लिए कहना आसान है कि उसके देश में कोई भूखा नही मर रहा है पर भूख को मिटने के लिए दिन रात मर रहा है , इस बात से शायद ही कोई इंकार कर सकता है और रात दिन आदमी को आने वाले समय की चिंता रहती है कि आने वाला कल कैसा होगा और इसी चिंता में उसके पास इतना समय ही नही रहा कि वह कभी अपने धर्म कि जड़ो को महसूस करे और यही कारण है कि आम आदमी यह भी जनता कि सनातन और हिन्दू में कोई फर्क है भी या नही ??????/ जैसा कि शोध से प्रमाणित है फारस कि तरफ से आने वाले आक्रमण करियो ने स को ह खा और यही कारण है कि सिन्धु के किनारे रहने वाले हिन्दू कहलाने लगे और भारत की जगह हिन्दुओ के रहने का स्थान हिंदुस्तान कहलाने लगा और आज यह शब्द हमारे इवान में इतना घुल मिल गया है कि हम हिन्दू नाम पर कट मिटने को तैयार रहते है पर सनातन धर्म तो वह है जिसका आदि अंत ही नही है और यही कारण है कि मनुष्य को भी सनातन खा जाना चाहिए क्योकि न तो विश्व में और न ही भारत में आज तक इस तथ्य पर अंतिम निर्णय हो पाया है कि मानव का उद्भव कब हुआ कैसे हुआ तो उस अर्थ में हम सबको अटकलों से ज्यादा यह मान लेना चाहिए कि मानव खुद में सनातन है और यही नही गाँधी जी ने एक बार कहा था कि विश्व में चाहे जितने धर्म हो पर इस बात से कोई धर्म इनकार नही कर सकता है कि किसी ने भागवान को नही देखा है और यही वह बिंदु है जो हम सबको प्रेम भाव से रहने और एक दूसरे के साथ इर्ष्या का करने के लिए प्रेरित करता है | सनातन धर्म भी सर्व धर्म समभाव की वकालत करता है क्योकि धर्म के आनेक होने से सिर्फ भागवान को जानने का तरीका कई हो गया न कि भागवान भी कई तरीके का हो गया | और यह भी सत्य है कि मानव इस दुनिया में किस तरह फैला , इस पर भी मतभेद है लेकिन विभिन्न तरह के पर्यावरण के कारण एक ही तरह के अनुवांशिक पदार्थो का वाहक होने के बाद भी मानव की विभिन्न श्रेणिया हो गयी जिसे हम प्रजाति के नाम से जानते है पर सनातन धर्म इस विज्ञानं को काफी पहले ही समझ चूका था और यही कारण है कि उसने वसुधैव कुतुम्बुकम यानि पूरी पृथ्वी ही परिवार की तरह है और इसका आज के सन्दर्भ में यह भी अर्थ स्पष्ट है कि सनातन धाम ने इस शिक्षा को पल्लवित किया कि जो भी तुम्हरे पास है उस पर पुरे विश्व या विश्व के अन्य भागो में रहने वालो का भी अधिकार है पर इस भाव में आर्थिकी का कोई पुट नही था बल्कि आतिथ्य का भाव था और एक दूसरे को भी इन्हें का अवसर प्रदान करने का भाव था लेकिन आज यही भाव भूमंडली करण के रूप में फिर हमारे सामने विद्यमान है पर उसमे आर्थिकी का भाव ज्यादा है न कि वसुधैव कुत्तुम्बकम का और इसी अर्थ में सनातन दह्र्म लोक कल्याणकारी बन जाता है और मानव में भागवान होने की संकल्पना साकार हो जाती है जिसके कारण किसी के भूखा सोने की कल्पना ही एक अपराध बोध से भर देती है आज भी व्रत , ददन देना उसी के अवशेष के रूप में हमारे बीच में है | सनातन धर्म में किसी के इए द्वेष का कोई स्थान ही नही था और यही कारण है कि राम के द्वारा शबरी के झूटे बेर खाने का प्रकरण ह या फिर कृष्ण द्वारा विदुर(दासी पुत्र ) के घर खाना खाने का प्रश्न हो , हर जगह भागवान ने यही संदेश देने का प्रयास किया है कि जाति धर्म , धन से आदमी को छोटा बड़ा नही आँका जाना चाहिए बल्कि उसके अंदर मानव और मानवता के भाव को सम्मान देना चाहिए पर सनातन धर्म की यह मूल भावना आज के भारत में ही विलोपन की तरफ है जिसके कारण भारत में भारत वासी तो बढ़ गए पर भारतीयों की निरंतर कमी आई है जो कल्याणकारी भावना के विपरीत है और उन पर पिता परमात्मा के विपरीत हा जिन्होंने अवतार लेकर समानता और सम भाव का सन्देश दिया था | आज का मानव यह भूल गया है की मानव धर्म क्या था | एक बार शंकराचार्य से किसी ने उछ की मानव को पहचानने का तरीका क्या है तो उन्होंने कहा कि जिस घर में पशु पक्षी पाले हो , पेड़ पौधों के साथ तुलसी लगी हो बह्ग्वान का नाम लिया जा रहा हो तो समझ लेना कि मानव यही है पर सनातन धर्म के विपरीत जिस तरह से प्रयावरण को हानि पहुचाई जा रही है , न जाने कितनी प्रजातिया पेड़ पौधों , जीव जन्तुओ की पृथ्वी से समाप्त हो गई है और मानव में गर्रेबी , भुखमरी व्याप्त है , मानव घर विहीन है | सनातन धर्म के विरुद्ध यह मानव कल्याण नह है | सनातन धर्म , दूसरे की जमीन , धन को मिटटी की तरह देखने की बात करता है और पडोसी उसके धन सम्पदा की सुरक्षा करते है आर आज हडपने की नियत ज्यादा हो गई है | यज्ञा वल्क्य ने अपनी स्मृति में लिखा है कि परायी औरत मिटटी के ढेले की तरह है और उसकी तरफ नजर उठा कर भी नही देखना चाहिए पर भारत में रोज २०० लडकियों का अपहरण हो रहा है , बलात्कार , वैश्यावृति हो रही है जो स्पष्ट करता है हम महिला को मांस का टुकड़ा और अपने आनंद का साधन ज्यादा समझने लगे है जबकि सनातन धर्म कहता है कि झा नारी की जा होती है वही पर देवता निवास करते है पर अगर औरत घरो में जलाई जा रही है तो यह भी स्पष्ट है कि मानव ने भागवान के अस्तित्व को नाकारा है और उसका परिणाम सामने है , जिस तरह से मानव रोग ग्रसित हो रहा है , मानसिक रोगी हो रहा है , उस से यही लगता है कि सनातन धर्म में भागवान के पर जाने के लिए जो रस्ते सुझ्ये गए थे उसमे सबसे बड़ा था कि हर प्राणी में , कण कण में भागवान है और हमें सभी का आदर करना चाहिए पर आज हमने मानव और प्राणियों को भागवान से अलग कर दिया है , हमारे लिए भागवान मंदिर में बैठा पत्थर का है और वह सिर्ग हमारे आरती पर भोग लगाने दान करने से प्रसन्न हो जाता है जबकि ऐसा नही है | सनातन धर्म को सही अर्थो में आज समझने की जरूरत है क्योकि जिस तरह से जनसँख्या बढ़ रही है और संसाधनों का आभावहो रहा है उसमे भागवान पर से आस्था का कम होना सिर्फ रोगों की ओर हमें ले जा रहा है और जिओ और जीने दो की अवधारणा को अपनाने से सनातन धर्म हमें मानव कल्याण के ज्यादा नजदीक ले जाता है और यही वह स्त्थिति है जब आपको परम पिता को अनभव करने का मौका मिलता है जो हम मानव जीवन पाकर भी गवां देते है | सनातन धर्म की लोक कल्याणकारी अवधारणा से ही आज की दुनिया का कल्याण है आर सके लिए आपको रुकना होगा और मानसिक चिंतन में मानव के लिए सोचना होगा |
ight to language
Of the 7000 languages now spoken across the world, only about 600 are expected to survive until the end of the century.
