बाप बड़ा ना भैया सबसे बड़ा रुपैया सोचिए समझिए और समय निकालकर पढ़िए जनता की कीमत क्या है
दिनांक 26 मई 2020 दिन मंगलवार भारत में संपूर्ण लॉक डाउन का 63 वां दिन आज मैं जिस बात को कहने जा रहा हूं वह हम सभी ने बचपन से सुना है कि पैसा महत्वपूर्ण जरूर है लेकिन सब कुछ नहीं और कोरोना वायरस के संक्रमण के समय पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था जिस तरह से ठप्प हुई है उसमें इस मुहावरे को सिद्ध करने और समझने का बेहतरीन मौका है कि बाप बड़ा ना भईया सबसे बड़ा रुपैया यह बात फौरी तौर पर समझनी होगी कि अब वह कहानियां नहीं लिखी जाती है कि एक राहगीर जा रहा था तो उसे रास्ते में फलों से लदे हुए बाग दिखाई दिए या उसे ललहाती हुई फसल दिखाई दी वह किसी गांव में पहुंचा तो उसे दूध दही का अंबार लगा दिखाई दिया उसको अतिथि और भगवान का दर्जा देकर गांव वालों ने स्वागत किया और ऐसा ना होना सिर्फ इस कारण है कि जहां एक तरफ विश्व के बहुत से ऐसे देश हैं जिन्होंने आरंभ से यह समझ लिया कि पैसे का आनंद तभी है जब जनसंख्या उसके अनुपात में ही हो और कुछ देश ऐसे थे जिन्होंने यह समझा कि पैसा की आवश्यक पूर्ति के लिए जनसंख्या को ही बढ़ाना आवश्यक है और जिन देशों ने जनसंख्या को पैसे से बड़ा करके नहीं देखा वह विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़े हो गए और जिनके लिए पैसा कमाने के लिए जनसंख्या का बड़ा होना जरूरी था वह देश विकासशील और अविकसित देशों की श्रेणी में खड़े हो गए ऐसे में बहुत से लोग कह सकते हैं कि चीन इसका अपवाद है लेकिन सच यह है कि सिर्फ विश्व स्तर पर आर्थिकी की मजबूती से ही हम चीन के लोगों की संपन्नता को आंक रहे उसकी स्थिति भी जनता के स्तर पर वही है जो भारत जैसे देशों की है यही कारण है कि अपनी आर्थिकी को संभालने के लिए आज वह विवादों के घेरे में है और इसी पैसे की आवश्यकता के कारण जहां विश्व के विकसित देशों में जनसंख्या को महत्व न देते हुए अपनी आर्थिकी को चलाए रखने का निर्णय लिया जिसमें अमेरिका प्रमुख है वहीं भारत जैसे देश में आरंभ के स्तर पर विकसित देशों की तरह ही लॉक डाउन को लागू करके जनसंख्या को पहले महत्व तो दिया लेकिन बाद में पैसे और जनसंख्या की आवश्यकता के बीच बढ़ते गंभीर संकट को देखकर उसी जनसंख्या के सहारे अपनी आर्थिकी को मजबूत करने के लिए विश्व के सभी देश कमोबेश बाजारी व्यवस्था में वापस लौटने लगे और इसका असर भारत जैसे देश में भी दिखाई दिया जहां पर एक तरफ विभिन्न प्रांतों के कामगारों को हर राज्य अपने यहां वापस बुलाने के लिए इसलिए तत्पर दिखाई दिया क्योंकि पैसे के समाजशास्त्र में स्पष्ट हो गया कि आज विदेशी कंपनियों को सस्ता श्रमिक उपलब्ध होने पर ही वह अपनी आर्थिक योजनाएं किसी राज्य विशेष में लाने को इच्छुक होते हैं और इसीलिए आर्थिकी आधारित दयालुता कल्याणकारी योजनाएं चलाकर हर प्रदेश अपने यहां श्रमिकों को वापस लाने के लिए जी तोड़ मेहनत करने लगा है लेकिन इन सब के बीच एक जो सबसे बड़ा सच अपनी क्रूरता के साथ हमारे सामने आया वह यह था कि आर्थिकी से बड़ा व्यक्ति का जीवन नहीं रह गया राष्ट्र और राज्य जैसा कि मैंने अपने पूर्व के भी लेखो में कहा है कि राज्य अपने अस्तित्व अपने स्थायित्व को अपेक्षाकृत जनता से ज्यादा महत्व देते हुए दिखाई दे रहे और इस महत्व को स्थापित करने के लिए उन्हें जिन लोगों की नीव के पत्थर की तरह आवश्यकता है वह वही जनता है जिसके श्रम से एक राज्य एक देश एक सत्ता अपनी मजबूती अपनी