Tuesday 9 May 2023

मां का अर्थ या फिर तदर्थ

  मां सिर्फ एक दर्शन नहीं है .......


10 मई 1857 को जब भारत में अपने को स्वतंत्र कराने के लिए पहली बार भारतीयों की ललकार अंग्रेजों के सामने उठी थी तब लगा ऐसा ही था की मां ही हम लोगों के लिए सर्वोच्च है पर 163 साल बाद मां का जो स्वरूप इस समय हमारे सामने है वह अत्यंत पीड़ादायक है शांति और भाईचारे की तलाश में जिस तरह से मां शब्द दोयम दर्जे पर खड़ा हो गया और हमने अपनी खुशी और शांति के लिए मां जैसे शब्द में भी एक विभाजन रेखा खींच ली उससे जो दृष्टिकोण सामने आया उसने मां को व्यवहारिकता से ज्यादा दार्शनिक दृष्टिकोण ज्यादा प्रदान किया और यही कारण है कि आज 10 मई 1857 की 166 वी जयंती दुनिया के उस महत्वपूर्ण दिन पर आकर खड़ी हुई है जिसे मातृ दिवस कहकर ना सिर्फ स्थापित किया गया है बल्कि मां के स्वरूप का महिमामंडन करने के लिए भी हर तरफ एक अनुनाद और नाद गूंजता दिखाई दे रहा है विभाजन की यह परंपरा और अपनी खुशी शांति के लिए जीने का प्रयास सिर्फ मातृभूमि तक अमूर्त रूप से ही सीमित नहीं रह गया कालांतर में मां के विभाजन का स्वरूप हाड मास में लिपटी हुई उन मांओं के जीवन में भी देखने को मिलने लगा जिन्होंने नौ महीने का अंत ही दर्द उलझन पीड़ा सहते हुए एक नौनिहाल को जन्म दिया शाब्दिक और क्षणिक स्तर पर किसी को भी शुभकामना देना एक अत्यंत आसान सा कार्य है लेकिन उन कहे गए शब्दों में शब्द को ब्रह्म समझकर उसकी गहराई में डूब कर उस शब्द को जीना वास्तव में मानव द्वारा बनाई गई संस्कृति का सच्चा परिणाम है लेकिन आज संस्कृति के वाहे स्वरूपों के प्रतीक के रूप में ज्यादातर शब्द सिर्फ बाहरी आकार के माध्यम से एक व्यक्ति को चिन्हित करने के लिए ज्यादा प्रयुक्त हो रहे हैं जिससे मां जैसा शब्द भी अछूता नहीं रह गया है जिस भी घर में कोई लड़की किसी पुरुष की जीवनसंगिनी बन कर जब चौखट पार करके चारदीवारी यों के बीच अपने संसार को एक आयाम देने के लिए गृह लक्ष्मी के स्वरूप में प्रतिष्ठित हुई होगी तो कालांतर में किलकारी के शब्दों के साथ मां जैसे शब्द का स्वरूप भी उभरा होगा लेकिन जिस पुरुष के अस्तित्व का प्रतीक अपनी मांग में पिरो कर एक महिला मां बनी यदि वहीं पुरुष कालांतर में दिवंगत हो गया तो एक विधवा के स्वरूप से ज्यादा कभी भी एक घर में उसी महिला को मां का वहा स्वरूप नहीं मिल पाया जो लक्ष्मी सरस्वती और दुर्गा जी के माध्यम से उसमें देखा गया था और यह परंपरा भी बहुत लंबे समय तक चली आज भी यदि पति दिवंगत हो गया है और किसी ऐसी नौकरी में नहीं है जिसमें पेंशन मिल सके तो उस मां के सामने मन से बड़ा कोई विकल्प ही शेष नहीं होता है बोली और बोली के आधार पर प्रतीकों के माध्यम से बनी भाषा ना जाने कहां खो जाती है मां को अपने बच्चों के बीच विभाजित होना पड़ता है इस रेखांकन को लेकर जीना होता है कि उसके लिए कौन सा बच्चा कितना कर रहा है यही नहीं मां उनकी इच्छा और उनकी परिस्थितियों पर ज्यादा निर्भर होती है वह अपनी इच्छाओं को आरोपित नहीं कर सकती है जब किया वही मां है जिसने जब अपने गर्भ से जन्म दिया है तो किसी को पति मिला है और किसी को पत्नी मिलने का रास्ता सुगम हुआ है या वही मां है जिसने जब विभाजित रेखाओं से आच्छादित देश में अपने गर्भ के शिशुओं को समर्पित किया है तो देश की सीमाएं सुरक्षित हुई यह वही मां है जिसने गर्भ के अंधकार में जो शिक्षा अभिमन्यु की तरह अपने बच्चों को दिया है उन शिक्षाओं के ही प्रकाश में कोई कवि बना है कोई लेखक बना है कोई वैज्ञानिक बना है तो कोई डॉक्टर बना है लेकिन दर्शन के इस पहलू को कभी भी वास्तविकता के धरातल पर और अपनी परिस्थितियों को ज्यादा बड़ा करके देखने वाले मानव ने मां के संदर्भ में महसूस करने का काम अत्यंत ही सीमित कर लिया है जिसके कारण