The road runs out seven kilometres before the last village in India.
Nestled at the edge of the Torsa River delta on the border with Bhutan, and against the foothills of the mountain range that will become the mighty Himalayas, Totopara is happily isolated from much of the turbulence of the countries around it.
The rains of the monsoon season regularly cut the village off by road, and the electricity supply is not yet so reliable as to seriously disturb the quiet.
But there is a battle going on in Totopara, a quiet war being waged to retain a sense of community, of identity and of culture, against the forces of economy and the pull of conformity that grips so many of the world’s small cultures. Totopara’s is a fight to keep a language alive.
The village takes its name as the home of the Toto people. Ethnically distinct from their neighbours, they have lived in the area beyond all memory and storytelling. “We have been here for hundreds of years... this is our homeland,” village elder Ashok Toto tells The Age.
They remain a small group, and now find themselves a minority in their own community, numbering about 1400 of the 5000 or so who live in the village. Farmers mainly, they Toto grow rice and betel nut or sell their labour on nearby plantations, where they are known as quiet, steady workers.
The Toto speak their own language, a tongue that shares no close derivation with any of those spoken around — Nepali, Bengali, Hindi or Bhutanese.
But the Toto people fear their language, and with it, their culture, history and way of life, is being lost, consumed by an education system that obliges their children to speak Bengali, and an economy that pushes them towards Hindi and English. Ashok is confident the next generation will grow up comfortable with the tongue of their ancestors.
“Now, out of 10, only two children would have problems in speaking their own language,” Ashok says. “Otherwise this new generation is well-versed in Toto. But for future, it’s risky . . . there will be problem, huge problem . . . because we face difficulties following the way of life of our ancestors. “There is a chance our language and culture will be finished.”
India is one of the most linguistically diverse countries on earth. Just how diverse is a matter of contention, but it is believed India today speaks between 850 and 900 distinct languages, though only 122 are recognised in the census and just 22 are scheduled as official languages in the constitution. Of mother tongues — the vernacular first learned at home — it was estimated in 1961 that India was home to more than 1600.
The first ever linguistic survey of India was completed in 1928, undertaken over 30 years by an Irish linguist and opium trader from the East India Company named Sir George Abraham Grierson, who concluded the country spoke 179 languages.
Acclaimed as triumph at the time, the 8000-page survey was flawed: many of Grierson’s field workers were untrained, he never visited large parts of southern India, and he completely ignored the country’s numerous nomadic tribes.
But as well as being one of the world’s most linguistically diverse nations, India is also losing languages faster than any other place on earth. UNESCO currently lists 197 Indian languages as endangered or vulnerable.
Toto is listed as critically endangered, the final stage before extinction, with perhaps 1000 speakers.
In an effort to counter India’s language loss, or at least record these vernaculars before they disappear, linguist
Ganesh Devy is overseeing the largest ever survey of Indian tongues, the People’s Linguistic Survey of India. Already two years in, the PLSI will not be completed until 2014. By then it will be 21 massive volumes, listing language names, their geography and history, key vocabulary, and examples of songs, poetry and storytelling.
The distinctions between languages, dialects and patois, so intermingled in multicultural India, are carefully defined for the PLSI. The survey considers a tongue a language when 70 per cent of its basic vocabulary – simple verbs, as well as words to describe space, time, kinship, colours, geography, anatomy, animals and plants — are original.
Dr Devy says India is likely behind only Papua New Guinea in its number of languages, ahead of Indonesia and polyglot African countries like Nigeria and Cameroon.
“India is one of those countries that has managed to keep their linguistic diversity alive until this date. I have a rather clear estimate now of about 850 languages.” But he says India’s minority languages, particularly those linked to a shrinking ethnic population, are facing increasing pressure.
“Over the last 50 years, India has lost about 150 languages. That is three languages per year, one language every four months that is lost forever. That is worrying, because all these languages hold wisdom.
“Every language is a unique world view. We need as many of these views as possible to see our world in its totality. Every language we lose, our ability to perceive the world is reduced.”
It is a paradox, Dr Devy says, that in this modern age of mass, widespread and rapid communication, the most fundamental form of human communication – spoken language – is being lost faster than ever before. Of the 7000 languages now spoken on earth, only about 600 are expected to survive until the end of the century.
In 2010, an 85-year-old Andaman Island woman called Boa Senior died. She was the last speaker of the Bo language, and it died with her. In her final years, her language was recorded by linguists, but it lives now only as a relic.
The Ayapaneco language of Mexico has only two known fluent speakers remaining alive. They live 500 metres from each other in the southern village of Ayapa, but they don’t like each other, and refuse to talk. The loss of a language is rarely so clear-cut. It is usually a slow, almost imperceptible process.
At first, domains of a language become unused. If a minority language-speaking Indian farmer needs to speak Hindi to communicate at the market or with neighbouring landholders, the words describing agriculture in his native tongue become redundant, and he moves to the larger language for the sake of his livelihood. As more and more ‘‘domains’’ are closed off, a language is slowly throttled.
It happens to larger languages too. Dr Devy cites the example of his native tongue, Marathi, which no longer has any cricket commentary on radio or TV. “The sports domain of my language has been shut off, those words are lost.”
Languages are lost over generations. As minority tongues become increasingly unviable, children are less likely to pick them up.
“Today, all over the world, there is a very big gap between those in their 50s and 60s and those in their teens and 20s,’’ Dr Devy says. ‘‘About 35 per cent of the young people in the world face the problem that they don’t have a strong connection to the languages spoken by their parents.”
G.D.P. Sastry, head of the Centre for Tribal and Endangered Languages at Mysore’s Central Institute for Indian Languages, says up to 30 per cent of India’s mother tongues are endangered.
In the state of Tripura, the language of the Korbong tribe is spoken by only 25 people, belonging to four families in one village. The Bongcher language in the same state has only 500 speakers.
“As these villages grow smaller, when old people die or young people move away, the languages get smaller and smaller — the simple attrition of people contributes to language attrition,” Dr Sastry says.
An absence of formal education in minority mother tongues contributes to language loss, as does, unexpectedly, inter-tribal marriage.
“In homes where the wife speaks one language, and the husband another, the child will speak a third language, Hindi or English or another major language, but neither of the parents’ mother tongues,” Dr Sastry says.
On the porch of his home in Totopara, Ashok Toto (all Totos carry the surname), speaks to The Age in Hindi. The irony is not lost on him. “But we speak only our language inside our homes when we are with our families.”
The children in the village go to a Bengali-speaking school. Most speak Hindi too, and some Nepali, but English is neither widely nor well-spoken. A lack of English tends to keeps Totos in the village and linked to their culture, but it cruels their employment opportunities, in particular preventing them from securing well-paying government jobs.
The day The Age visits Totopara, the Toto people are celebrating a wedding. It is one of the few occasions the community is all together.
Ashok’s cousin Bhavesh explains that the Toto community used to meet regularly, called together by a Karbari, essentially a town crier, who would visit all Toto houses requesting their presence on behalf of tribal elders. Now, with their community so intermingled with others, it feels exclusionary to hold Toto-only meetings, and they occur infrequently. It is the same with their language.
“Other communities here are in the majority, so obviously we pick up their language and culture. If we are sitting with people from other community, they can’t understand our language. We understand other people’s feelings, so we talk in our common language.”
But in the aftermath of the wedding ceremony, held in a small clearing next to a grove of betel trees, Toto men sit and play cards while the women dance. Others crush maura, a millet which is fermented to make eu, a strong, dark liquor.
“Here we speak our language,” Bhavesh says. “Here we are Toto people still.”
The road runs out seven kilometres before the last village in India.
Nestled at the edge of the Torsa River delta on the border with Bhutan, and against the foothills of the mountain range that will become the mighty Himalayas, Totopara is happily isolated from much of the turbulence of the countries around it.
The rains of the monsoon season regularly cut the village off by road, and the electricity supply is not yet so reliable as to seriously disturb the quiet.
But there is a battle going on in Totopara, a quiet war being waged to retain a sense of community, of identity and of culture, against the forces of economy and the pull of conformity that grips so many of the world’s small cultures. Totopara’s is a fight to keep a language alive.