स्थायित्व को सुनिश्चित कर सकती है और इसके लिए ही जनता को बिना किसी वैक्सीन दवा की खोज हुए पुनः सामान्य जीवन को जीने की तरफ प्रेरित किए जाने का प्रयास आरंभ हो चुका है शॉपिंग कॉम्प्लेक्स खोले जाने लगे हैं एरोप्लेन से सफर पुनः शुरू हो चुका है बाज़ार निर्धारित समय पर खुलने लगी हैं परिवहन विभाग भी अपनी बस चलाने जा रहा है ऑफिस खुलने लगे हैं लोग अपनी कार से कहीं भी जा सकते हैं बस सरकारी दायित्वों में यह बात जरूर सामने आई कि सरकार ने कानून को महत्व देकर लोगों के सामने यह तथ्य रखने का प्रयास किया कि यदि उनके द्वारा लापरवाही की गई और अपने प्राणों से ज्यादा दूसरे प्राणों को हानि पहुंचाई गई तो भारतीय दंड संहिता की धारा 188 , 269 और 270 के अंतर्गत कार्यवाही की जाएगी और यह कार्यवाही किया जाना ठीक उसी तरह से है जैसे सामान्य स्थिति में तंबाकू उद्योग के जानलेवा स्थितियों को जानने के बाद भी सिर्फ राजस्व के कारण तंबाकू और उससे संबंधित उत्पादों को कोई भी देश रोकने में असमर्थ है हां राज्य अपनी भूमिका और कर्तव्य में सिर्फ तंबाकू उत्पादों पर यह लिखने के प्रयास में जुट गया है कि तंबाकू के उत्पादों का प्रयोग करना जानलेवा है अब इसके बाद यह उस व्यक्ति पर है कि वह अपनी जान देना चाहता है कि नहीं यही स्थिति कमोबेश शराब के उद्योग में भी देखी जा सकती है जिसमें भी सारी विपरीत परिस्थितियों का ज्ञान देने के बाद यह जनता पर छोड़ दिया गया है कि वह शराब पीना चाहता है कि नहीं और यही दर्शन आज कोरोना संक्रमण के समय भी विश्व के सारे देशों के द्वारा जनता के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है कि अब यह उसके ऊपर है कि वह जीवित रहना चाहता है कि नहीं कोरोना की सारी स्थितियां स्पष्ट कर दी गई है मास्क लगाना कितना जरूरी है हर व्यक्ति से 2 गज की दूरी पर बात करना कितना जरूरी है ज्यादातर बिना आवश्यकता के बाहर निकलना कितना जरूरी है यह सारी बातें और मानक बताने के बाद सरकार ने यह जनता की सुरक्षा और इच्छा पर छोड़ दिया है कि वह जीवित रहना चाहते हैं हम मरना चाहते हैं क्योंकि कोई भी सरकार या सत्ता एक अंतहीन समय तक ना तो अपनी आर्थिकी को रोक सकती है ना प्रगति को बाधित कर सकती है क्योंकि कोई भी देश आज मुख्य रूप से प्राकृतिक संपदा ऊपर ही नहीं चल रहा बल्कि उसके व्युत्पन्न उत्पादों पर भी चल रहा है और यह उत्पाद सिर्फ और सिर्फ धन के माध्यम से फैक्ट्रियों में पैदा हो सकते हैं, बनाए जा सकते हैं और उन फैक्ट्रियों के लिए श्रमिक चाहिए, कुशल लोग चाहिए जो तभी आ सकते हैं जब इस आपदा के सारे विपरीत परिस्थितियों के ज्ञान के साथ-साथ जनता को फिर से सड़कों पर उतार दिया जाए और यही आधुनिकता के दौर में उत्तर आधुनिकता का एक सुंदर उदाहरण है जिसमें आधुनिकता को जानने के बाद और उसकी आवश्यकता को समझने के बाद भी व्यक्ति को अपने जीवन के लिए स्वयं सोचना है अपनी रक्षा स्वयं करनी है क्योंकि कहा भी गया है अपने हाथ जगन्नाथ और हमारे देश में तो जी है तो जहान है का नारा शुरू से दिया जा रहा है अब इस दर्शन के साथ आदमी को जीने की आदत डालनी है और आज लॉक डाउन के 63 वें दिन यही सच सामने आ रहा है यदि आपको जीना है तो सोचना आपको है सरकार को जो कार्य करना है वह अपनी जनता को जिंदा रखने के लिए मजबूत आर्थिकी को सुनिश्चित करना है जिसको करने के लिए वह आगे बढ़ चुकी है आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन
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