Sunday, 4 June 2023

हिंदू और हिन्दू धर्म के लोगो की जागरूकता : एक अवलोकन

 


 हिंदू और हिन्दू धर्म के लोगो की जागरूकता : एक अवलोकन 


विश्व में संभवतः भारत एक ऐसा देश है जिसने अपनी मूल संस्कृति के अलावा भी अनेको संस्कृतियों को अपने यहाँ समाहित किया है पर इसका प्रभाव भी मूल संस्कृति पर पड़ा है | भारत में मंदिर की स्थापना कब से हुई ये एक विवाद का विषय हो सकता है पर सिकंदर( ३२३ इसवी पूर्व ) के आक्रमण के बाद से भारत में मंदिर दिखाई देने लगे | मंदिर को उपासना का केंद्र मान कर स्थापित किया जाता रहा और धीरे धीरे धर्म की सबसे महत्वपूर्ण इकाई के रूप में भारत में मंदिरों का प्रसार होता चल गया | सनातन तो बाद में फारसी की त्रुटि (स को ह और च को स कहने की परम्परा ) के करण हिन्दू कहलाने लगा | अपनी श्रद्धा को भगवान् के समक्ष रखने में अपनी सम्पत्ति का कुछ हिस्सा जिसमे जमीन , सोना, चांदी और धन था , को भगवान् को समर्पित करने लगा और यही समर्पित धन मंदिर के भगवान् का होने के कारण धीरे धीरे एक अपार सम्पत्ति के रूप में इकठ्ठा होने लगी और इसने भी विदेशी अक्रान्ताओ को भारत में आने के लिए प्रेरित किया जिसमे महमूद गजनवी के १७ बार आक्रमण और सोम नाथ मंदिर की लूट प्रमुख है| इतिहास भरा पड़ा है कि भारत में अनगिनत मंदिर तोड़े गए और लूटे गए और ये सिलसिला भारत की स्वतंत्रता तक चलता रहा | १९९१ की जनगणना के अनुसार भारत में २३९५००० मंदिर थे जिनमे से हजारो में अकूत पैसा था | 8वीं शताब्दी में त्रावणकोर के राजाओं ने पद्मनाम मंदिर को बनाया था| सबसे अहम बात ये है कि इसका ज़िक्र 9वीं शताब्दी के ग्रंथों में भी आता है| 1750 में महाराज मार्तंड वर्मा ने खुद को 'पद्मनाभ दास' बताया, जिसका मतलब 'प्रभु का दास' होता है| इसके बाद शाही परिवार ने खुद को भगवान पद्मनाभ को समर्पित कर दिया| इस वजह से त्रावणकोर के राजाओं ने अपनी दौलत पद्मनाभ मंदिर को सौंप दिया| केरल के तिरुवनन्तपुरम में स्थित पद्मनाभस्वामी मंदिर काफ़ी प्रसिद्ध है| यह मंदिर पूरी तरह से भगवान विष्णु को समर्पित है| यह भारत के प्रमुख वैष्णव मंदिरों में से एक है| देश-विदेश के कई श्रद्धालु इस मंदिर में आते हैं| इस मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की विशाल मूर्ति विराजमान है, शेषनाग पर शयन मुद्रा में भगवान विराजमान है | यह मंदिर काफ़ी रहस्यों से भरा है| यह विश्व का सबसे अमीर मंदिर है| इस मंदिर में करीब 1,32,000 करोड़ की मूल्यवान संपत्ति है, जो स्विटज़रलैंड की संपत्ति के बराबर है| ऐसे ही मंदिरों से भरा पड़ा है भारत देश | स्वतंत्रता के बाद सबसे पहले सरकार ने जो काम किया वो था देश के मंदिरों के लिए मिलने वाले धन के लिए कानून बनाना | और इसी लिए आज ये जानना जरुरी है कि इस कानून से देश के मंदिरों और और उनको मानने वालो को कितना फायदा हुआ |


 1 9 51 का धार्मिक और चैरिटेबल एंडोवमेंट अधिनियम-


राज्य सरकारों और राजनेताओं को हजारों हिंदू मंदिरों को अपने अधिकार में लेने और उन्हें और उनके गुणों पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखने की अनुमति देता है। दावा किया जाता है कि वे मंदिर की संपत्तियों और परि संपत्तियों को बेच सकते हैं और किसी भी तरह से पैसे का उपयोग कर सकते हैं। किसी भी मंदिर प्राधिकरण द्वारा एक भी आरोप नहीं इस कानून पर लगाया गया है और न ही किसी हिन्दू समूह और व्यक्ति ने इस तरफ गंभीरता से कार्य किया है कि देश में जब मंदिर सिर्फ और सिर्फ हिन्दू से ही संदर्भित किये जाते है और संविधान का अनुच्छेद १४ समनाता का अधिकार देता है तो जैसे अन्य धार्मिक स्थानों को सरकार सारी सुविधाए और अनुदान दे रही है वैसे ही मंदिरों के लिए भी होना चाहिए और ये तथ्य भी सोचा जाना चाहिए कि क्या भारत में आज भी सम्पूर्ण देश की जनता का भरण पोषण या कोई अन्य विकास का कार्य मंदिर की संपदा ही कर रही है और यदि किसी भी प्रतिशत में ऐसा है तो उसके लिए एक खुली स्वीकारोक्ति होनी चाहिए| क्योकि देश के लोग जानते ही नहीं है कि देश में मंदिरों का पैसा कहाँ है और किसी काम में लगाया जा रहा है | भारत में धार्मिक उन्माद को लेकर कोई भी व्यक्ति खुल का बोलने से कतराता है और इसी लिए अमेरिका के एक व्यक्ति ने पहले देश के मंदिरों का अध्ययन किया और फिर वह लौट कर जाने के बाद भारत के इस अनोखे कानून के बारे में लिखता है जिसके तथ्य शोध और विमर्श का विषय हो सकते है | एक विदेशी लेखक स्टीफन नैप ने एक पुस्तक (अपराध के खिलाफ भारत और प्राचीन वैदिक परंपरा की रक्षा करने की आवश्यकता) संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रकाशित किया है जो आज देश के सामने उनकी भाषा हिंदी में रखी जानी चाहिए ताकि देश का सामान्य जनमानस इससे परिचित हो सके|


 सदियों से सैकड़ों मंदिरों को भक्त शासकों द्वारा भारत में बनाया गया है और भक्तों द्वारा दिए गए दान (अन्य) लोगों के लाभ के लिए उपयोग किए गए हैं। यदि वर्तमान में, एकत्रित धन का दुरुपयोग किया गया है (और उस शब्द को परिभाषित करने की आवश्यकता है क्योकि ये पैसे के दुरूपयोग को ज्यादा परिभाषित करता है क्योकि मंदिर का पैसा सिर्फ मंदिर और हिन्दू के लिए प्रयोग किया जा रहा हो ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है ऐसे में हिन्दू के अर्थ में ये सिर्फ दुरूपयोग ही है ), भक्तों के विरोध में है | इस अधिनियम के प्रभाव के बारे में कुछ उदहारण से ज्यादा स्पष्टता लायी जा सकती है |


उदाहरण के लिए, ऐसा लगता है कि एक मंदिर सशक्तिकरण अधिनियम के तहत आंध्र प्रदेश में लगभग 43,000 मंदिर सरकारी नियंत्रण में आये हैं और इन मंदिरों के राजस्व का केवल 18 प्रतिशत मंदिर प्रयोजनों के लिए वापस कर दिया गया है, शेष 82 प्रतिशत सरकार अपने प्रोजेक्ट एवं अन्य कार्य के लिए प्रयोग कर रही है |


जिस तिरुमाला की यात्रा के लिए एक हिन्दू हर परेशानी सहन कर के दर्शन के लिए पहुँचता है वो भी इस अधिनियम से अछूता नहीं है | विश्व प्रसिद्ध तिरुमाला तिरुपति मंदिर भी इस अधिनियम के आगे विवश है। नेप के अनुसार, मंदिर हर साल 3,100 करोड़ रुपये से अधिक एकत्र करता है और राज्य सरकार ने इस आरोप से इनकार नहीं किया है कि इनमें से 85 प्रतिशत राज्य निकाय में स्थानांतरित कर दिया गया है, जिसमे से ज्यादातर धन का उपयोग उन कार्यो के लिए किया जाता है जो हिन्दू या हिंदी धर्म से बिलकुल सम्बंधित नहीं है |


सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भारत में भक्त इसी लिए चढवा चढाते है कि सरकार उसका सबसे बाद स्वयं वह चढ़वा हासिल करके अपने अनुसार प्रयोग कर सके | क्या यही कारण है कि भक्त मंदिरों को अपनी भेंट करते हैं?


यदि एक अन्य प्रकरण में हम कर्णाटक के मंदिरों की स्थिति का मूल्याँकन करे तो ऐसा लगता है कि कर्नाटक में, लगभग दो लाख मंदिरों से 79 करोड़ रुपये एकत्र किए गए थे और उससे, मंदिरों को उनके रखरखाव के लिए सात करोड़ रुपये मिले, यहाँ ये भी विचारणीय है कि भारत में सभी धर्मो से इतर एक धर्म निरपेक्ष व्यवस्था है और सरकार दूसरे धर्मो की सहायता करने में लगी है |मुस्लिम मदरसा और हज सब्सिडी को 59 करोड़ रुपये और चर्चों को 13 करोड़ रुपये दिए गए। इस अर्थ में सरकार का बहुत उदार प्रतीत होती है पर क्या हिन्दू मंदिर के पैसे को कभी हिन्दुओ के उत्थान के लिए भी होना चाहिए यही एक विमर्श का विषय है |


इस तरह के कार्य से क्या होगा इस पर इस वजह से, नैप लिखते हैं, दो लाख मंदिरों में से 25 प्रतिशत या कर्नाटक में लगभग 50,000 मंदिर संसाधनों की कमी के लिए बंद हो जाएंगे, और उन्होंने आगे कहा: सरकार ऐसा इस लिए कर पा रही है क्योकि भारत से देश में मंदिर के भक्त अपने ही धन के लिए खड़े ही नहीं होना चाहते है और इसी कारण इस अधिनियम को बेरोक टोक जारी रखा गया है |


