Sunday 22 April 2012

woman and use of symbols

यह एक दुःख का विषय है कि हम औरत को मुक्ति के नाम पर गलत रास्तो का प्रतिनिधि बनाना चाहते है मुझे नही मालूम कि मेरी माँ ने कभी सिंदूर लगा कर अपने को गुलाम समझा हो बल्कि उनके मन में अपने पति के साथ होने का एहसास रहता है , इस के अलवा जब बात किसी मद्दे के गलत सही की हो तो गंभीर चिंतन होना चाहिए | सिंदूर लगा कर एक महिला को गुलाम बनाने के बजाये पुरे समाज के सामने उसकी सामजिक स्थिति के बारे में बता दिया जाता है क्योकि औरत को  पुरुष के विपरीत माँ बन ने का गौरव प्राप्त है , झा सिंदूर यह बता देता है है की विधिक रूप से यह महिला किसी की पत्नी है वही वह उसे किसी भी अनावश्यक प्रश्नों से बचा लेता है अगर हम महिला की तुलना वह से करना चाहते है जो सिंदूर नही लगते तो नही भुलाना चाहिए कि पश्चिम में भी और ग्रीक सभ्यता में भी अनामिका में अंगूठी पह्नानन पड़ता है जो ग्रीक प्रतीक चिन्ह के अनुसार लिंग पर पुरुष महिला के अधिकार का बताता है , पर कभी उन्होंने इस बात का विरोध किया कि महिला अंगूठी क्यों पहने , यही नही जब भी कोई अंजना पुरुष किसी अंगूठी पहने महिला के पास आता है तो वह अपनी अनामिका अंगूठी दिखा कर बता देती है कि मै इंगेज हूँ और वह आना बचाव करती है पर अगर भारत में औरत सिंदूर लगा रही है तो फर्जी हल्ला हो रहा है , सबसे बड़ी बात यह है कि सिंदूर वास्तव में लेड आक्साइड होता है जो औरत को साम्यता प्रदान करता है और दिमाग  को सुकून  यही नही कोई भी यह नही जानना चाहता कि जो गर्भ धारण किये हुए महला जा रही है उसके पेट में जायज बच्चा है या नाजायज ? कितना ज्यादा सामजिक सुरक्षा को धयान में रखा गया होगा जब औरत के लिए सिंदूर बनाया गया होगा पर हम प्रतीक को दासता कहते है पता नही यह कह कर हम उसे और खिलौना  बनाना चाहते है या फिर उसका गौरव बढ़ाना चाहते है ?????????? लिपस्टिक , मेहँदी , और पैरो में अलता ( जो एड़ी में रंग लगाते है ) यह सब शरीर के वह क्षेत्र है जहा पर तेल ग्रंथिय नही पाई जाती और खिचाव  के कारण वह फट जाती है , जिस से शरीर भद्दा लगने लगता है , इसी को छिपाने  के लिए यह सब लगाते है | भूमंडली कारण के दौर में जब हर तरफ बाजारीकारण चल रहा है तो विदेशी कम्पनी अपनी महंगी क्रीम को बेचने के लिए भारत को बड़ा बाजार पाती है और इसी लिए उन्हें औरत का पैरो में अलता लगाना दासता लगता है जब कि उस रंग में जो तत्व है वह फटी बिवाई में काफी रहत करता है , चुकी पश्चिम वाले नेल पलिस, लिपस्टिक का प्रयोग खूब करते है , इस लिए खी भी इनको न तो प्रतीक चिन्ह कहा गया और न इन्हें दासता कह कर औरत को उकसाया गया और यही से प्रतीक चिन्ह के प्रति असली मकसद समझ लिया जाना चाहिए | बिच्छिया , यह भी सुहाग का एक प्रतीक बन कर उभरा पर कितने लोग यह जानते है कि बिच्छिया को विवाहित महिला को इस लिए पहनाया गया क्योकि इस से गर्भ को जन्म देने के समय स्वाभाविक रूप से योनी में फैलाव आता है और प्रसव में होने वाली समस्या का समाधान  किया जाता है पर हम सबको किसी भी जानकारी के आभाव में बस