The village takes its name as the home of the Toto people. Ethnically distinct from their neighbours, they have lived in the area beyond all memory and storytelling. “We have been here for hundreds of years... this is our homeland,” village elder Ashok Toto tells The Age.
They remain a small group, and now find themselves a minority in their own community, numbering about 1400 of the 5000 or so who live in the village. Farmers mainly, they Toto grow rice and betel nut or sell their labour on nearby plantations, where they are known as quiet, steady workers.
The Toto speak their own language, a tongue that shares no close derivation with any of those spoken around — Nepali, Bengali, Hindi or Bhutanese.
But the Toto people fear their language, and with it, their culture, history and way of life, is being lost, consumed by an education system that obliges their children to speak Bengali, and an economy that pushes them towards Hindi and English. Ashok is confident the next generation will grow up comfortable with the tongue of their ancestors.
“Now, out of 10, only two children would have problems in speaking their own language,” Ashok says. “Otherwise this new generation is well-versed in Toto. But for future, it’s risky . . . there will be problem, huge problem . . . because we face difficulties following the way of life of our ancestors. “There is a chance our language and culture will be finished.”
India is one of the most linguistically diverse countries on earth. Just how diverse is a matter of contention, but it is believed India today speaks between 850 and 900 distinct languages, though only 122 are recognised in the census and just 22 are scheduled as official languages in the constitution. Of mother tongues — the vernacular first learned at home — it was estimated in 1961 that India was home to more than 1600.
The first ever linguistic survey of India was completed in 1928, undertaken over 30 years by an Irish linguist and opium trader from the East India Company named Sir George Abraham Grierson, who concluded the country spoke 179 languages.
Acclaimed as triumph at the time, the 8000-page survey was flawed: many of Grierson’s field workers were untrained, he never visited large parts of southern India, and he completely ignored the country’s numerous nomadic tribes.
But as well as being one of the world’s most linguistically diverse nations, India is also losing languages faster than any other place on earth. UNESCO currently lists 197 Indian languages as endangered or vulnerable.
Toto is listed as critically endangered, the final stage before extinction, with perhaps 1000 speakers.
In an effort to counter India’s language loss, or at least record these vernaculars before they disappear, linguist
Ganesh Devy is overseeing the largest ever survey of Indian tongues, the People’s Linguistic Survey of India. Already two years in, the PLSI will not be completed until 2014. By then it will be 21 massive volumes, listing language names, their geography and history, key vocabulary, and examples of songs, poetry and storytelling.
The distinctions between languages, dialects and patois, so intermingled in multicultural India, are carefully defined for the PLSI. The survey considers a tongue a language when 70 per cent of its basic vocabulary – simple verbs, as well as words to describe space, time, kinship, colours, geography, anatomy, animals and plants — are original.
Dr Devy says India is likely behind only Papua New Guinea in its number of languages, ahead of Indonesia and polyglot African countries like Nigeria and Cameroon.
“India is one of those countries that has managed to keep their linguistic diversity alive until this date. I have a rather clear estimate now of about 850 languages.” But he says India’s minority languages, particularly those linked to a shrinking ethnic population, are facing increasing pressure.
“Over the last 50 years, India has lost about 150 languages. That is three languages per year, one language every four months that is lost forever. That is worrying, because all these languages hold wisdom.
“Every language is a unique world view. We need as many of these views as possible to see our world in its totality. Every language we lose, our ability to perceive the world is reduced.”
It is a paradox, Dr Devy says, that in this modern age of mass, widespread and rapid communication, the most fundamental form of human communication – spoken language – is being lost faster than ever before. Of the 7000 languages now spoken on earth, only about 600 are expected to survive until the end of the century.
In 2010, an 85-year-old Andaman Island woman called Boa Senior died. She was the last speaker of the Bo language, and it died with her. In her final years, her language was recorded by linguists, but it lives now only as a relic.
The Ayapaneco language of Mexico has only two known fluent speakers remaining alive. They live 500 metres from each other in the southern village of Ayapa, but they don’t like each other, and refuse to talk. The loss of a language is rarely so clear-cut. It is usually a slow, almost imperceptible process.
At first, domains of a language become unused. If a minority language-speaking Indian farmer needs to speak Hindi to communicate at the market or with neighbouring landholders, the words describing agriculture in his native tongue become redundant, and he moves to the larger language for the sake of his livelihood. As more and more ‘‘domains’’ are closed off, a language is slowly throttled.
It happens to larger languages too. Dr Devy cites the example of his native tongue, Marathi, which no longer has any cricket commentary on radio or TV. “The sports domain of my language has been shut off, those words are lost.”
Languages are lost over generations. As minority tongues become increasingly unviable, children are less likely to pick them up.
“Today, all over the world, there is a very big gap between those in their 50s and 60s and those in their teens and 20s,’’ Dr Devy says. ‘‘About 35 per cent of the young people in the world face the problem that they don’t have a strong connection to the languages spoken by their parents.”
G.D.P. Sastry, head of the Centre for Tribal and Endangered Languages at Mysore’s Central Institute for Indian Languages, says up to 30 per cent of India’s mother tongues are endangered.
In the state of Tripura, the language of the Korbong tribe is spoken by only 25 people, belonging to four families in one village. The Bongcher language in the same state has only 500 speakers.
“As these villages grow smaller, when old people die or young people move away, the languages get smaller and smaller — the simple attrition of people contributes to language attrition,” Dr Sastry says.
An absence of formal education in minority mother tongues contributes to language loss, as does, unexpectedly, inter-tribal marriage.
“In homes where the wife speaks one language, and the husband another, the child will speak a third language, Hindi or English or another major language, but neither of the parents’ mother tongues,” Dr Sastry says.
On the porch of his home in Totopara, Ashok Toto (all Totos carry the surname), speaks to The Age in Hindi. The irony is not lost on him. “But we speak only our language inside our homes when we are with our families.”
The children in the village go to a Bengali-speaking school. Most speak Hindi too, and some Nepali, but English is neither widely nor well-spoken. A lack of English tends to keeps Totos in the village and linked to their culture, but it cruels their employment opportunities, in particular preventing them from securing well-paying government jobs.
The day The Age visits Totopara, the Toto people are celebrating a wedding. It is one of the few occasions the community is all together.
Ashok’s cousin Bhavesh explains that the Toto community used to meet regularly, called together by a Karbari, essentially a town crier, who would visit all Toto houses requesting their presence on behalf of tribal elders. Now, with their community so intermingled with others, it feels exclusionary to hold Toto-only meetings, and they occur infrequently. It is the same with their language.
“Other communities here are in the majority, so obviously we pick up their language and culture. If we are sitting with people from other community, they can’t understand our language. We understand other people’s feelings, so we talk in our common language.”
But in the aftermath of the wedding ceremony, held in a small clearing next to a grove of betel trees, Toto men sit and play cards while the women dance. Others crush maura, a millet which is fermented to make eu, a strong, dark liquor.
“Here we speak our language,” Bhavesh says. “Here we are Toto people still.”
Saturday, 28 April 2012
Right to sex
But activists, while generally welcoming the proposed legislation, have trouble with one of its provisions: raising the age of legal sex to 18 from 16.
The move, they caution, could push parents in a conservative country to use the new law to sanction elder children’s sexual behavior. And the police may also use the law to harass couples.
“It will lead to hundreds of complaints by parents to file reports of rape even though the child had consensual sex and no crime was involved,” said Nishit Kumar, a spokesman at Childline, a toll-free helpline for street children in distress.
Pooja Taparia, founder of Mumbai-based organization “Arpan” which works in the field of child sexual abuse, agreed, saying the law is likely to be misused by both parents and police.
More broadly, activists welcomed the bill as a needed correlative for a country with a massive child abuse problem.
According to a 2007 study on child abuse by the Ministry of Women and Child Development, over half of children reported having “faced one or more forms of sexual abuse.”
Around 8% of abuse cases are by persons known to the child in a position of trust and authority. The study also said that most cases do not report the matter.
India at present does not have a specific law to protect children from sexual offenses, despite the face New Delhi has been a signatory to the UN Convention on the Rights of the Child since 1992. Current laws guard against sex with minors but prosecutions of abusers are rare.