विविधता वाले देश भारत में धन धान्य से परिपूर्ण मंदिर संभवतः दक्षिण भारत में ही ज्यादा है इसी लिए नेप केरल को संदर्भित करता है, जहां वह कहते हैं, कि गुरुवायूर मंदिर से धन से 45 हिंदू मंदिरों में सुधार से इनकार करके उस मंदिर के पैसे को अन्य सरकारी परियोजनाओं में बदल दिया जाता है। अयप्पा मंदिर से संबंधित भूमि पर चर्च ने धीरे धीरे अपने पैर पसारने शुरू कर दिए है और चर्च के अतिक्रमण को शबरीमला के पास हजारों एकड़ में चलने वाले वन भूमि के विशाल क्षेत्रों पर आसानी से देखा जा सकता है पर केरल की सरकार की सोच हिंदूवादी न होने के कारण मंदिर संक्रमण के काल से गुजर रहे है हैं।|


आरोप लगाया जाता है कि केरल की कम्युनिस्ट राज्य सरकार त्रावणकोर और कोचीन स्वायत्त देवस्ववम बोर्ड (टीसीडीबी) को तोड़ने और 1,800 हिंदू मंदिरों के सीमित स्वतंत्र प्राधिकरण को लेने के लिए एक अध्यादेश पारित करना चाहता है। यदि लेखक जो कहता है वह सच है, यहां तक कि महाराष्ट्र सरकार राज्य में करीब 450,000 मंदिर लेना चाहती है जो राज्यों को दिवालिया परिस्थितियों को सही करने के लिए भारी मात्रा में राजस्व प्रदान करेगी।


उपरिलिखित तथ्यों से इतर नेप कहते हैं कि उड़ीसा में, राज्य सरकार जगन्नाथ मंदिर से 70,000 एकड़ की एंडॉवमेंट भूमि बेचने का इरादा रखती है, जिसकी आय मंदिर संपत्तियों के अपने स्वयं के प्रबंधन के द्वारा लाई गई एक बड़ी वित्तीय संकट को हल करेगी।


नेप कहते हैं: ऐसी घटनाएं इतनी लगातार होती रहती है कि यदि दूसरे किसी भी धर्म का की व्यक्ति उसके धार्मिक स्थान को कोई भी क्षति हो जाए तो सेकंड में पूरा विश्व जान लेता है कि भारत में क्या हो रहा है और भारत में तथाकथित लोगो का सांस लेना मुश्किल हो जाता है पर हिन्दुओ के ही मूल देश भारत में चुपचाप हिदुओं के साथ क्या हो रहा है ये कोई जान ही नहीं पाता है और ऐसा इस लिए होता है क्योकि भारतीय मीडिया, विशेष रूप से अंग्रेजी टेलीविजन और प्रेस अक्सर उनके दृष्टिकोण हिंदू विरोधी होते हैं, और इस प्रकार, वो ऐसी हिन्दू खबरों को अधिक कवरेज देने के इच्छुक नहीं हैं, और निश्चित रूप से कोई सहानुभूति नहीं है कुछ भी जो हिंदू समुदाय को प्रभावित कर सकता है। इसलिए, हिंदू समुदाय के की ही भावना के विरुद्ध काम करने वाली सरकार के कार्यो के प्रति किसी का ध्यान ही आकर्षित नहीं हो पाता है |


नेप स्पष्ट रूप से रिकॉर्ड पर है। यदि उनके द्वारा उत्पादित तथ्य गलत हैं, तो सरकार उसका कार्यवाही कर सकती है|यह काफी संभव है कि कुछ व्यक्तियों ने आकर्षक कमाई से निपटने के लिए मंदिर स्थापित किए हों। लेकिन, निश्चित रूप से, सरकारों का कोई भी व्यवसाय नहीं है? , सरकार निश्चित रूप से मंदिर समितियों को देखने के लिए स्थानीय समितियों की नियुक्ति कर सकती है ताकि मंदिरों के धन को जनता के लिए काफी अच्छी तरह से उपयोग की जा सके?


नैप कहते हैं: कहीं भी स्वतंत्र, लोकतांत्रिक दुनिया में धार्मिक संस्थानों का प्रबंधन, गठबंधन और सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता है, इस प्रकार देश के लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता को अस्वीकार कर दिया जाता है।और भारत में ऐसा किया जाना निश्चित ही एक आश्चर्य जनक तथ्य है |


लेकिन यह भारत में हो रहा है।सरकारी अधिकारियों ने हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण लिया है क्योंकि वे उनमें धन पाते है , वे हिंदुओं की उदासीनता को पहचानते हैं, वे असीमित धैर्य और हिंदुओं की सहिष्णुता से अवगत हैं, वे(सरकार) यह भी जानते हैं कि हिन्दू ज्यादातर अपने कामो में ही व्यस्त रहते है उनके पास आन्दोलन , सड़कों को प्रदर्शित करने, संपत्ति को नष्ट करने, धमकी देने, लूट, नुकसान और / या मारने के लिए कोई समय नहीं होता है वो शांतिपूर्वक भी कोई प्रदर्शन करने में कम ही विश्वास रखते है |


नेप एक बात बहुत ही अच्छी कहते है कि ज्यादातर हिन्दू चुचाप बैठ का अपनी संस्कृति को मरता हुआ देख रहे है ।जबकि उन्हें अपने विचारों को ज़ोरदार और स्पष्ट व्यक्त करने की आवश्यकता है। 


नेप स्वयं नहीं जानते कि उनको ( हिन्दू ) को ऐसा करना चाहिए कि नहीं पर यदि वो ऐसा करते है तो , वे कम्युनिस्टों के रूप में शापित हो जायेंगे ( ये महत्वपूर्ण है कि नेप कम्युनिस्ट को विरोध करने वाले एक योधा मनाता है पर हिन्दू के लिए ऐसी धारणा वो नहीं रखता है )। लेकिन, ऐसा समय आ गया है है जब सभी तथ्यों पर काम करने के लिए कहा जाए ताकि जनता जान सके कि उसके पीछे क्या हो रहा है। 


नेप का मानना है कि पीटर( हिन्दू) को लूट कर पॉल( अन्य धर्म के लोग ) को भुगतान करना धर्मनिरपेक्षता नहीं है। और किसी भी नाम के तहत मंदिर लूटपाट के लिए नहीं हैं। और ऐसा करने वाला गाज़ी काफी लम्बे समय पहले मर चुका है|


आज इस लेख को आपके लिए हिंदी में अपनी भाषा में लिखने का सिर्फ एक ही मतलब है कि इस देश में जो भी विधि है विधान है उसके लिए जागृत होना जरुरी है| सोशल मीडिया पर सिर्फ राजनीति के दृष्टिकोण से सब देखने से अपना ही धर्म ही प्रभावित हो सकता है और किसी भी धर्म के लोगो को अपनी बात रखने उसके लिए शांति पूर्वक समूह बनाने के लिए भारतीय संविधान ही अधिकृत करता है और ये हमारा मूल अधिकार है | कितने आश्चर्य की बात है कि एक विदेशी नेप भारत आकर भारत के मूल धर्म हिन्दू और उसके धार्मिक स्थान मंदिरों के पीछे के तथ्यों को समझ गया पर हम सिर्फ आपमें लड़ते हुए आज भी धर्म से ज्यादा व्यक्तिगत सोचा सुख उन्नति के लिए जी रहे है पर इन सब में धर्म और संस्कृति किस विनाश की तरफ बढ़ रही है उसके लिए सोचते ही नहीं है | नेप ही नहीं मैं भी सरकार से प्रार्थना करता हूँ कि यदि नेप की बाते गलत है तो उसका खंडन किया जाए और यदि सही है तो उसकी इन बातो को गंभीरता से लेते हुए देश के हिन्दू धर्म के मानने वालो को एक पारदर्शी व्यवस्था के अंतर्गत बताया जाये कि हमारे धन जो मंदिरों में चढ़ाये उसका उसी धर्म के उत्थान के लिए कितना उपयोग किया जाता है उस धर्म के गरीब लोगो के लिए उसका क्या उपयोग होता है शिक्षा के लिए क्या उपयोग होता है और जो मंदिर उपेक्षित पड़े है उनके निर्माण में इस अधिनियम के अंतर्गत जो पैसा मिलता है, क्या उपयोग होता है | क्योकि देश के हर हिन्दू को भी संविधान के अनुच्छेद २१ के अंतर्गत गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है और हमको इसको समझना होगा |


डॉ आलोक चान्टिया, अखिल भारतीय अधिकार संगठन

विश्व पर्यावरण दिवस :इसके होने का सच


 विश्व पर्यावरण दिवस :इसके होने का सच 

डॉ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन 

      जिस देश में जल देवता की पूजा होती रही है, वायु देवता है और यही नहीं पृथ्वी को मां का दर्जा प्राप्त है उस देश में यदि वायु, जल, और  पृथ्वी सभी का क्षरण हो रहा है और उसके कारण लोगों के जीवन अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया है तो एक बात तो स्पष्ट है कि लोग स्वयं अपने देश के मूल धर्म और संस्कृति से बहुत दूर चले गए हैं या फिर मूल धर्म और संस्कृति के बीच में ऐसे बहुत से लोग आ गए हैं जो उस संस्कृति के इन बातों को मानने के लिए तैयार नहीं है कि  वायु को देवता मानकर उनका सम्मान किया जाना चाहिए|  पृथ्वी को मां मानकर उनके लिए जीना चाहिए और जल को देवता मानकर ही उसका उपयोग किया जाना चाहिए|   इसीलिए जागरण या जागरूकता जैसे शब्द की उपादेयता से इनकार नहीं किया जा सकता है जिसे भारत सहित पूरे विश्व में जब महसूस किया गया तो 5 जून 1974 से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विश्व पर्यावरण दिवस के माध्यम से लोगों को संवेदनशील करने जागरूक करने का प्रयास किया जाना ही इस दिवस का मूल उद्देश्य है| 