मां शब्द एक प्रतीक के रूप में ज्यादा दिखाई देने लगा है और उस मां को जिसने 9 महीने अर्थात 270 से 280 दिन का समय किसी के भी जन्म के लिए दिया है उतना समय संपूर्णता में कोई भी अपनी मां को देने के लिए तत्पर नहीं है क्योंकि आधुनिकता स्वयं की जीने की व्यवस्था आर्थिक बोझ जनसंख्या का बोझ और अपने भी बच्चों को जिंदा रखने के प्रयास में ज्यादातर लोगों के लिए मां अपने ही घर में किसी कोने में किसी कमरे में सिर्फ एक बिस्तर तक केंद्रित हो जाने वाली हाड मांस  की वह इकाई हो गई है जिसके जीवन में सारी सुख सुविधा इच्छा को मारने का विकल्प ही इसलिए शेष है क्योंकि यदि वहां अपने अंदर गरिमा पूर्ण और महिमा पूर्ण मानव का आकलन कर लेगी तो ज्यादातर घरों से यह भी आवाज आने लगी है कि आपको इस उम्र में यह बात शोभा नहीं देती बार-बार खाने की इच्छा प्रकट करना अच्छा नहीं है और इसीलिए इस विवाद में फंसने के बजाय इस लेख में जो कहा जा रहा है वह सही नहीं है इस आत्ममंथन और चिंतन की आवश्यकता है कि आप अपने भीतर यह महसूस करें कि क्या आप वास्तविकता में मां जैसे शब्द को समय स्नेह समर्पण और अपने द्वारा अर्जित की गई भूमिका प्रस्थिति को समर्पित करने की ताकत रखते हैं लेकिन आज भी इतनी विषम परिस्थितियों में आंखों की रोशनी कम हो जाने वाली एक बूढ़ी मां अपने बच्चों को भूखा देखकर खाना बनाने के लिए उठना चाहती है किसी तरह अपने अत्यंत कठिन समय में कुछ रुपयों को संजो कर रखने वाली वही बूढ़ी मां अपने सारे सुख और आराम से जीने वाले बच्चों को जब आर्थिक रूप से मजबूर महसूस करती है तो वह अपनी उस धोती की गांठ को खोलना चाहती है और उसमें से उन मुड़े तोड़े नोट को अपने उन्हें बच्चों को दे देना चाहती है जो उसे परेशान महसूस हो रहा है लेकिन क्या मां के इस स्वरूप को आत्मसात करके हम वास्तव में मां के लिए भी अपनी गांठे खुल पा रहे हैं सोचना है समझना है उसके बाद मां के नाम को देवी देवताओं से जोड़ने के बजाय देश से संदर्भित करने के बजाए उसहर्ड मास की इकाई को समर्पित करना है जिसने दुनिया में वह सारी सुख और स्थितियां हमारे सामने तब आने दिया है जब उसने 9 महीना हमको अपने पेट में रखा है इसीलिए मां या मातृ दिवस की शुभकामना देकर और बड़े-बड़े शब्दों को लिखकर सिर्फ मां के प्रति अपने कर्तव्यों से अपने को दूर मत करिए मंदिर में की जाने वाली पूजा हो या मस्जिद में की जाने वाली नमाज हो उतना समय अपनी मां के साथ बिल्कुल निर्मल हृदय से सेवा भाव को समाहित करके यदि हम देने का संकल्प ले ले तो शायद एक बार फिर हर मां को वृद्ध आश्रम जाने की आवश्यकता नहीं होगी एकांत में रहने से छुटकारा मिल जाएगा अपनी सारी इच्छाओं को दमन करके चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहने का अंतहीन सिलसिला समाप्त हो जाएगा क्योंकि अब मां को यह गर्व हो रहा होगा कि उसने इस दुनिया में आकर अपने गर्भ जिन लोगों को दुनिया में नवाजा है वह उसे वास्तव में किसी देवी से कम नहीं समझते हैं और यही वह क्षण होगा जब मां महान शक्ति स्वरूपा के रूप में परम सत्ता पर विराजमान हो सके और यही किसी भी संस्कृति और मानवता का सबसे सुखद और सफल क्षण होगा पूरी दुनिया की सभी महिलाओं के अंदर पाए जाने वाले अनुवांशिक पदार्थ डीएनए 99% तक समान है जिससे आनुवंशिक सिद्धांतों के अनुसार पूरी दुनिया के सारे मानव एक ही मां से उत्पन्न  है इसलिए किसी भी जाति धर्म लिंग रंग रूप जाती प्रजाति से इधर अखिल भारतीय अधिकार संगठन इस एक दिन में समाहित मां के स्वरूप वाले मातृ दिवस पर विश्व की सभी मांओं के आगे सर झुकाता है जिनके कारण मानव अस्तित्व का एक अंतहीन सिलसिला चला है और चलता रहेगा आपको नमन आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

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