One of the major innovations of the new bill, which must pass both houses of Parliament before becoming law, is to set up specific courts to try child-abuse cases – getting around massive back log of cases in the normal court system.
Bureaucrats first drew up the bill in 2005 but it didn’t reach it final form until last year. The Protection of Children from Sexual Offences Bill, 2011 seeks to “protect children from offences of sexual assault, sexual harassment and pornography and provide for establishment of special courts for trial of such offences.”
Under the provisions of the bill, any sexual activity, even if consensual, with children under 18 years of age would be considered as rape and would be subject to prosecution.
“In many ways, it would help in fighting the cases of human trafficking and rape,” said Ravi Kant, a lawyer and president of Shakti Vahini, a human rights advocacy organization.
But Mr. Kant, like many others, said he believed the consensual age for sex should remain 16.
“We need to treat the bracket of ages 16 to 18 differently,” says Ms Taparia. “If a child is raped, then you bring it under the judicial purview, but if it’s consensual sex between two people who are both within the age bracket 16 to 18 years, then it shouldn’t be criminalized. Puberty is coming early…So it’s regressive to take the age of legal sex to 18 years.”
Mr. Kumar said India’s sexual mores are changing. “Current sexual practices allow greater sexual freedom to young adults so raising the age doesn’t gel well with the current social trends,” he said.
The global average legal age of sexual consent is 16, according to data from Avert, a U.K.-based charity.
Activists also doubt how successful the law will be in tackling child abuse.
“Legal framework is necessary, but reality on ground can change only when the community is involved,” Mr. Kumar said.
India, for instance, already has laws preventing children under the age of 14 from working but that hasn’t stopped child labor in India becoming more prevalent.
The law will also be very difficult to apply when sexual abuse happens within the home, Ms. Taparia said.
“Very often we think law is the solution to everything,” she said, “but with incest it’s even more difficult” to prove a crime.
Friday, 27 April 2012
do you know this fact
जिस समय न्यूटन के पुर्वज जंगली लोग थे ,उस समय मह्रिषी भाष्कराचार्य ने प्रथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था. किन्तु आज हमें कितना बड़ा झूंठ पढना पढता है कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति कि खोंज न्यूटन ने की ,ये हमारे लिए शर्म की बात है.
भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।
ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण उपलब्ध हैं ! आवश्यकता है स्वभाषा में विज्ञान की शिक्षा दिए जाने की है .... डॉ आलोक चान्त्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।
ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण उपलब्ध हैं ! आवश्यकता है स्वभाषा में विज्ञान की शिक्षा दिए जाने की है .... डॉ आलोक चान्त्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
india and mith
जिस समय न्यूटन के पुर्वज जंगली लोग थे ,उस समय मह्रिषी भाष्कराचार्य ने प्रथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था. किन्तु आज हमें कितना बड़ा झूंठ पढना पढता है कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति कि खोंज न्यूटन ने की ,ये हमारे लिए शर्म की बात है.
भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।
ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण उपलब्ध हैं ! आवश्यकता है स्वभाषा में विज्ञान की शिक्षा दिए जाने की है .... डॉ आलोक चान्त्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।
ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण उपलब्ध हैं ! आवश्यकता है स्वभाषा में विज्ञान की शिक्षा दिए जाने की है .... डॉ आलोक चान्त्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
smoking as silent death
According to a report released by the
World Heart Federation (WHF), half of all Chinese smokers and one-third
of Indian smokers are unaware of the risks tobacco pose to the heart.
There is even lesser awareness about the dangers of second hand smoke.
According to WHF, cardiovascular disease (CVD) kills 17.3 million
people every year. Around 80% of these deaths occur in low and
middle-income countries like India, which are increasingly being
targeted by the tobacco industry.
Prof K Srinath Reddy, president of
Public Health Foundation of India and chairman of Science and Pol-icy
Initiatives Committee, WHF, said, “Indians need to wake up to the
threat of CVDs which are having a devastating impact on the nation’s
health, growth and development. Joint government and public action on
tackling these diseases is the need of the hour. Our policies and
programmes must focus on clearly informing the masses about the
ill-effects of tobacco use and effective measures like pictorial health
warnings on tobacco products must depict heart disease and stroke as
real dangers of tobacco use.”
Every year, tobacco kills 1 million people in India. Heart disease caused by it accounts for the highest number of deaths (29%).
Data from Indian Heart Watch — the country’s largest heart-risk survey of 6,000 people across 11 ci-ties over five years — presented at the WCC on Friday found awareness among tobacco users shock-ingly low.
According to WHO’s Mortality Attributable to Tobacco Report, globally 12% of all deaths among adults aged 30 years and above were due to smokeless tobacco in 2004 compared with 16% in India, Pakistan (17%) and Bangladesh (31%). Direct tobacco smoking was responsible for 5 million deaths...............awareness programme by All Indian Rights Organization(AIRO)
Data from Indian Heart Watch — the country’s largest heart-risk survey of 6,000 people across 11 ci-ties over five years — presented at the WCC on Friday found awareness among tobacco users shock-ingly low.
According to WHO’s Mortality Attributable to Tobacco Report, globally 12% of all deaths among adults aged 30 years and above were due to smokeless tobacco in 2004 compared with 16% in India, Pakistan (17%) and Bangladesh (31%). Direct tobacco smoking was responsible for 5 million deaths...............awareness programme by All Indian Rights Organization(AIRO)
Thursday, 26 April 2012
woman should prefer home with her children
From the Deseret News:
Social relations and the economy suffer without a quality family life at home, said Sophia Aguirre, professor of economics at the Catholic University of America.
Aguirre’s comments follow Democratic strategist Hilary Rosen’s remarks in questioning Ann Romney, who didn’t work while raising her five sons.
Social capital, or the value of social relations and its effects on the economy, is necessary for economic growth, but it suffers without a quality family life in the home, Aguirre said. The absence of mothers in the home can jeopardize the sustainability of economic growth.
Teens who eat with their parents at least fives time per week are 17 percent more likely to obtain mostly A and B grades in school than those who only dine together zero to two times, according to Aguirre’s findings in a study on the family and economic growth done in 2008.
“I think that the value of the mother at home is extremely high,” Aguirre, who has held appointments at the University of Chicago and Northwestern University’s economics department, said in an interview with the Deseret News. “It’s an investment in the future generation and on themselves.”
As an economist, Aquirre says she sees the disturbance of “social capital” through a lack of parenthood in the home as “undermining” for the economy.
Other economists also see the economic value of stay-at-home mothers.
Pat Fagan, Ph.D., director of the Marriage & Religion Research Institute in Washington D.C., says that the benefits of a stay-at-home mother are measured on a long-term basis.
He used Romney, wife of Republican presidential candidate Mitt Romney, as an example. The contribution of her five children over their lifetime “could easily be much greater than their father’s,” he said. “You’ve got to take a lifetime perspective.”
Fagan also says that homeschooling is rising, which benefits the economy and saves taxpayers’ money on the cost of educating children.
In 2011, 23.8 percent of parents with children under 15 years old had one parent stay at home with them. That is the highest rate since 2008, according to the U.S. Census Bureau.
Aguirre told the Deseret News that there is a steady growth in stay-at-home mothers, mostly among women between 20 and 29 years old.
Women are starting to move away from metropolitan areas with their husbands so they can afford being a homemaker, she said.
Only 33 percent of mothers say they want to work, Aguirre said. The majority of women prefer staying at home over working.
Though these economists advocate the advantages of stay-at-home mothers, they are not condemning those who choose to work.
“I don’t think its necessarily wrong for a woman to work outside of the home,” Aquirre said. “I do think that many women would prefer to not work while the children are young, and I think that’s a smart investment. The data is pretty clear across the board.”
Companies are having a hard time retaining female employees because they are unable to be flexible for working mothers, Aquirre said. Providing flexible schedules would lead to a less stressed female workforce.
Gary Becker, a Nobel Prize winner in economics, focused his study on human capital in the economy.
“The mother at home raising her children makes a greater contribution to the economy than the father in the workplace,” Becker said as quoted by Fagan.