    वैसे तो संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण के चलाए जाने वाले ब्लॉग पर विश्व में मनाए जाने वाले विभिन्न दिवसों  की प्रासंगिकता पर प्रश्न पूछे गए हैं और उसके जवाब में भी यह बताया गया है कि आज की दौड़ती भागती जिंदगी में जब लोग जीवन के अर्थ  में उन तत्वों को भूल रहे हैं जिसके कारण ही वास्तविक अस्तित्व है तो उसकी आवश्यकता को बताने के लिए और जागरूकता फैलाने के लिए ही विश्व में अनेकों दिवस मनाए जाने का प्रचलन बढ़ा है ताकि उस विशेष दिन लोगों को उस तत्व के प्रति संवेदनशील बनाया जाए और यह अपेक्षा की जाए कि वह आने वाले समय में पूरे वर्ष उस एक  दिन के सापेक्ष कार्य करेंगे और उस क्षरण को रोकेंगे जिससे उनके अस्तित्व को भी खतरा उत्पन्न हो गया है| 

      वर्ष 2021 में विश्व पर्यावरण दिवस की थीम पुनर्कल्पना, पुनरुद्भव  और पुनर्स्थापन  रखा गया है और इस बार विश्व में पाकिस्तान वह देश है जो 2021 के पर्यावरण दिवस की अगुवाई कर रहा है|  हर वर्ष किसी एक देश को चुना जाता है जो पर्यावरण जागरूकता कार्यक्रम में विश्व के देशो की अगुवाई करें|  लेकिन इस तथ्य से किसी को भी इंकार नहीं करना चाहिए कि विश्व में भौतिक संस्कृति और व्यक्तिगत सुख की लालसा में दौड़ने वाले व्यक्ति ने प्रत्येक 3 सेकंड में एक  फुटबॉल पिच के बराबर विश्व में जंगल का सर्वनाश किया है और कर रहा है |  करीब एक शताब्दी में 50% कोरल रीफ(प्रवाल भित्ति को प्रवाल शैल-श्रेणियाँ भी कहते हैं जो समुद्र के भीतर स्थित चट्टान हैं जो प्रवालों द्वारा छोड़े गए कैल्सियम कार्बोनेट (CaCo3) से निर्मित होती हैं। वस्तुतः ये इन छोटे जीवों की बस्तियाँ होती हैं। ... इनकी ऊपरी सतह पर प्रवाल निवास पलते और बढ़ते रहते हैं।) नष्ट हो चुका है और जो 50% प्रवाल भित्ति  बचाए है उसके बारे में यदि हम सचेत नहीं हुए तो 2050 तक करीब 90% का क्षरण हो जाएगा और यह भी तब होगा जब पृथ्वी के बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक ही नियंत्रित किया जाएगा|  यही कारण है कि विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रत्येक व्यक्ति को सिर्फ सुबह से शाम तक अपनी रोटी के जुगाड़ के साथ साथ यह  भी जानना चाहिए कि पूरे विश्व में पृथ्वी पर ऐसी कौन सी घटनाएं हो रही है जो आने वाले समय में जीवन शब्द को ही गायब कर देंगी | 

    प्रत्येक वर्ष करीब 4.7 लाख हैक्टेयर जंगल को विश्व में नष्ट किया जा रहा है जो डेनमार्क के क्षेत्रफल से भी ज्यादा है|  इसके अतिरिक्त 80% पानी को बिना  रिसाइकिल किए हुए नदी और समुद्र में जाने दिया जा रहा है | दलदली भूमि का एक अपना महत्व है जो पिछले 300 साल में करीब 87% तक खत्म हो चुकी है यह कार्बन को सूखने का एक उत्तम कारक है|  इसी दलदली क्षेत्रों के किनारे पर पीटलैंड के बीच क्षेत्र पाए जाते हैं पूरे विश्व की जमीन का 3% हिस्सा है और यह जमीनी कार्बन का करीब 30% अपने अंदर समाहित करता है जो पारिस्थितिकी तंत्र के लिए आवश्यक है| 

   आज सबसे बड़ी विडंबना यह है कि विश्व पर्यावरण दिवस को मनाने का मतलब ज्यादातर लोगों ने वृक्षारोपण लगा लिया है जबकि उन्हें सबसे पहले इस बात को आत्मसात करना होगा कि पर्यावरण का मतलब है कि व्यक्ति का जिस वातावरण में रह रहा है उसके साथ संबंध और यहां पर  वातावरण का तात्पर्य वह वायुमंडल है जिसमें व्यक्ति रह रहा है लेकिन जब पारिस्थितिकी तंत्र की बात होती है तो इस बात को प्रत्येक व्यक्ति को समझना होगा कि उसके अंतर्गत जानवर भी आते हैं, पौधे भी आते हैं और मनुष्य भी आता है और इन सभी के संबंधों के समुच्चय  का नाम पारिस्थितिकी तंत्र है लेकिन जिस तरह से मनुष्य ने पेड़ पौधों का दोहन कर के जंगलों को समाप्त किया है, ना जाने कितनी जानवरों की, जंतुओं की प्रजातियां विलुप्त हुई हैं|  उनका आंकड़ा ही स्पष्ट करता है कि वर्तमान में पारिस्थितिकी तंत्र बहुत ही बुरी तरह से प्रभावित हो चुका है और मानव ना चाहते हुए उस दलदल में स्वयं खड़ा हो गया है जहां एक समय बाद वह स्वयं अपने जीवन को नहीं समझ पाएगा|  वह अपने जीवन को इस पृथ्वी पर कैसे बनाए रखें इसके लिए विवश होगा और उसकी इस व्यवस्था को कटते हुए जंगलों के कारण जानवरों का शहरों की तरफ पलायन और शहरों में मानव द्वारा उन जानवरों को अपने भोजन में शामिल कर लिए जाने का सबसे बड़ा उदाहरण वर्तमान में वैश्विक स्तर पर कोरोना जैसे विषाणु से फैली महामारी में अनुभव किया जा सकता है|  यही नहीं कुछ दिन पूर्व ही चीन ने इस बात की भी पुष्टि की है कि बर्ड फ्लू जैसी बीमारी भी मनुष्य में पाई जाने लगी है और इसीलिए भारत जैसे देश के दर्शन संतोषम परम सुखम या जियो और जीने दो के सिद्धांतों को फिर से अपनाए जाने की आवश्यकता है | क्योंकि जब पेड़ पौधों के अस्तित्व को हम नहीं समझेंगे, जानवरों को जीने का अवसर नहीं देंगे तो उन के माध्यम से हम मनुष्यों के अस्तित्व पर भी एक प्रभाव पड़ेगा| 

 पर्यावरण का तात्पर्य सिर्फ  वृक्षारोपण नहीं लगाया जाना चाहिए एक व्यक्ति के शरीर में 70 प्रतिशत जल होता है और जब जल ही प्रदूषित होता चला जाएगा तो उस प्रदूषित जल के माध्यम से यदि हम अपने को जीवित रखना चाहेंगे तो शरीर के अंदर 70% जल के सापेक्ष करीब 70% बीमारियां भी शरीर को घेर लेंगी  जिसे आज प्रत्येक व्यक्ति की बीमारी में महसूस किया जा सकता है|  कोरोना काल में ऑक्सीजन की समस्या और लोगों द्वारा ऑक्सीजन लेने में परेशानी का अनुभव यह बताता है कि वातावरण में हमने स्वयं पेड़ पौधों का दोहन करके ऑक्सीजन के संतुलन को भी बिगाड़ा है|  इसलिए पेड़ पौधे लगाना पर्यावरण की संपूर्णता में सिर्फ 33 प्रतिशत भाग है|  शेष 33% में जल की शुद्धता है और 33% पृथ्वी या जमीन की उर्वरता और उसके पोषक तत्वों के निर्माण को बनाए रखने का प्रयास है जो हम  समझ नहीं पा रहे हैं या जनसंख्या के विकराल स्वरूप के आगे हमारे सामने सिर्फ यही विकल्प शेष रह गया है कि हम जमीनों को उर्वरकों के माध्यम से नष्ट कर डालें ! रहने के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जंगल काट डाले!

  ऐसे में यह भी आवश्यक है कि विश्व पर्यावरण दिवस को जनसंख्या विस्तार के संदर्भ में भी जागरूक किया जाए और इस तथ्य पर ज्यादा कार्य किया जाए कि जितनी संतुलित जनसंख्या होगी पर्यावरण उतना ही अच्छा होगा और पर्यावरण को स्थापित करने के लिए व्यक्ति को वातानुकूलित घरों में, गाड़ियों में रहने के बजाय पेड़ पौधों से आच्छादित घरों में रहना स्वीकारना होगा|  अपनी इज्जत और समाज में वैभव को दिखाने के सापेक्ष शरीर को स्वस्थ रखने और वायु को प्रदूषित होने से बचाने के लिए या तो पैदल या साइकिल से चलने का प्रयास करना होगा जैसा कि 3 जून को विश्व साइकिल दिवस पर यह संदेश भी देने का प्रयास किया जाता है और इन सभी तत्वों को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र ने आने वाले दशक 2021 से 2030 तक को पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्स्थापना  का दशक घोषित किया है अर्थात अगले 10 वर्षों में विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को अपने चारों तरफ के जीव-जंतुओं, पौधों और मनुष्यों को जीवित रहने के लिए पृथ्वी के पोषक तत्व, उर्वरता को बनाए रखने के लिए सार्थक प्रयास करना है और इस प्रयास में भारत जैसे देश को इसलिए बड़ा प्रयास करना होगा क्योंकि उसकी संस्कृति में जल, वायु, पृथ्वी सभी को  देवता-देवी  का दर्जा मिला हुआ है|  यदि धर्म की स्थापना करनी है, और  धर्म सर्वोच्चता पर है तो आज मानव धर्म में सबसे बड़ा प्रयास यही होना चाहिए कि धर्म की परिभाषा में हमने जीवित रहने के लिए आवश्यक जिन तत्वों को देवी देवता समझ कर उनके प्रति सम्मान और संरक्षा का एक भाव पैदा किया था उसको निरंतरता प्रदान करते हुए विश्व में भारतीय धर्म को उस सर्वोच्चता पर दिखाने की आवश्यकता है जो आज से नहीं सनातन परंपरा में हजारों साल से पर्यावरण के प्रति पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए किया जाता रहा है लेकिन इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को लगातार प्रयास करना होगा जो विश्व पर्यावरण दिवस की मांग है और आवश्यकता है | ( लेखक दो दशक से मानवधिकार विषयों पर कर कर रहे है )