बुरे करने कि बीमारी हो गई है | चूड़ी , कान में , नाक में कील को पहनने के लिए इस लिए नही कहा गया कि औरत हम सबकी दस दिखाई दे बल्कि इस लिए क्यों कि औरत के बारे में विज्ञानं , और साहित्य दोनों ने माना है कि वह शक्ति का वरण करती है और जो भी उसके इवान में शक्तिवान आएगा वह उसी के प्रति समाप्त हो जाएगी पर इस से समाज में एक विचल आ जाता और औरत कि उस भावना का शमन इन सांस्क्रतिक अभुश्नो को पहना कर किया गया | जिन देशो में यह नही है उन देशो में मूल्यों की कितनी असमानता है और सामाजिक विघटन है , इसको कौन नही जनता और यह एक अनुवांशिक तथ्य है की नर की अपेक्षा मादा हमेशा अपने सौन्दर्य के प्रति संवेदनशील रही है , कोई भी पक्षी ( मोर , कोयल , गौरया , मादा कबूतर )हो या जानवर , ( चिम्पांजी , मकाक , लंगूर , शेरनी , मादा भालू ) सभी में अपने शरीर की सज सज्जा करते पाया गया है और वह अपनी एक सुगंध और भाव से एक समय विशेष पर नर को आकर्षित करते है पर मानव में थोडा अलग है न तो उसका प्रज्नाजं समय निश्चित है और न ही वह पूरी तरह प्राकृतिक अवलंबन पर है और यही कारण है कि प्रणय के उसने जो साधन ढूंढे उसमे औरत का अपने सजाना भी है | अगर औरत को प्रीको को धारण करना स्वयं बुरा या गुलामी कि तरह लगा होता तो अब तक प्रतीकों कि बाजार ही ख़त्म हो गई होती पर प्रतीकों का उद्द्योग हर दिन बड़ा है और यही नही औरत स्वयं सुन्दरता के लिए प्रतीक को अपना आधार मानती है | इन सब से इतर औरत हमेशा से यह देखती आई है कि उसके जीवन में जो है उसक या पसंद है , मैंने कोई औरत आज तक ऐसी नही पाई जो प्रतीक के बिना हो , हमारे साथ एक महिला प्रवक्ता है जिन्हें सिंदूर लगाने पर आपत्ति है पर वह कान , नाक , हाथ , गले के सरे प्रतीक पहनती है टी इसका क्या मतलब निकला कि यह सिर्फ एक विरोध है कि वह पुरुष कि तरह क्यों न रहे . वो भी तो कोई प्रतीक विवाह होने के रूप में धारण नही करता ?? पर इन सब में वह भूल जाती है कि औरत को प्रकृति ने माँ बन्ने का गौरव दिया है और पुरुष को कभी सामाजिक प्रतारणा नही मिलती कि किसका पाप पेट में है या किस के साथ मुह कला किये पर औरत को विवाह जैसे पवित्र कार्य करने के बाद इतने निम्न शब्द न सुनने पड़े तब तो प्रतीक खुद ही अपनी सार्थकता बयां कर देते है और आज के आधुनिक युग में जब कंडोम , प्रेम विवाह के नाम पर शारीरिक सम्बन्ध आदि का प्रचलन बढ़ रहा है तब तो प्रतीक का प्रयोग और किया जाना चाहिए ताकि पुरुष पर नियंत्रण किया जा सके | बिना प्रतीकों के आज आप नायालय में अपने को विवाहित  साबित कर पाए यह मुश्किल है | क्यों कि प्रतीक ही औरत  की सामाजिक स्थिति को बताता है | कानून में प्रतीकों का महत्व है  पर अगर यौन उन्मुक्त समाज बनाना है और औरत को सिर्फ वासना का ही प्रतीक समझना है तो हमें प्रतीक का विरोध करना चाहिए और अगर औरत का सम्मान करना है तो औरत को भी अपने गौरव शाली प्रतीकों के महत्व  को समझना होगा ...डॉ आलोक चान्त्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

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