Social relations and the economy suffer without a quality family life at home, said Sophia Aguirre, professor of economics at the Catholic University of America.
Aguirre’s comments follow Democratic strategist Hilary Rosen’s remarks in questioning Ann Romney, who didn’t work while raising her five sons.
Social capital, or the value of social relations and its effects on the economy, is necessary for economic growth, but it suffers without a quality family life in the home, Aguirre said. The absence of mothers in the home can jeopardize the sustainability of economic growth.
Teens who eat with their parents at least fives time per week are 17 percent more likely to obtain mostly A and B grades in school than those who only dine together zero to two times, according to Aguirre’s findings in a study on the family and economic growth done in 2008.
“I think that the value of the mother at home is extremely high,” Aguirre, who has held appointments at the University of Chicago and Northwestern University’s economics department, said in an interview with the Deseret News. “It’s an investment in the future generation and on themselves.”
As an economist, Aquirre says she sees the disturbance of “social capital” through a lack of parenthood in the home as “undermining” for the economy.
Other economists also see the economic value of stay-at-home mothers.
Pat Fagan, Ph.D., director of the Marriage & Religion Research Institute in Washington D.C., says that the benefits of a stay-at-home mother are measured on a long-term basis.
He used Romney, wife of Republican presidential candidate Mitt Romney, as an example. The contribution of her five children over their lifetime “could easily be much greater than their father’s,” he said. “You’ve got to take a lifetime perspective.”
Fagan also says that homeschooling is rising, which benefits the economy and saves taxpayers’ money on the cost of educating children.
In 2011, 23.8 percent of parents with children under 15 years old had one parent stay at home with them. That is the highest rate since 2008, according to the U.S. Census Bureau.
Aguirre told the Deseret News that there is a steady growth in stay-at-home mothers, mostly among women between 20 and 29 years old.
Women are starting to move away from metropolitan areas with their husbands so they can afford being a homemaker, she said.
Only 33 percent of mothers say they want to work, Aguirre said. The majority of women prefer staying at home over working.
Though these economists advocate the advantages of stay-at-home mothers, they are not condemning those who choose to work.
“I don’t think its necessarily wrong for a woman to work outside of the home,” Aquirre said. “I do think that many women would prefer to not work while the children are young, and I think that’s a smart investment. The data is pretty clear across the board.”
Companies are having a hard time retaining female employees because they are unable to be flexible for working mothers, Aquirre said. Providing flexible schedules would lead to a less stressed female workforce.
Gary Becker, a Nobel Prize winner in economics, focused his study on human capital in the economy.
“The mother at home raising her children makes a greater contribution to the economy than the father in the workplace,” Becker said as quoted by Fagan.
Sunday, 22 April 2012
woman and use of symbols
यह एक दुःख का विषय है कि हम औरत को मुक्ति के नाम पर गलत रास्तो का प्रतिनिधि बनाना चाहते है मुझे नही मालूम कि मेरी माँ ने कभी सिंदूर लगा कर अपने को गुलाम समझा हो बल्कि उनके मन में अपने पति के साथ होने का एहसास रहता है , इस के अलवा जब बात किसी मद्दे के गलत सही की हो तो गंभीर चिंतन होना चाहिए | सिंदूर लगा कर एक महिला को गुलाम बनाने के बजाये पुरे समाज के सामने उसकी सामजिक स्थिति के बारे में बता दिया जाता है क्योकि औरत को पुरुष के विपरीत माँ बन ने का गौरव प्राप्त है , झा सिंदूर यह बता देता है है की विधिक रूप से यह महिला किसी की पत्नी है वही वह उसे किसी भी अनावश्यक प्रश्नों से बचा लेता है अगर हम महिला की तुलना वह से करना चाहते है जो सिंदूर नही लगते तो नही भुलाना चाहिए कि पश्चिम में भी और ग्रीक सभ्यता में भी अनामिका में अंगूठी पह्नानन पड़ता है जो ग्रीक प्रतीक चिन्ह के अनुसार लिंग पर पुरुष महिला के अधिकार का बताता है , पर कभी उन्होंने इस बात का विरोध किया कि महिला अंगूठी क्यों पहने , यही नही जब भी कोई अंजना पुरुष किसी अंगूठी पहने महिला के पास आता है तो वह अपनी अनामिका अंगूठी दिखा कर बता देती है कि मै इंगेज हूँ और वह आना बचाव करती है पर अगर भारत में औरत सिंदूर लगा रही है तो फर्जी हल्ला हो रहा है , सबसे बड़ी बात यह है कि सिंदूर वास्तव में लेड आक्साइड होता है जो औरत को साम्यता प्रदान करता है और दिमाग को सुकून यही नही कोई भी यह नही जानना चाहता कि जो गर्भ धारण किये हुए महला जा रही है उसके पेट में जायज बच्चा है या नाजायज ? कितना ज्यादा सामजिक सुरक्षा को धयान में रखा गया होगा जब औरत के लिए सिंदूर बनाया गया होगा पर हम प्रतीक को दासता कहते है पता नही यह कह कर हम उसे और खिलौना बनाना चाहते है या फिर उसका गौरव बढ़ाना चाहते है ?????????? लिपस्टिक , मेहँदी , और पैरो में अलता ( जो एड़ी में रंग लगाते है ) यह सब शरीर के वह क्षेत्र है जहा पर तेल ग्रंथिय नही पाई जाती और खिचाव के कारण वह फट जाती है , जिस से शरीर भद्दा लगने लगता है , इसी को छिपाने के लिए यह सब लगाते है | भूमंडली कारण के दौर में जब हर तरफ बाजारीकारण चल रहा है तो विदेशी कम्पनी अपनी महंगी क्रीम को बेचने के लिए भारत को बड़ा बाजार पाती है और इसी लिए उन्हें औरत का पैरो में अलता लगाना दासता लगता है जब कि उस रंग में जो तत्व है वह फटी बिवाई में काफी रहत करता है , चुकी पश्चिम वाले नेल पलिस, लिपस्टिक का प्रयोग खूब करते है , इस लिए खी भी इनको न तो प्रतीक चिन्ह कहा गया और न इन्हें दासता कह कर औरत को उकसाया गया और यही से प्रतीक चिन्ह के प्रति असली मकसद समझ लिया जाना चाहिए | बिच्छिया , यह भी सुहाग का एक प्रतीक बन कर उभरा पर कितने लोग यह जानते है कि बिच्छिया को विवाहित महिला को इस लिए पहनाया गया क्योकि इस से गर्भ को जन्म देने के समय स्वाभाविक रूप से योनी में फैलाव आता है और प्रसव में होने वाली समस्या का समाधान किया जाता है पर हम सबको किसी भी जानकारी के आभाव में बस बुरे करने कि बीमारी हो गई है | चूड़ी , कान में , नाक में कील को पहनने के लिए इस लिए नही कहा गया कि औरत हम सबकी दस दिखाई दे बल्कि इस लिए क्यों कि औरत के बारे में विज्ञानं , और साहित्य दोनों ने माना है कि वह शक्ति का वरण करती है और जो भी उसके इवान में शक्तिवान आएगा वह उसी के प्रति समाप्त हो जाएगी पर इस से समाज में एक विचल आ जाता और औरत कि उस भावना का शमन इन सांस्क्रतिक