Saturday, 27 May 2023

अंतर्राष्ट्रीय माहवारी दिवस या इंटरनेशनल पीरियड डे

 अंतर्राष्ट्रीय माहवारी दिवस या इंटरनेशनल पीरियड डे 


इस दुनिया में सबसे ज्यादा निषेध समझे जाने वाले शब्द के साथ आज २८ मई एक अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में स्थापित है | जिस शब्द को लेना एक अपराध जैसा माना जाता है उसी शब्द से उद्भूत एक समारोह जून के तीसरे सप्ताह में आसाम में स्थपित देवी कामख्या के मंदिर में आयोजित किया जायेगा और ऐसा माना जाता है कि माँ के जनन अंगो से तीन दिन तक रक्त स्राव होता है जो देवी को वर्ष में एक बार इस समय में  होने  वाली माहवारी का ही हिस्सा है और तंत्र की दुनिया में इस रक्त स्राव का बड़ा ही महत्व है पूरी दुनिया से तंत्र के साधक यहाँ आते है और इस रक्त मिश्रित पानी को पाने का प्रयत्न करते है क्योकि इस पाने से वो अपनी तंत्र साधन पूरी कर सकते है | जिस रक्त स्राव में इतनी अद्भुत शक्ति को अधिवेष्ठित समझा जाता है उसी माहवारी , पीरियड , रजस्वला , ऋतुस्राव को एक निषेध के रूप में भी मान्यता मिली हुई है क्योकि इस समय में महिला एक अछूत जैसी हो जाती है उसको गंदे रहने , स्नान न करने , नाख़ून न काटना , सर में तेल लगा कर अपने को ऐसे बनाये रखने की परम्परा रही है जिससे ऐसा सन्देश दिया जाता है कि महिला के साथ ये समय सबसे गन्दा समय है | जिस माहवारी के तत्वों से ही इस धरा के हर प्राणी का जन्म है अस्तित्व है उसी अंडे को लेकर इतनी घृणा एक विमर्श का विषय रहा है | 

इस दुनिया में एक भ्रान्ति यह भी रही है कि माहवारी सिर्फ महिला को होती है और उसके पीछे कारण ये है कि महिला को रक्त स्राव होता है पर पश्चिमी देशो में शोध हो चूका है कि माहवारी पुरुषो को भी होता है हा उसमे पीड़ा और रक्त स्राव न होने के कारण इसके बारे में न तो लोग सोचते है न जानते है पर ये एक सामान्य सत्य है कि जैसे माह में उत्सर्जित  होने वाले अंडे का उपयोग न हो पाने के कारण माहवारी महिला में होती है वैसे ही पुरुषो में ही स्पर्म का उपयोग न होने के कारण वो भी मृत होकर बाहर निकल जाते है जिसे इंग्लिश में नाईट फाल कहते है |

महिला के जीवन में जन्म के समय से उसके गर्भ के दोनों ओर स्थित ओवैरी ( अंडाशय ) में करीब २० लाख अंडे होते है जो ९ वर्ष की उम्र या कभी कभी १ १ साल तक परिपक्व होकर प्रति सप्ताह एक के हिसाब से उत्सर्जित होते है | एक माह में जिस ओवेरी से अंडा निकलता है दूसरे माह दूसरे ओवेरी से निकल ता है | एक अंडे को परिपक्व होने में जो कुल समय लगता है  वो २८ दिन का होता है | एक अंडे के चक्र में २८ में से ११ से १८ दिन के बीच का समय या कुछ अधययनो के अनुसार १३ से १८ दिन के बीच निषेचन होकर संतान की प्राप्ति होती है | एक तरफ जहा महिला अपने चक्र के अनुसार ये जान सकती है कि कब अंडा परिपक्व हुआ है वही शरीर के ताप मान से भी जाना जा सकता है कि अंडा परिपक्व हो गया है | महिला के शरीर में गर्भाशय स्थिति होने के कारण शरीर के तापमान ( ३७ सेंटीग्रेड ) से ३-४ डिग्री कम होने पर ही अंडे को जीवित रखा जा सकता है इस लिए शरीर के तापमान से भी जाना जा सकता है कि अंडा परिपक्व है | सबसे जरुरी बात ये है कि क्या जरूरत है माहवारी दिवस मानाने की जबकि ६० लाख साल से मानव इस पृथ्वी पर बच्चे पेड आकार रहे है और माहवारी कोई आज की नयी बात नहीं है तो फिर आज इतनी जागरूकता की क्या जरूरत है यही से महिला सशक्तिकरण का अध्याय शुरू होता है क्योकि अफ्ले महिला को घर के अंडे रही रहना होता था और सिर्फ खाना बनाना बच्चे पेड अकारण ही उसका काम था पर आज स्थितियां बदल गयी है आज लड़की खेल खेल रही है नौकरी कर रही है , दौड़ लगा रही है क्रिकेट खेल रही है पढ़ रही है सफ़र कर रही है एस एमे वो अपनी माहवारी का रोना रो कर घ रमे नहीं बैठ सकती है और इसी लिए इसके प्रति ज्ञान पैदा करके के लोगो की भ्रांतियां मिटाने का प्रयास  किया जा रहा है | पैड मैन जैसी पिक्चर बनायीं जा रही है , सिनेटरी पैड के प्रति जागरूकता पैदा की जा रही है इन सबके के इतर आज लड़की के साथ तनाव हताशा आदि के कारण अधिक रक्त स्राव से पीड़ित हो रही है | शादी हो रही है पर माहवारी के गलत चक्र के कारण परिपक्व अंडे  नहीं बन रहे है | लड़कियां एनेमिक होती जा रही है | ग्राभाशय की अम्लता , क्षारीयता आदि के बारे में महिला का  ज्ञान अधूरा है | कितना अजीब है कि मंदर में माँ की योनी की पूजा आदि काल  से हो रही है पर जीवित लड़की की समस्या को कहना और बात करना एक निषेध है और आपके चरित्र को प्रश्नगत करता है यही कारण है कि भारत जैसे देश में माहवारी एक अजीब सा शब्द है जिस शब्द की पूर्णता माँ जैसे शब्द पर जाकर समाप्त होती है वही माहवारी की बात करने पर आप एक अजीब व्यक्तित्व के व्यक्ति बन जाते है | आज हम सबको इस बात के सम्ह्ना होगा कि महिला जिस रक्त से सृष्टि को सजीव बनाये हुए है और मानव के अस्तित्व की कहनी को जिन्दा रखे है उस महिला के माहवारी की समस्याओ पर हम बोले ....मैं जब केरल में गया तो वहा पर ये आम बात थी कि महिला अपने पैड के लिए अपने घर के पुरुषो से कह देती थी यही नहीं केरल में ही नायर में जब लड़की को रजस्वला का आम्भ होता था तो लड़की को एक कुर्सी पर बैठा  कर अपने समाज के लोगो को ये सन्देश दिया जाता था कि लड़की अब प्रजनन के योग्य हो गयी है यही नहीं ऐसी ही परम्परा अमेरिका की समाओ जनजाति में पायी जाती है | वैदिक काल में ये परम्परा बनायीं गयी थी कि पता के घर पर बेटी को रीती स्राव शुरू नहीं होना चाहिए अगर हो जायेगा तो पिता को ब्रह्म हत्या का पाप लगेगा और इसने ही बाल विवाह का प्रचाल पेड आकिया जिसके पीछे सिर्फ पित्र्त्व  निर्धारण का प्रश्न था पर आज ऐसा नहीं है लड़की सिर्फ माँ बनने के लिए ही नहीं पैदा हो  रही है बल्कि इससे इतर वो सारे काम में अपने को सफल साबित करना चाहती है जो पुरुष सिर्फ अपने योग्य बनाता है और ऐसे में  महिला का प्राकृतिक गुण यानि माहवारी सामने आ जाता है और उसको जीते हुए कैसे बहता र्जिवन जिया जा सकत अहै उसी को समझाने का नाम अंतर्राष्ट्रीय माहवारी दिवस है | ऐसे निषेध विषय पर आज अखिल भारतीय अधिकार संगठन ने इसी लिए लेखनी  चलायी क्योकि हम सबको सिर्फ जागरूक करने का काम करते है और ये जरुरी है कि समाज में महिला को एक अबला की तरफ देखा जाए बल्कि सही तथ्यों को सामने रख कर हम सब अपनी माँ का चिंतन करते हुए हा र्महिला के साथ सहयोग करें क्योकि कोई माँ तभी बन पात अहै या कोई इस दुनिया में तभी आ पाता है जब एक महिला माहवारी के कष्ट दर्द , और एक मानसिक उलझन कोलेकर न सिर्फ जीती है बल्कि गुजरती है आइये हम सब उस महिला के साहस का सम्मान करें जो अपनी इस प्राकृतिक असुविधा के ३-४ दिन को भी बर्बाद न करके समाज और राष्ट्र परिवार के निर्माण में लगाना चाहती है ........ एक बार माहवारी पर सोचिये शयद आपको माँ का दर्द समझ में आ जाये शायद आप किसी भी महिला को देखने में अपना दृष्टिकोण बदल दे | डॉ आलोक चान्टिया, अखिल भारतीय अधिकार  संगठन

Thursday, 25 May 2023

Diabetes And Life

 


 मधुमेह या शुगर के रोगी को क्या करना  चाहिए 

एक औसत महिला को बनाए रखने के लिए प्रति दिन 2000 कैलोरी खाने की जरूरत होती है, और प्रति सप्ताह एक पौंड वजन कम करने के लिए 1500 कैलोरी खाने की आवश्यकता होती है। एक औसत व्यक्ति को बनाए रखने के लिए 2500 कैलोरी की आवश्यकता होती है, और 2000 प्रति सप्ताह एक पौंड वजन कम करने के लिए। हालांकि, यह कई कारकों पर निर्भर करता है| आज भारत में ज्यादातर लोग शुगा र्य मधुमेह से पीड़ित है और हर किसी को यही लगता है कि अगर वो चीनी या उससे निर्मित पदार्थ खाना बंद कर दे तो उनको शुगर से निजत मिल जाएगी पर ये धारणा गलत है किया ऐसा कोई भी पदार्थ जिसमे कार्बोहाईड्रेट है  वह शरीर के अंदर पहुच कर ग्लूकोज में परवर्तित हो जाता है जो अंततः आपकी शुगर को ही बढ़ता है | रोटी से भी शुगर बढ़  सकती है | इस लिए शुगर के लिए ये जानना जरुरी है कि क्या करके हम अपने को स्वस्थ रख सकते है 

शुगर  दो तरह की होती है - एक कोई टाइप -१ कहते है इसमें व्यक्ति के इन्सुलिन बनता ही नही है 

टाइप-२ इस प्रकार के व्यक्ति के शरीर में इन्सुलिन बनता तो है पर शरीर उसका उपयोग नहीं कर पाता है 

अब प्रशन आता है कि इन्सुलिन बनता कहा है \ हमारे शरीर में पेड़ में एक ग्रंथि होती है जिसे पैनक्रियाज या अंग्यांशय कहते है जो इन्सुलिन पैदा करता है 

पैनक्रियाज शरीर में दो तरह के कार्य करता है 

एक्सो क्राइन  फंक्शन जिसमे पाचन की क्रिया होती है 

और इंडो क्राइन  फंक्शन जिसमे शरीर के अंदर ब्लड शुगर को नियमित करने का कार्य होता है 

एक्सोक्राइन फंक्शन -पैनक्रिया में एक्सोक्राइन ग्रंथियां होती हैं जो पाचन के लिए महत्वपूर्ण एंजाइम उत्पन्न करती हैं। इन एंजाइमों में प्रोटीन को पचाने के लिए ट्राप्सिन और चिमोट्रिप्सिन शामिल हैं; कार्बोहाइड्रेट के पाचन के लिए amylase; और वसा तोड़ने के लिए लिपेज। जब भोजन पेट में प्रवेश करता है, तो इन अग्नाशयी रस को नलिकाओं की एक प्रणाली में छोड़ दिया जाता है जो मुख्य अग्नाशयी नलिका में समाप्त होता है। अग्नाशयी नलिका सामान्य पित्त नलिका में शामिल होती है ताकि वेटर के एम्पुला बन सकें जो छोटी आंत के पहले हिस्से में स्थित है, जिसे डुओडेनम कहा जाता है। आम पित्त नली यकृत और पित्ताशय की थैली में निकलती है और पित्त नामक एक और महत्वपूर्ण पाचन रस पैदा करती है। डुबोनेम में छोड़े गए अग्नाशयी रस और पित्त, शरीर को वसा, कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन को पचाने में मदद करते हैं।

इंडो क्राइन फंक्शन -पैनक्रिया के अंतःस्रावी घटक में आइलेट कोशिकाएं (लैंगरहंस के आइसलेट) होते हैं जो महत्वपूर्ण हार्मोन को सीधे रक्त प्रवाह में बनाते हैं और छोड़ देते हैं। मुख्य अग्नाशयी हार्मोन में से दो इंसुलिन होते हैं, जो रक्त शर्करा को कम करने के लिए कार्य करता है, और ग्लूकागन, जो रक्त शर्करा को बढ़ाने के लिए कार्य करता है। मस्तिष्क, यकृत और गुर्दे सहित प्रमुख अंगों के कामकाज के लिए उचित रक्त शर्करा का स्तर बनाए रखना महत्वपूर्ण है

जैसा कि मैंने पहले ही लिखा है कि महिमा को यदि अपने शरीर को स्थिर रखना है तो रोज २००० कैलोरी  आवश्यक है और पुरुष के लिए २५०० कैलोरी आवश्यक है यदि आप अपना कैलोरी इन्टेक रोज  २००० या २५०० के बजाये १५०० या २००० रखते है तो प्रति सप्ताह व्यक्ति अपना ४०० ग्राम वजन घटा सकता है 

शुगर के रोगी या सामान्य व्यक्ति को ये समझना होगा कि ये कैलोरी इंटेक ही सब कुछ है और इसको लेने का तात्पर्य पूरे दिन से है यानि जो व्यक्ति २००० कैलोरी ले रहा है वो स्वयं ये बांट सकता है कि दिन में ४ बार ५०० -५०० कैलोरी लेनी है या ५ बार में ४००-४०० कैलोरी लेनी है 

आप बड़ी आसानी से अपना कैलोरी चार्ट भी बना सकते है जैसे चार रोटी कुल १०० ग्राम में २६३ कैलोरी उर्जा मिलती है और एक कटोरी चावल में १०३ कैलोरी उर्जा मिलती है , सादी दाल में १३० कैलोरी उर्जा और फ्री दाल में १७० कैलोरी उर्जा मिलती है एक रसगुल्ला १८६ कैलोरी , एक कप दूध १२२ कैलोरी और एक कटोरी दही में 250 कैलोरी होता है और ऐसे आप स्वयं अपना चार्ट बना कर देख सकते है कि आपको कब कितना और क्या खाना है 

यदि आपको एकसमय में ५०० कैलोरी लेना है तो एक कप दही और चार रोटी काफी है पर अगर ४०० कैलोरी लेना है तो एक कप दही और तीन रोटी खा सकते है | शुगा रके मामले में आप अपने स्वयं के डॉक्टर बन सकते है और स्वस्थ भी रह सकते है 

अब सबसे बड़ी बात इन्सुलिन कब लेना पड़ता सामान्य स्थिति में शुगर की रेंज दो तरह से देखी जाती है 

एक जब आप रात में सोते है और सुबह उठने के बाद बिना कुछ कहए पिये जांच की जाती है जिसे फास्टिंग की जाती है सामान्य स्थिति में इसकी रेंज ६०-११० mg/dl  है लेकिन अगर १२५ के आस पास आत अहै तो शुगा र्की स्थिति हो सकती है लेकिन यदि १२६ से ज्यादा आता है ३ से ज्यादा बार टेस्ट में तो व्यक्ति शुगर का रोगी है 

इस स्थिति की जांच करने के बाद ऐसे व्यक्ति को खाना खाने की सहलाह दी जाती है और जब वो खाना भर पेट खा लेता है तो करीब ९० मिनट बाद उसके शुगा र्की जांच फिर की जाती है इस जांच को PP YA POSTPRANDIAL TEST कहते है यदि रेंज १४० से कम है तब तो ठीक है और यदि इससे ज्यादा ३ बार आये तो आप मान लीजिये कि आप शुगर के रोगी है 

आप इस टेस तको पैथोलोजी में करा सकते है या फिर आज कल ग्लूकोमीटर आ गए है आप स्वयं अपने घर पर इस टेस्ट को कर सकते है 

यदि आप अपना वजन पौंड में नाप रहे है ( एक पौंड = ४०० ग्राम ) तो जितना वजन हो उसको ४ से भाग दे दीजिये तो उत्तर आएगा उतनी यूनिट इन्सुलिन आपको एक दिन में लेनी है जैसे अगर आपका वजन १६० पौंड है तो ४ से भाग देने पर उत्तर आएगा  ४० यूनिट यानि अगर तो बार खाना खाया  तो २०-२० यूनिट होगा और अगर तीन बार खाते है तो १३ -१३ यूनिट लगाना चाहिए यही प्रकिर्या टाइप -२ के लिए भी है पर इन्सुलिन लेने से पहले व्यक्ति को किसी प्रशिक्षित डॉक्टर से भी सलाह लेनी चाहिए क्योकि इन्सुलिन काफी बाद की स्थिति है उससे पहले खाने वाली कई सार्थक दवाए उपलब्ध है जिनसे शुगर को नियंत्रित किया जा सकता है |

अखिल भारतीय अधिकार संगठन हल पल इस प्रयास में है कि राष्ट्र में लोगो के स्वस्थ जीवन के अधिका रको कैसे जागरूक बना कर सुनिश्चित किया जाए उसी कडी में  ये लेख लिखा गया है आशा है आपके लिए उपयोगी साबित होगा डॉ आलोक चान्टिया, अखिल भारतीय अधिकार संगठन

बाप बड़ा ना भैया सबसे बड़ा रुपैया

 


 बाप बड़ा ना भैया सबसे बड़ा रुपैया सोचिए समझिए और समय निकालकर पढ़िए जनता की कीमत क्या है