अभुश्नो को पहना कर किया गया | जिन देशो में यह नही है उन देशो में मूल्यों की कितनी असमानता है और सामाजिक विघटन है , इसको कौन नही जनता और यह एक अनुवांशिक तथ्य है की नर की अपेक्षा मादा हमेशा अपने सौन्दर्य के प्रति संवेदनशील रही है , कोई भी पक्षी ( मोर , कोयल , गौरया , मादा कबूतर )हो या जानवर , ( चिम्पांजी , मकाक , लंगूर , शेरनी , मादा भालू ) सभी में अपने शरीर की सज सज्जा करते पाया गया है और वह अपनी एक सुगंध और भाव से एक समय विशेष पर नर को आकर्षित करते है पर मानव में थोडा अलग है न तो उसका प्रज्नाजं समय निश्चित है और न ही वह पूरी तरह प्राकृतिक अवलंबन पर है और यही कारण है कि प्रणय के उसने जो साधन ढूंढे उसमे औरत का अपने सजाना भी है | अगर औरत को प्रीको को धारण करना स्वयं बुरा या गुलामी कि तरह लगा होता तो अब तक प्रतीकों कि बाजार ही ख़त्म हो गई होती पर प्रतीकों का उद्द्योग हर दिन बड़ा है और यही नही औरत स्वयं सुन्दरता के लिए प्रतीक को अपना आधार मानती है | इन सब से इतर औरत हमेशा से यह देखती आई है कि उसके जीवन में जो है उसक या पसंद है , मैंने कोई औरत आज तक ऐसी नही पाई जो प्रतीक के बिना हो , हमारे साथ एक महिला प्रवक्ता है जिन्हें सिंदूर लगाने पर आपत्ति है पर वह कान , नाक , हाथ , गले के सरे प्रतीक पहनती है टी इसका क्या मतलब निकला कि यह सिर्फ एक विरोध है कि वह पुरुष कि तरह क्यों न रहे . वो भी तो कोई प्रतीक विवाह होने के रूप में धारण नही करता ?? पर इन सब में वह भूल जाती है कि औरत को प्रकृति ने माँ बन्ने का गौरव दिया है और पुरुष को कभी सामाजिक प्रतारणा नही मिलती कि किसका पाप पेट में है या किस के साथ मुह कला किये पर औरत को विवाह जैसे पवित्र कार्य करने के बाद इतने निम्न शब्द न सुनने पड़े तब तो प्रतीक खुद ही अपनी सार्थकता बयां कर देते है और आज के आधुनिक युग में जब कंडोम , प्रेम विवाह के नाम पर शारीरिक सम्बन्ध आदि का प्रचलन बढ़ रहा है तब तो प्रतीक का प्रयोग और किया जाना चाहिए ताकि पुरुष पर नियंत्रण किया जा सके | बिना प्रतीकों के आज आप नायालय में अपने को विवाहित साबित कर पाए यह मुश्किल है | क्यों कि प्रतीक ही औरत की सामाजिक स्थिति को बताता है | कानून में प्रतीकों का महत्व है पर अगर यौन उन्मुक्त समाज बनाना है और औरत को सिर्फ वासना का ही प्रतीक समझना है तो हमें प्रतीक का विरोध करना चाहिए और अगर औरत का सम्मान करना है तो औरत को भी अपने गौरव शाली प्रतीकों के महत्व को समझना होगा ...डॉ आलोक चान्त्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
Saturday, 14 April 2012
right to education 2009
प्रेस विज्ञप्ति
अखिल भारतीय अधिकार संगठन ने जताई शिक्षा के अधिकार पर आपत्ति
आज दिनांक १४ अप्रैल को संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर के जन्म दिन पर अखिल भारतीय अधिकार संगठन ने देश के कर्ण धरो यानि बच्चो के लिए बनाये गए शिक्षा के अधिकार २००९ की पोल खोलते हुए संविधान के अनुच्छेद २१ अ ( शिक्षा के अधिकार ) की खामियों की ओर सरकार का धयान खीचने के लिए विशेष शिक्षक एवम अभिभावक संगठन उत्तर प्रदेश को समर्तःन देते हुए विधान सभा के सामने एक दिवसीय धरना दिया | संगठन को इस बात पर घोर आपत्ति है कि सरकार ने एक्ट तो बना दिया और मानिये उच्चतम नयालायाय ने उस पर मोहर लगते हुए २५% सामजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चो के हर तरह के प्राथमिक स्कूलों में प्रवेश पर भी मोहर लगा दी पर सरकार्र ने इस बात का कोई प्राविधान नही किया कि सिर्फ फीस माफ़ कर देने भर से गरीब बच्चो का क्या भला होगा क्यों कि पुरे वर्ष न जाने कितने मदों में स्कूल पैसे कि मांग करता है और वह पैसा गरीब का बच्चा कहा से लायेगा , सरकार को इस तरह के किसी भी पैसे को लेने पर रोक लगाने के लिए भी प्राविधान करना चाहिए | इस के अतिरिक्त सरकार ने इस एक्ट में कहा है कि जब तक स्कूल में २०*२० के ५ या ७ कमरे नही होंगे , स्कूल को मान्यता नही दी जाएगी , पर यह एक आसन काम नही है कि स्कूल खोलने वाले के पास इतने कमरे खोलने भर का पैसा हो और इतना पैसा पूंजीपतियो के पास है जिस से लगता है कि सरकार गाँव कि प्राथमिक शिक्षा को भी पूंजीपतियो के हाथ बेचना चाहती है , इस लिए इस तरह के नियम में छुट होनी चाहिए क्योकि झोपडी बना कर भी अच्छी शिक्षा दी जा सकती है | हमारे देश में गढ़ शिक्षा को सदियो से मान्यता रही है और लोग उसके आधार पर उच्चा कक्षों में प्रवेश आसानी से ले लेते थे पर अब बिना मान्यता के पाए स्कूल से शिक्षा पाने पर सकाल पर एक लाख का जुरमाना होगा जो यह सिद्ध करता है कि शिक्षा देने का अधिकार पूंजीपतियो के पास हस्तांतरित किया जा रहा है | सब से बड़ी विडंबना यह है कि शिक्षा के अधिकार में विलांग बच्चो को भी सम्मिलित कर लिया गया है यानि वह भी सामान्य स्कूलों में प्रवेश पा सकेंगे लेकिन सरकार द्वारा न तो विशेष बच्चो के लिए शिक्षक नियुक्त किये गए है और न ही उस तरह कि पढने कि सामग्री बनाई गई है | ८०% बहरा बच्चा , पूरी तरह अँधा बच्चा वही पुस्तके कैसे पढ़ पायेगा जो सामान्य बच्चा पढ़ेगा यही नही बच्चा सुन कैसे पायेगा ? ऐसे बच्चो के लिए विशेष शिक्षक कि नियुक्ति कि जानी चाहिए | ऐसा लगता है कि सामजिक कल्याण का ढोंग करने के लिए सरकार ने जल्दबाजी में यह कानून तो बना दिया पर जनता और गरीब की आशाव की पूरी तरह अवहेलना कर दी है . इस सन्दर्भ में सामजिक कार्य करता मुण लाल जी के नेत्रत्व ने सरकार को एक ज्ञापन दिया गया है | संगठन के अध्यक्ष डॉ आलोक चांत्तिया ने कहा कि इन गंभीर त्रुटियों के लिए सरकार से जन सुचना के अंतर्गत सुचना मांगी गई है और सूचना के प्रकाश में जल्दी ही इस लड़ाई को अमली जमा पहनाया जायेगा | उमेश शुक्ला जी ने भी कहा कि वह जल्दी ही सरकार को ज्ञापन देकर आन्दोलन करेंगे | पुरे प्रदेश से करीब ५० लोग एकत्र हुए | संगठन के प्रमुख डॉ चान्त्टिया ने कहा कि विकलांग बच्चो को पढ़ने वाले शिक्षको की स्थाई नियुक्ति और विकलांग बच्चो के प्रवेश में आने वाली मौलिक बाधा के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकार का ध्यान आकर्षित किया जायेगा क्यों की संगठन हमेशा से ही लोगो के अधिकारों के प्रति चिंतित रहा है और रहेगा | इस अमुके पर उन्हों ने सबके साथ डॉ अम्बेडकर के कार्यो को याद करते हुए कहा कि अगर संविधान का लाभ देश के बच्चो को ही नही मिला तो डॉ अम्बेडकर के आदर्शो को धक्का लगेगा | इस तरह के असंवैधानिक शिक्षा के अधिकार के पार्टी सभी ने अपने विचार रखा और यह निश्चय किया कि जब तक सही कानून नही आ जाता यह आन्दोलन चलाया जायेगा
डॉ आलोक चान्त्टिया
अखिल भारतीय अधिकार संगठन
अखिल भारतीय अधिकार संगठन ने जताई शिक्षा के अधिकार पर आपत्ति