दिनांक 26 मई 2020 दिन मंगलवार भारत में संपूर्ण लॉक डाउन का 63 वां दिन आज मैं जिस बात को कहने जा रहा हूं वह हम सभी ने बचपन से सुना है कि पैसा महत्वपूर्ण जरूर है लेकिन सब कुछ नहीं और कोरोना वायरस के संक्रमण के समय पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था जिस तरह से ठप्प हुई है उसमें इस मुहावरे को सिद्ध करने और समझने का बेहतरीन मौका है कि बाप बड़ा ना भईया सबसे बड़ा रुपैया यह बात फौरी तौर पर समझनी होगी कि अब वह कहानियां नहीं लिखी जाती है कि एक राहगीर जा रहा था तो उसे रास्ते में फलों से लदे हुए बाग दिखाई दिए या उसे ललहाती हुई फसल दिखाई दी वह किसी गांव में पहुंचा तो उसे दूध दही का अंबार लगा दिखाई दिया उसको अतिथि और भगवान का दर्जा देकर गांव वालों ने स्वागत किया और ऐसा ना होना सिर्फ इस कारण है कि जहां एक तरफ विश्व के बहुत से ऐसे देश हैं जिन्होंने आरंभ से यह समझ लिया कि पैसे का आनंद तभी है जब जनसंख्या उसके अनुपात में ही हो और कुछ देश ऐसे थे जिन्होंने यह समझा कि पैसा की आवश्यक पूर्ति के लिए जनसंख्या को ही बढ़ाना आवश्यक है और जिन देशों ने जनसंख्या को पैसे से बड़ा करके नहीं देखा वह विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़े हो गए और जिनके लिए पैसा कमाने के लिए जनसंख्या का बड़ा होना जरूरी था वह देश विकासशील और अविकसित देशों की श्रेणी में खड़े हो गए ऐसे में बहुत से लोग कह सकते हैं कि चीन इसका अपवाद है लेकिन सच यह है कि सिर्फ विश्व स्तर पर आर्थिकी की मजबूती से ही हम चीन के लोगों की संपन्नता को आंक रहे उसकी स्थिति भी जनता के स्तर पर वही है जो भारत जैसे देशों की है यही कारण है कि अपनी आर्थिकी को संभालने के लिए आज वह विवादों के घेरे में है और इसी पैसे की आवश्यकता के कारण जहां विश्व के विकसित देशों में जनसंख्या को महत्व न देते हुए अपनी आर्थिकी को चलाए रखने का निर्णय लिया जिसमें अमेरिका प्रमुख है वहीं भारत जैसे देश में आरंभ के स्तर पर विकसित देशों की तरह ही लॉक डाउन को लागू करके जनसंख्या को पहले महत्व तो दिया लेकिन बाद में पैसे और जनसंख्या की आवश्यकता के बीच बढ़ते गंभीर संकट को देखकर उसी जनसंख्या के सहारे अपनी आर्थिकी को मजबूत करने के लिए विश्व के सभी देश  कमोबेश बाजारी व्यवस्था में वापस लौटने लगे और इसका असर भारत जैसे देश में भी दिखाई दिया जहां पर एक तरफ विभिन्न प्रांतों के कामगारों को हर राज्य अपने यहां वापस बुलाने के लिए इसलिए तत्पर दिखाई दिया क्योंकि पैसे के समाजशास्त्र में स्पष्ट हो गया कि आज विदेशी कंपनियों को सस्ता श्रमिक उपलब्ध होने पर ही वह अपनी आर्थिक योजनाएं किसी राज्य विशेष में लाने को इच्छुक होते हैं और इसीलिए आर्थिकी आधारित दयालुता कल्याणकारी योजनाएं चलाकर हर प्रदेश अपने यहां श्रमिकों को वापस लाने के लिए जी तोड़ मेहनत करने लगा है लेकिन इन सब के बीच एक जो सबसे बड़ा सच अपनी क्रूरता के  साथ हमारे सामने आया वह यह था कि आर्थिकी से बड़ा व्यक्ति का जीवन नहीं रह गया राष्ट्र और राज्य जैसा कि मैंने अपने पूर्व के भी लेखो में कहा है कि राज्य अपने अस्तित्व अपने स्थायित्व को अपेक्षाकृत जनता से ज्यादा महत्व देते हुए दिखाई दे रहे और इस महत्व को स्थापित करने के लिए उन्हें जिन लोगों की नीव के पत्थर की तरह आवश्यकता है वह वही जनता है जिसके श्रम से एक राज्य एक देश एक सत्ता अपनी मजबूती अपनी स्थायित्व को सुनिश्चित कर सकती है और इसके लिए ही जनता को बिना किसी वैक्सीन दवा की खोज हुए पुनः सामान्य जीवन को जीने की तरफ प्रेरित किए जाने का प्रयास आरंभ हो चुका है शॉपिंग कॉम्प्लेक्स खोले जाने लगे हैं एरोप्लेन से सफर पुनः शुरू हो चुका है बाज़ार निर्धारित समय पर खुलने लगी हैं परिवहन विभाग भी अपनी बस चलाने जा रहा है ऑफिस खुलने लगे हैं लोग अपनी कार से कहीं भी जा सकते हैं बस सरकारी दायित्वों में यह बात जरूर सामने आई कि सरकार ने कानून को महत्व देकर लोगों के सामने यह तथ्य रखने का प्रयास किया कि यदि उनके द्वारा लापरवाही की गई और अपने प्राणों से ज्यादा दूसरे प्राणों को हानि पहुंचाई गई तो भारतीय दंड संहिता की धारा 188 , 269 और 270 के अंतर्गत कार्यवाही की जाएगी और यह कार्यवाही किया जाना ठीक उसी तरह से है जैसे सामान्य स्थिति में तंबाकू उद्योग के जानलेवा स्थितियों को जानने के बाद भी सिर्फ राजस्व के कारण तंबाकू और उससे संबंधित उत्पादों को कोई भी देश रोकने में असमर्थ है हां राज्य अपनी भूमिका और कर्तव्य में सिर्फ तंबाकू उत्पादों पर यह लिखने के प्रयास में जुट गया है कि तंबाकू के उत्पादों का प्रयोग करना जानलेवा है अब इसके बाद यह उस व्यक्ति पर है कि वह अपनी जान देना चाहता है कि नहीं यही स्थिति कमोबेश शराब के उद्योग में भी देखी जा सकती है जिसमें भी सारी विपरीत परिस्थितियों का ज्ञान देने के बाद यह जनता पर छोड़ दिया गया है कि वह शराब पीना चाहता है कि नहीं और यही दर्शन आज कोरोना संक्रमण के समय भी विश्व के सारे देशों के द्वारा जनता के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है कि अब यह उसके ऊपर है कि वह जीवित रहना चाहता है कि नहीं कोरोना की सारी स्थितियां स्पष्ट कर दी गई है मास्क लगाना कितना जरूरी है हर व्यक्ति से 2 गज की दूरी पर बात करना कितना जरूरी है ज्यादातर बिना आवश्यकता के बाहर निकलना कितना जरूरी है यह सारी बातें और मानक बताने के बाद सरकार ने यह जनता की सुरक्षा और इच्छा पर छोड़ दिया है कि वह जीवित रहना चाहते हैं हम मरना चाहते हैं क्योंकि कोई भी सरकार या सत्ता एक अंतहीन समय तक ना तो अपनी आर्थिकी को रोक सकती है ना प्रगति को बाधित कर सकती है क्योंकि कोई भी देश आज मुख्य रूप से प्राकृतिक संपदा ऊपर ही नहीं चल रहा बल्कि उसके व्युत्पन्न उत्पादों पर भी चल रहा है और यह उत्पाद सिर्फ और सिर्फ धन के माध्यम से फैक्ट्रियों में पैदा हो सकते हैं, बनाए जा सकते हैं और उन फैक्ट्रियों के लिए श्रमिक चाहिए, कुशल लोग चाहिए जो तभी आ सकते हैं जब इस आपदा के सारे विपरीत परिस्थितियों के ज्ञान के साथ-साथ जनता को फिर से सड़कों पर उतार दिया जाए और यही आधुनिकता के दौर में उत्तर आधुनिकता का एक सुंदर उदाहरण है जिसमें आधुनिकता को जानने के बाद और उसकी आवश्यकता को समझने के बाद भी व्यक्ति को अपने जीवन के लिए स्वयं सोचना है अपनी रक्षा स्वयं करनी है क्योंकि कहा भी गया है अपने हाथ जगन्नाथ और हमारे देश में तो जी है तो जहान है का नारा शुरू से दिया जा रहा है अब इस दर्शन के साथ आदमी को जीने की आदत डालनी है और आज लॉक डाउन के 63 वें दिन यही सच सामने आ रहा है यदि आपको जीना है तो सोचना आपको है सरकार को जो कार्य करना है वह अपनी जनता को जिंदा रखने के लिए मजबूत आर्थिकी को सुनिश्चित करना है जिसको करने के लिए वह आगे बढ़ चुकी है आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Tuesday, 16 May 2023

आमिर खान और उनका कार्यक्रम सत्यमेव जयते की सत्यता

  आमिर खान जैसे सेकुलर क्या करते हैं


सत्यमेव जयते का मतलब होता है सत्य की ही जीत होती है और जिन तथ्यों को आमिर खान दिखा रहे है वह सिर्फ दिखा कर लोगो को आकर्षित कर रहे है \ खुद अपने जीवन में दो औरत लाकर कर मुस्लमान बन जाते है | क्या उस समय उनको याद नही आता कि वह धर्म से ऊपर पहले एक भारतीय है और औरत का सम्मान होना चाहिए , यही नही उनको पुरे भारत में उस कार्यकर्म को दिखाना चाहिए जिनको उनके पतिओ ने छोड़ दिया और अब वे किस हाल में है और उनके बच्चे कैसे है ? पर इसको आमिर नही उठाएंगे क्यों कि उन्हें इससे क्या मतलब कि पहली पत्नी और उनसे पैदा बच्चे कहा जा रहे है? सिर्फ दिखाने से न समाज बदला है और न बदलेगा | बाज़ार की तरह वे मूल्यों को बेच कर सिर्फ पैसा कमा है | आमिर को शायद ही यह पता हो कि मै २००४ से इस देश की राज्य सरकार, केंद्र सरकार और योजना आयोग सबसे कह रहा हूँ कि बहराइच जिले में रहने वाले धन्य्कूट समाज जिन्हें सामान्य वर्ग का सरकार कहती है , उनके समाज को अपने जीवन को बचने के लिए भाई बहनों को शादी करनी पड़ रही है और इस तरह की शादी भारतीय कानून में जुर्म है पर आज तक सरकार ने कुछ नही किया और जब मैंने सुचना मांगी तो कहते है कि आपका प्रकां २२वे नंबर पर लगा है जब नंबर आएगा तब उस पर विचार किया जायेगा | क्या आमिर बता सकते है कि २००४ से सरकार क्या कर रही है औए उस बीच जिन धन्यकुट का जीवन बर्बाद हुआ जा रहा है , उनके लिए कौन जिम्मेदार है ????? आमिर कहन में अगर बाजारीकरण से ऊपर वास्तव में कुछ करने की ताकत है तो अपने कार्यकर्म में धन्य्कुट का मामला उठाये वरना ऐसे कार्यकर्म करके उनकी जेब गरम हो सकती है | देश के लोगो का भला नही हो सकता | आमिर खुद को धोखा देने से अच्छा है कि पहले खुद सच के रस्ते पर जिओ और अपनी पहली पत्नी , बच्चे और धन्यकुट का प्रकरण पाने कार्यक्रम में दिखाओ अगर यह सिर्फ बाजारीकरण का एक मुखौटा नही है तो ????????? डॉ आलको चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Tuesday, 9 May 2023

मां का अर्थ या फिर तदर्थ

  मां सिर्फ एक दर्शन नहीं है .......