आज दिनांक १४ अप्रैल को संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर के जन्म दिन पर अखिल भारतीय अधिकार संगठन ने देश के कर्ण धरो यानि बच्चो के लिए बनाये गए शिक्षा के अधिकार २००९ की पोल खोलते हुए संविधान के अनुच्छेद २१ अ ( शिक्षा के अधिकार ) की खामियों की ओर सरकार का धयान खीचने के लिए विशेष शिक्षक एवम अभिभावक संगठन उत्तर प्रदेश को समर्तःन देते हुए विधान सभा के सामने एक दिवसीय धरना दिया | संगठन को इस बात पर घोर आपत्ति है कि सरकार ने एक्ट तो बना दिया और मानिये उच्चतम नयालायाय ने उस पर मोहर लगते हुए २५% सामजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चो के हर तरह के प्राथमिक स्कूलों में प्रवेश पर भी मोहर लगा दी पर सरकार्र ने इस बात का कोई प्राविधान नही किया कि सिर्फ फीस माफ़ कर देने भर से गरीब बच्चो का क्या भला होगा क्यों कि पुरे वर्ष न जाने कितने मदों में स्कूल पैसे कि मांग करता है और वह पैसा गरीब का बच्चा कहा से लायेगा , सरकार को इस तरह के किसी भी पैसे को लेने पर रोक लगाने के लिए भी प्राविधान करना चाहिए | इस के अतिरिक्त सरकार ने इस एक्ट में कहा है कि जब तक स्कूल में २०*२० के ५ या ७ कमरे नही होंगे , स्कूल को मान्यता नही दी जाएगी , पर यह एक आसन काम नही है कि स्कूल खोलने वाले के पास इतने कमरे खोलने भर का पैसा हो और इतना पैसा पूंजीपतियो के पास है जिस से लगता है कि सरकार गाँव कि प्राथमिक शिक्षा को भी पूंजीपतियो के हाथ बेचना चाहती है , इस लिए इस तरह के नियम में छुट होनी चाहिए क्योकि झोपडी बना कर भी अच्छी शिक्षा दी जा सकती है | हमारे देश में गढ़ शिक्षा को सदियो से मान्यता रही है और लोग उसके आधार पर उच्चा कक्षों में प्रवेश आसानी से ले लेते थे पर अब बिना मान्यता के पाए स्कूल से शिक्षा पाने पर सकाल पर एक लाख का जुरमाना होगा जो यह सिद्ध करता है कि शिक्षा देने का अधिकार पूंजीपतियो के पास हस्तांतरित किया जा रहा है | सब से बड़ी विडंबना यह है कि शिक्षा के अधिकार में विलांग बच्चो को भी सम्मिलित कर लिया गया है यानि वह भी सामान्य स्कूलों में प्रवेश पा सकेंगे लेकिन सरकार द्वारा न तो विशेष बच्चो के लिए शिक्षक नियुक्त किये गए है और न ही उस तरह कि पढने कि सामग्री बनाई गई है | ८०% बहरा बच्चा , पूरी तरह अँधा बच्चा वही पुस्तके कैसे पढ़ पायेगा जो सामान्य बच्चा पढ़ेगा यही नही बच्चा सुन कैसे पायेगा ? ऐसे बच्चो के लिए विशेष शिक्षक कि नियुक्ति कि जानी चाहिए | ऐसा लगता है कि सामजिक कल्याण का ढोंग करने के लिए सरकार ने जल्दबाजी में यह कानून तो बना दिया पर जनता और गरीब की आशाव की पूरी तरह अवहेलना कर दी है . इस सन्दर्भ में सामजिक कार्य करता मुण लाल जी के नेत्रत्व ने सरकार को एक ज्ञापन दिया गया है | संगठन के अध्यक्ष डॉ आलोक चांत्तिया ने कहा कि इन गंभीर त्रुटियों के लिए सरकार से जन सुचना के अंतर्गत सुचना मांगी गई है और सूचना के प्रकाश में जल्दी ही इस लड़ाई को अमली जमा पहनाया जायेगा | उमेश शुक्ला जी ने भी कहा कि वह जल्दी ही सरकार को ज्ञापन देकर आन्दोलन करेंगे | पुरे प्रदेश से करीब ५० लोग एकत्र हुए | संगठन के प्रमुख डॉ चान्त्टिया ने कहा कि विकलांग बच्चो को पढ़ने वाले शिक्षको की स्थाई नियुक्ति और विकलांग बच्चो के प्रवेश में आने वाली मौलिक बाधा के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकार का ध्यान आकर्षित किया जायेगा क्यों की संगठन हमेशा से ही लोगो के अधिकारों के प्रति चिंतित रहा है और रहेगा | इस अमुके पर उन्हों ने सबके साथ डॉ अम्बेडकर के कार्यो को याद करते हुए कहा कि अगर संविधान का लाभ देश के बच्चो को ही नही मिला तो डॉ अम्बेडकर के आदर्शो को धक्का लगेगा | इस तरह के असंवैधानिक शिक्षा के अधिकार के पार्टी सभी ने अपने विचार रखा और यह निश्चय किया कि जब तक सही कानून नही आ जाता यह आन्दोलन चलाया जायेगा
डॉ आलोक चान्त्टिया
अखिल भारतीय अधिकार संगठन
Tuesday, 3 April 2012
diabetes
A gene that helps beat type 2 diabetes has been discovered in the body's fat cells, according to a group of scientists.
Researchers from the Harvard Medical School in the US, discovered that, contrary to popular belief, fatty adipose tissue can benefit the body's metabolism.
Research showed how the gene, ChREBP, resists diabetes by converting glucose sugar into fatty acids. It also boosts sensitivity to insulin, the vital hormone that regulates blood sugar.
However, in most obese people, sugar is blocked from entering fat cells and blood sugar levels rise. Eventually, this leads to insulin resistance and type-2 diabetes, which affects more than two million people in the UK.
Scientists believe the findings could lead to new treatments for diabetes and other metabolic diseases. They add to previous research based on 123 fat samples from non-diabetic people which showed the gene was more active in those whose bodies had a better sugar balance.
The fat gene's activity also correlated with insulin sensitivity in obese, non-diabetic people.
"The general concept of fat as all bad is not true," said lead investigator Dr Mark Herman, from Harvard Medical School in the US.
"Obesity is commonly associated with metabolic dysfunction that puts people at higher risk for diabetes, stroke and heart disease, but there is a large percentage of obese people who are metabolically healthy. We started with a mouse model that disassociates obesity from its adverse effects."
Dr Herman's team tweaked a "glucose transporter" gene in obese mice that serves as a gateway for sugar. Usually, its activity in fat cells drops with obesity.
The scientists found that when they increased glucose transporter levels in obese mice - allowing more sugar into their fat cells - they were protected against diabetes. Conversely, normal weight mice missing the glucose transporter gene developed diabetes symptoms.
The research showed sugar in fat cells triggered a response from the ChREBP gene that regulated insulin sensitivity throughout the body. The findings appear in the online edition of the journal Nature.
Researchers from the Harvard Medical School in the US, discovered that, contrary to popular belief, fatty adipose tissue can benefit the body's metabolism.
Research showed how the gene, ChREBP, resists diabetes by converting glucose sugar into fatty acids. It also boosts sensitivity to insulin, the vital hormone that regulates blood sugar.
However, in most obese people, sugar is blocked from entering fat cells and blood sugar levels rise. Eventually, this leads to insulin resistance and type-2 diabetes, which affects more than two million people in the UK.
Scientists believe the findings could lead to new treatments for diabetes and other metabolic diseases. They add to previous research based on 123 fat samples from non-diabetic people which showed the gene was more active in those whose bodies had a better sugar balance.
The fat gene's activity also correlated with insulin sensitivity in obese, non-diabetic people.
"The general concept of fat as all bad is not true," said lead investigator Dr Mark Herman, from Harvard Medical School in the US.
"Obesity is commonly associated with metabolic dysfunction that puts people at higher risk for diabetes, stroke and heart disease, but there is a large percentage of obese people who are metabolically healthy. We started with a mouse model that disassociates obesity from its adverse effects."
Dr Herman's team tweaked a "glucose transporter" gene in obese mice that serves as a gateway for sugar. Usually, its activity in fat cells drops with obesity.