10 मई 1857 को जब भारत में अपने को स्वतंत्र कराने के लिए पहली बार भारतीयों की ललकार अंग्रेजों के सामने उठी थी तब लगा ऐसा ही था की मां ही हम लोगों के लिए सर्वोच्च है पर 163 साल बाद मां का जो स्वरूप इस समय हमारे सामने है वह अत्यंत पीड़ादायक है शांति और भाईचारे की तलाश में जिस तरह से मां शब्द दोयम दर्जे पर खड़ा हो गया और हमने अपनी खुशी और शांति के लिए मां जैसे शब्द में भी एक विभाजन रेखा खींच ली उससे जो दृष्टिकोण सामने आया उसने मां को व्यवहारिकता से ज्यादा दार्शनिक दृष्टिकोण ज्यादा प्रदान किया और यही कारण है कि आज 10 मई 1857 की 166 वी जयंती दुनिया के उस महत्वपूर्ण दिन पर आकर खड़ी हुई है जिसे मातृ दिवस कहकर ना सिर्फ स्थापित किया गया है बल्कि मां के स्वरूप का महिमामंडन करने के लिए भी हर तरफ एक अनुनाद और नाद गूंजता दिखाई दे रहा है विभाजन की यह परंपरा और अपनी खुशी शांति के लिए जीने का प्रयास सिर्फ मातृभूमि तक अमूर्त रूप से ही सीमित नहीं रह गया कालांतर में मां के विभाजन का स्वरूप हाड मास में लिपटी हुई उन मांओं के जीवन में भी देखने को मिलने लगा जिन्होंने नौ महीने का अंत ही दर्द उलझन पीड़ा सहते हुए एक नौनिहाल को जन्म दिया शाब्दिक और क्षणिक स्तर पर किसी को भी शुभकामना देना एक अत्यंत आसान सा कार्य है लेकिन उन कहे गए शब्दों में शब्द को ब्रह्म समझकर उसकी गहराई में डूब कर उस शब्द को जीना वास्तव में मानव द्वारा बनाई गई संस्कृति का सच्चा परिणाम है लेकिन आज संस्कृति के वाहे स्वरूपों के प्रतीक के रूप में ज्यादातर शब्द सिर्फ बाहरी आकार के माध्यम से एक व्यक्ति को चिन्हित करने के लिए ज्यादा प्रयुक्त हो रहे हैं जिससे मां जैसा शब्द भी अछूता नहीं रह गया है जिस भी घर में कोई लड़की किसी पुरुष की जीवनसंगिनी बन कर जब चौखट पार करके चारदीवारी यों के बीच अपने संसार को एक आयाम देने के लिए गृह लक्ष्मी के स्वरूप में प्रतिष्ठित हुई होगी तो कालांतर में किलकारी के शब्दों के साथ मां जैसे शब्द का स्वरूप भी उभरा होगा लेकिन जिस पुरुष के अस्तित्व का प्रतीक अपनी मांग में पिरो कर एक महिला मां बनी यदि वहीं पुरुष कालांतर में दिवंगत हो गया तो एक विधवा के स्वरूप से ज्यादा कभी भी एक घर में उसी महिला को मां का वहा स्वरूप नहीं मिल पाया जो लक्ष्मी सरस्वती और दुर्गा जी के माध्यम से उसमें देखा गया था और यह परंपरा भी बहुत लंबे समय तक चली आज भी यदि पति दिवंगत हो गया है और किसी ऐसी नौकरी में नहीं है जिसमें पेंशन मिल सके तो उस मां के सामने मन से बड़ा कोई विकल्प ही शेष नहीं होता है बोली और बोली के आधार पर प्रतीकों के माध्यम से बनी भाषा ना जाने कहां खो जाती है मां को अपने बच्चों के बीच विभाजित होना पड़ता है इस रेखांकन को लेकर जीना होता है कि उसके लिए कौन सा बच्चा कितना कर रहा है यही नहीं मां उनकी इच्छा और उनकी परिस्थितियों पर ज्यादा निर्भर होती है वह अपनी इच्छाओं को आरोपित नहीं कर सकती है जब किया वही मां है जिसने जब अपने गर्भ से जन्म दिया है तो किसी को पति मिला है और किसी को पत्नी मिलने का रास्ता सुगम हुआ है या वही मां है जिसने जब विभाजित रेखाओं से आच्छादित देश में अपने गर्भ के शिशुओं को समर्पित किया है तो देश की सीमाएं सुरक्षित हुई यह वही मां है जिसने गर्भ के अंधकार में जो शिक्षा अभिमन्यु की तरह अपने बच्चों को दिया है उन शिक्षाओं के ही प्रकाश में कोई कवि बना है कोई लेखक बना है कोई वैज्ञानिक बना है तो कोई डॉक्टर बना है लेकिन दर्शन के इस पहलू को कभी भी वास्तविकता के धरातल पर और अपनी परिस्थितियों को ज्यादा बड़ा करके देखने वाले मानव ने मां के संदर्भ में महसूस करने का काम अत्यंत ही सीमित कर लिया है जिसके कारण मां शब्द एक प्रतीक के रूप में ज्यादा दिखाई देने लगा है और उस मां को जिसने 9 महीने अर्थात 270 से 280 दिन का समय किसी के भी जन्म के लिए दिया है उतना समय संपूर्णता में कोई भी अपनी मां को देने के लिए तत्पर नहीं है क्योंकि आधुनिकता स्वयं की जीने की व्यवस्था आर्थिक बोझ जनसंख्या का बोझ और अपने भी बच्चों को जिंदा रखने के प्रयास में ज्यादातर लोगों के लिए मां अपने ही घर में किसी कोने में किसी कमरे में सिर्फ एक बिस्तर तक केंद्रित हो जाने वाली हाड मांस  की वह इकाई हो गई है जिसके जीवन में सारी सुख सुविधा इच्छा को मारने का विकल्प ही इसलिए शेष है क्योंकि यदि वहां अपने अंदर गरिमा पूर्ण और महिमा पूर्ण मानव का आकलन कर लेगी तो ज्यादातर घरों से यह भी आवाज आने लगी है कि आपको इस उम्र में यह बात शोभा नहीं देती बार-बार खाने की इच्छा प्रकट करना अच्छा नहीं है और इसीलिए इस विवाद में फंसने के बजाय इस लेख में जो कहा जा रहा है वह सही नहीं है इस आत्ममंथन और चिंतन की आवश्यकता है कि आप अपने भीतर यह महसूस करें कि क्या आप वास्तविकता में मां जैसे शब्द को समय स्नेह समर्पण और अपने द्वारा अर्जित की गई भूमिका प्रस्थिति को समर्पित करने की ताकत रखते हैं लेकिन आज भी इतनी विषम परिस्थितियों में आंखों की रोशनी कम हो जाने वाली एक बूढ़ी मां अपने बच्चों को भूखा देखकर खाना बनाने के लिए उठना चाहती है किसी तरह अपने अत्यंत कठिन समय में कुछ रुपयों को संजो कर रखने वाली वही बूढ़ी मां अपने सारे सुख और आराम से जीने वाले बच्चों को जब आर्थिक रूप से मजबूर महसूस करती है तो वह अपनी उस धोती की गांठ को खोलना चाहती है और उसमें से उन मुड़े तोड़े नोट को अपने उन्हें बच्चों को दे देना चाहती है जो उसे परेशान महसूस हो रहा है लेकिन क्या मां के इस स्वरूप को आत्मसात करके हम वास्तव में मां के लिए भी अपनी गांठे खुल पा रहे हैं सोचना है समझना है उसके बाद मां के नाम को देवी देवताओं से जोड़ने के बजाय देश से संदर्भित करने के बजाए उसहर्ड मास की इकाई को समर्पित करना है जिसने दुनिया में वह सारी सुख और स्थितियां हमारे सामने तब आने दिया है जब उसने 9 महीना हमको अपने पेट में रखा है इसीलिए मां या मातृ दिवस की शुभकामना देकर और बड़े-बड़े शब्दों को लिखकर सिर्फ मां के प्रति अपने कर्तव्यों से अपने को दूर मत करिए मंदिर में की जाने वाली पूजा हो या मस्जिद में की जाने वाली नमाज हो उतना समय अपनी मां के साथ बिल्कुल निर्मल हृदय से सेवा भाव को समाहित करके यदि हम देने का संकल्प ले ले तो शायद एक बार फिर हर मां को वृद्ध आश्रम जाने की आवश्यकता नहीं होगी एकांत में रहने से छुटकारा मिल जाएगा अपनी सारी इच्छाओं को दमन करके चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहने का अंतहीन सिलसिला समाप्त हो जाएगा क्योंकि अब मां को यह गर्व हो रहा होगा कि उसने इस दुनिया में आकर अपने गर्भ जिन लोगों को दुनिया में नवाजा है वह उसे वास्तव में किसी देवी से कम नहीं समझते हैं और यही वह क्षण होगा जब मां महान शक्ति स्वरूपा के रूप में परम सत्ता पर विराजमान हो सके और यही किसी भी संस्कृति और मानवता का सबसे सुखद और सफल क्षण होगा पूरी दुनिया की सभी महिलाओं के अंदर पाए जाने वाले अनुवांशिक पदार्थ डीएनए 99% तक समान है जिससे आनुवंशिक सिद्धांतों के अनुसार पूरी दुनिया के सारे मानव एक ही मां से उत्पन्न  है इसलिए किसी भी जाति धर्म लिंग रंग रूप जाती प्रजाति से इधर अखिल भारतीय अधिकार संगठन इस एक दिन में समाहित मां के स्वरूप वाले मातृ दिवस पर विश्व की सभी मांओं के आगे सर झुकाता है जिनके कारण मानव अस्तित्व का एक अंतहीन सिलसिला चला है और चलता रहेगा आपको नमन आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Monday, 8 May 2023

क्यों बने परसराम या महाराणा प्रताप

 क्यों बने परसुराम या महाराणा प्रताप ( व्यंग्य )