The scientists found that when they increased glucose transporter levels in obese mice - allowing more sugar into their fat cells - they were protected against diabetes. Conversely, normal weight mice missing the glucose transporter gene developed diabetes symptoms.
The research showed sugar in fat cells triggered a response from the ChREBP gene that regulated insulin sensitivity throughout the body. The findings appear in the online edition of the journal Nature.
ajjeb si dansta
काँटों में भी फूल खिला कर ,
सबको हरसाना आता है ,
फिर तो तुम मानव हो पगले ,
तुम्हे ईश दिखाना आता है |.........१
मै आग सा जीवन लेकर ,
पानी सा जीवन क्यों खत्म,करूं
दूर सही पर आभास आलोक सा ,
मोती , मछली सा क्यों मै मरूँ.....२
आलोक की चाहत सबमे रहती ,
अंधकार समेटे क्यों बैठा है ,
घुट घुट कर आक्रोश सूर्य सा ,
अंतस तेज बन क्यों ऐठा है ,
दूर सही पर प्यारा सा लगता ,
हर सुबह जगाने आता है ,
आलोक न रहता किसी एक का ,
सिर्फ मुट्ठी में अँधेरा पाता है .....३ .....इस का कोई मतलब आपको समझ में आ रहा है .....डॉ आलोक चान्टिया
सबको हरसाना आता है ,
फिर तो तुम मानव हो पगले ,
तुम्हे ईश दिखाना आता है |.........१
मै आग सा जीवन लेकर ,
पानी सा जीवन क्यों खत्म,करूं
दूर सही पर आभास आलोक सा ,
मोती , मछली सा क्यों मै मरूँ.....२
आलोक की चाहत सबमे रहती ,
अंधकार समेटे क्यों बैठा है ,
घुट घुट कर आक्रोश सूर्य सा ,
अंतस तेज बन क्यों ऐठा है ,
दूर सही पर प्यारा सा लगता ,
हर सुबह जगाने आता है ,
आलोक न रहता किसी एक का ,
सिर्फ मुट्ठी में अँधेरा पाता है .....३ .....इस का कोई मतलब आपको समझ में आ रहा है .....डॉ आलोक चान्टिया
ajjeb sa jivan ...kya samjh aaya
काँटों में भी फूल खिला कर ,
सबको हरसाना आता है ,
फिर तो तुम मानव हो पगले ,
तुम्हे ईश दिखाना आता है |.........१
मै आग सा जीवन लेकर ,
पानी सा जीवन क्यों खत्म,करूं
दूर सही पर आभास आलोक सा ,
मोती , मछली सा क्यों मै मरूँ.....२
आलोक की चाहत सबमे रहती ,
अंधकार समेटे क्यों बैठा है ,
घुट घुट कर आक्रोश सूर्य सा ,
अंतस तेज बन क्यों ऐठा है ,
दूर सही पर प्यारा सा लगता ,
हर सुबह जगाने आता है ,
आलोक न रहता किसी एक का ,
सिर्फ मुट्ठी में अँधेरा पाता है .....३ .....इस का कोई मतलब आपको समझ में आ रहा है .....डॉ आलोक चान्टिया
सबको हरसाना आता है ,
फिर तो तुम मानव हो पगले ,
तुम्हे ईश दिखाना आता है |.........१
मै आग सा जीवन लेकर ,
पानी सा जीवन क्यों खत्म,करूं
दूर सही पर आभास आलोक सा ,
मोती , मछली सा क्यों मै मरूँ.....२
आलोक की चाहत सबमे रहती ,
अंधकार समेटे क्यों बैठा है ,
घुट घुट कर आक्रोश सूर्य सा ,
अंतस तेज बन क्यों ऐठा है ,
दूर सही पर प्यारा सा लगता ,
हर सुबह जगाने आता है ,
आलोक न रहता किसी एक का ,
सिर्फ मुट्ठी में अँधेरा पाता है .....३ .....इस का कोई मतलब आपको समझ में आ रहा है .....डॉ आलोक चान्टिया
Monday, 2 April 2012
kya aap aisa sochte hai
फूल वही सुंदर कहलाया ,
काँटों को जिसने गले लगाया ,
उपमा सहस की उसकी गाई,
कीचड़ को जिसने राह बनाई,
क्यों डरते उबड़ खाबड़ रस्तो से ,
बढे चलो आलोक साहस रथ से .......... जीवन कोई भी अच्छा या ख़राब नही होता है बस हम ही यह नही समझ पाते और दुखी रहते है आइये सुख दुःख के साथ जिए ....डॉ आलोक चान्टिया
काँटों को जिसने गले लगाया ,
उपमा सहस की उसकी गाई,
कीचड़ को जिसने राह बनाई,
क्यों डरते उबड़ खाबड़ रस्तो से ,
बढे चलो आलोक साहस रथ से .......... जीवन कोई भी अच्छा या ख़राब नही होता है बस हम ही यह नही समझ पाते और दुखी रहते है आइये सुख दुःख के साथ जिए ....डॉ आलोक चान्टिया
aao mil kar kre jatan
आओ मिल कर करे जतन,
फूलो सा प्यारा हो वतन ,
हम बढे बढ़ करके छू ले ,
प्रगति के नित नए कदम ..........
बूंद बूंद से घट है भरता ,
कर्म के पथ पर जीवन तरता ,
शस्य श्यामला धरती हो मेरी ,
आओ मिल सब करे चमन ....... यह गीत मैंने १२ नवम्बर २००६ को अखिल भारतीय अधिकार संगठन के ले लक्ष्य गीत के रूप में लिखा था जो हमारी http://www.airo.org.in/ पर पूर्ण उपलब्ध है ....डॉ आलोक चान्त्टिया
फूलो सा प्यारा हो वतन ,
हम बढे बढ़ करके छू ले ,
प्रगति के नित नए कदम ..........
बूंद बूंद से घट है भरता ,
कर्म के पथ पर जीवन तरता ,
शस्य श्यामला धरती हो मेरी ,
आओ मिल सब करे चमन ....... यह गीत मैंने १२ नवम्बर २००६ को अखिल भारतीय अधिकार संगठन के ले लक्ष्य गीत के रूप में लिखा था जो हमारी http://www.airo.org.in/ पर पूर्ण उपलब्ध है ....डॉ आलोक चान्त्टिया
Sunday, 1 April 2012
1 april
१ अप्रैल यानि मूर्खता का दिन और यही कारण है कि यह दिन अपनी अलग विशेषता लेकर आता है पर क्या आपको पता है कि आज के दिन को मूर्खता दिवस क्यों कहा जाता है ??????? नही पता चलिए मै ही अपनी मूर्खता दिवस पर अपनी अक्लमंदी आपको दिखाए देता हूँ .....हुआ यु कि १५८२ में वेटिकेन के पोप हुए पोप ग्रेगर तेरहवे और अपनी गद्दी सम्हालते ही वह बोले कि अब साल के कैलेंडर के लिए ग्रेगर कैलेंडर प्रयोग किया जायेगा और साल का पहला दिन १ जनवरी होगा | उस से पहले जुलियन कैलेंडर का प्रचलन था जिस में साल का पहला दिन १ अप्रैल होता था | ज्यादा तर यूरोप के देशो ने ग्रेगर कैलेंडर मान लिया पर फ़्रांस के लोगो को यह बात समझ में नही आयो और वह १ अप्रैल को ही साल का पहला दिन मानते रहे जिस के कारण यूरोप के देश उन्हें मुर्ख समझ कर उनकी खिल्ली उड़ाने लगे और बस उनकी इसी मूर्खता को एक उत्सव का रूप दे दिया गया | आज भी फ़्रांस में एक हफ्ते का १ अप्रैल से उत्सव मनाया जाता है यानि जो काम को न समझ पाए वह मुर्ख कहलाया और वही प्रतीक रूप में आज भी १ अप्रैल मूर्खता दिवस के रूप में प्रसिद्द है ...अखिल भारतीय अधिकार संगठन कि तरफ से आपके ज्ञान वर्धन के लिए प्रस्तुत ....डॉ आलोक चान्त्टिया
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