आज एक पंडित का जन्मदिन है जिसने क्षत्रियो को तहस नहस किया और एक क्षत्रिय का जन्मदिन है जिसने अपने मूल्यों के लिए अकबर के सामने सर झुकाने से अच्छा जगल में रहकर अपने मान को सुरक्षित रखना ज्यादा उचित समझा पर मैं जनता हूँ कि आप पंडित परसुराम क्यों बने उन्होंने कर्ण को इस लिए श्राप दिया क्योकि कर्ण ने बताया ही नहीं कि वो क्षत्रिय है और बस परसुराम ने इसी लिए उनको श्राप दे डाला कि जब उनको दी गयी विद्या की सबसे ज्यादा जरूरत होगी वो उसको भूल जायेंगे पर आज गुरु को इतनी महत् करने की क्या जरूरत जब वो कुछ पढ़ाता लिखाता ही नहीं तो एग्जाम में वैसे ही स्टूडेंट सब कुछ भुला बैठा रहता है वो तो भला हो नक़ल की आधुनिक तकनीक का जो परसुराम को बौना कर देते है तो भला आप आज परसुराम को क्यों आदर्श माने | आप के लिए जिन जरुरी है रोटी जरुरी है रोज रोज का खर्च और बच्चों की पढ़ाई के लिए ऐसा जरुरी है और क्या मिला महाराणा प्रताप को ये सब छोड़ कर जो आज आप ये सब छोड़ दे | उन्होंने ने अपने मातृभूमि के लिए सब सूख त्याग दिए पर ऐसी मातृभूमि का क्या लेकर करेंगे जो आपके सुख को ही छीन ले | काश महाराणा प्रताप ने अकबर से समझता कर लिया होता तो मजे करते जैसे मान सिंह , जसवंत सिंह आदि ने किया और आज भी ना जाने कितने ड्यूटी और पद की लालच में अपराधी के आगे घुटने तक दे रहे है पर इससे क्या हुआ कम से कम उनको सब मिल तो रहा है | क्या मिला प्रताप को बस आज जब वो नहीं है तो एक सार्वजनिक   अवकाश  ऐसी छुट्टी किस काम जब आपको जंगल में भूखो मरना पड़ा हो और देखिये आज ही छुट्टी में आपने अपने कितने छूटे काम निपटा लिए !!!!!!!!!!!!!!! प्रताप को समझना चाहिए था कि ताकत वॉर से नहीं लड़ना चाहिए क्योकि सच के रस्ते पर चल कर मिलता क्या है नौकरी चली जाती है वेतन नहीं मिलता है और जो ऐसा नहीं करते वो प्रिंसिपल बन जाये है मुख्य  कुलानुशासक बन जाते है , संस्कृति संयजक बन जाते है और हराम का पैसा अलग से अब शासक लड़की से छेड़ छड़ करता है उनके ऊपर व्यंग्य करता है तो क्या है आखिर लड़की बनी है इसी लिए तो आप क्यों बोले और जो बोलते है उनका क्या हाल होता है आपको पूरी तरह पता है और इसी लिए तो आप जैसे महाराणा प्रताप को क्यों माने आदर्श !!!!!!!आप सही कह रहे है आपके सच से ही तो पता चलता है आज का भारत ऐसा क्यों हो गया बस आप ऐसे ही सच बोलते रहिये कम से कम महाराणा प्रताप नहीं शक्ति  सिंह का तमगा तो आपको मिल जायेगा नाम से मतलब है ना राम का नाम हुआ तो क्या रावण का ना हुआ तो आप महाराणा क्यों बने जब शक्ति सिंह जैसा गद्दार बन कर देश समाज  बेच कर भी नाम हो सकता है | आप ऐसे ही सोचते रहिये तभी तो परसुराम जयन्ती और महाराणा प्रताप जयन्ती की सार्थकता होगी वैसे क्या अभी भी आप प्रताप और परसुराम को नमन करेंगे !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!! डॉ आलोक चान्टिया 

अखिल भारतीय अधिकार संगठन

मणिपुर हिंसा और जनजाति

 मणिपुर क्यों जल उठा

1947 में देश स्वतंत्र जरूर हो गया लेकिन देश शब्द को सार्थक और वास्तविक रूप देने में जिन 562 रियासतों का विलय किया गया उनके अंतर्गत उनकी मूल भावना से इधर देश की वृहद भावना को पिरोने के लिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जिस हम भारत के लोग की बात कही गई थी वह हम की भावना एक ऐसी कृत्रिम स्थिति के रूप में सदैव रहा जिसके कारण अनेकता में एकता वसुधैव कुटुंबकम हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई भाई जैसे तमाम सामाजिक सरोकार के सांस्कृतिक प्रयास की सच्चाई हिंसा अराजकता असंतोष विद्रोह में दिखाई देती रही है कभी पंजाब में आग लगती है तो कभी कश्मीर सुलग उठता है और उसी क्रम में 3 मई 2023 को सेवेन सिस्टर्स आफ इंडिया कहे जाने वाले पूर्वोत्तर राज्यों का एक महत्वपूर्ण राज्य मणिपुर हिंसा की चपेट में आ गया जिसमें करीब 54 लोगों की जान चली गई इंजन जाने वाले लोगों को भी भारतीय संविधान की प्रस्तावना में हम के साथ ही देखा जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ और यह 54 लोग सिर्फ एक हाड मास के ऐसे व्यक्ति बन कर रह गए जिनको प्राकृतिक संस्कृति के अनुसार सिर्फ किसी दूसरे के हक को मारने वाला उस पर कब्जा करने वाला समझ कर देखा जाने लगा

1852 में जब अंग्रेजों द्वारा तत्कालीन समय में कहे जाने वाले वर्मा पर कब्जा किया गया तो वह वहां पर रहने वाले लोग भी अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में आ गए और 1937 में बर्मा भारत से अलग होकर म्यानमार के रूप में आज एक देश के रूप में स्थापित है एक देश के रूप मैं अलग होने पर बर्मा मैं रहने वाले बहुत से लोग भारत सहित वर्मा में भी रह गए और उन्हीं में मेतेई भी एक ऐसा समूह था क्यों दोनों देशों में उभयनिष्ठ रहा इसी बीच में 1972 में मणिपुर भी भारत का एक पूर्व राज्य बन गया और पूर्ण राज्य बनने के बाद वहां पर रहने वाले लोगों में नागा जनजाति और कुकी जनजाति के लोगों को आदिम जनजाति होने का लाभ मिला लेकिन मेतेई करीब 53% प्रतिनिधित्व करने के बाद एक हिंदू समूह के रूप में स्थापित रहा

आज से लगभग 10 वर्ष पूर्व मेतेई लोगों ने अपने जीवन में गुणात्मक सुधार करने के लिए सरकार से अपने को आदिम जनजाति के रूप में चिन्हित करने के लिए संघर्ष आरंभ किया और यह संघर्ष धीरे धीरे धीरे धीरे फिर न्यायालय में चला गया और न्यायालय ने मेतेई लोगों के सांस्कृतिक सामाजिक जीवन को देखते हुए 19 अप्रैल 2023 को राज्य सरकार से यह निर्देश दिया कि वह इन लोगों को आदिम जनजाति में शामिल करने पर विचार करें और यही निर्देश मणिपुर में हिंसा का प्रमुख कारण बन गया क्योंकि इससे नागा और उनकी जनजाति के लोगों को लगने लगा कि उनके हितों पर अब उन लोगों का कब्जा हो जाएगा जो इसके अधिकारी नहीं थे

मणिपुर का कुल क्षेत्रफल 22237 वर्ग किलोमीटर है जिसमें 2238 वर्ग किलोमीटर का घाटी क्षेत्र है जिसमें मेतेई लोग रहते हैं और इसके अतिरिक्त 20089 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र पहाड़ी क्षेत्र है जिस पर मुख्य रूप से नागा और कुकी जनजाति के लोग रहते हैं यहां पर यह भी जानना आवश्यक है कि मैरीकॉम जैसे खिलाड़ी भी मेतेई जाति समूह की है और भी कई गणमान्य लोग इस समूह को प्रतिनिधित्व करते हैं उच्च शिक्षा होने के बाद भी ज्यादातर प्राकृतिक संसाधनों पर नागा और कुकी जनजाति का कब्जा होने और उनको आरक्षण मिलने के कारण मेतेई लोगों को कई नामों से वंचित होना पड़ता है ऐसे में जब न्यायालय द्वारा राज्य सरकार को यह निर्देश दिया गया तो नागा और कुकी जनजाति के लोगों ने इसे अपने हितों के विरुद्ध मानते हुए ऑल इंडिया स्टूडेंट्स ट्राइबल यूनियन के माध्यम से 3 मई 2023 को इसका विरोध शुरू किया जो जल्दी ही हिंसात्मक रूप में परिवर्तित हो गया और उसमें बहुत से लोगों की जान चली गई बहुत सी राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान हो गया

यह भी महत्वपूर्ण है कि भारतीय संविधान की पांचवी और छठी अनुसूची में है या व्यवस्था की गई है कि पूर्वोत्तर राज्यों जैसे असम मिजोरम मेघालय त्रिपुरा में स्थानीय क्षेत्र पंचायत और स्थानीय जिला परिषद अपने जनजातीय समूहों के लिए कुछ विशिष्ट कानून बना सकती हैं सड़क स्कूल आदि के लिए अपने नियम बना सकती इसी तरह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371 ए में नागालैंड को विशेषाधिकार प्राप्त है और 371c में मणिपुर को विशेषाधिकार प्राप्त है लेकिन यदि मेतेई लोगों को भी जनजाति का दर्जा मिल जाएगा तो जनजातियों को मिलने वाले सारे लाभ इन लोगों को भी समान रूप से मिलने लगेंगे और उच्च शिक्षा और जागरूकता के कारण यह नागौर की जनजातियों की अपेक्षा ज्यादा लाभ लेकर राज्य में अपने प्रभुत्व को ज्यादा स्थापित करेंगे इस सच को लेकर ही उनकी और नागा जनजातियों के द्वारा इस तरह का हिंसात्मक आंदोलन आरंभ कर दिया गया है और यहीं पर आकर भारतीय संविधान के प्रस्तावना का हम शब्द ज्यादा स्पष्ट होकर सामने दिखाई देता है जिसमें हम नैसर्गिक रूप से बहुत दूर दिखाई देता है और कृत्रिम और वैधानिक रूप से ही हमको स्थापित करने का प्रयास किया जाता रहा है और इसी हम की वास्तविकता का प्रतिफल मणिपुर की वह हिंसा है जो एक राज्य के विशेषाधिकार के अंतर्गत रहने वाले वहां के समस्त समूहों के बीच की प्रतिस्पर्धा हिंसा ईर्ष्या को ज्यादा मुखर करता है जिसको संवैधानिक अस्तर पर आज ज्यादा समझने की आवश्यकता है डॉ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Sunday, 7 May 2023

KARL MARX

 Last year 

कार्ल मार्क्स का द्वि शताब्दी जन्मोत्सव ..................  साम्यवाद के जनक कहे जाने वाले कार्ल मार्क्स १८१८ में इस दुनिया में आये और १८८३ में चले गए आज पूरी दुनिया में उनके जन्मदिन के दोहरे शतक की गूंज मैं हर कही कई दिनों से सुन रहा हूँ पर मेरा मन कही और उड़ रहा है क्योकि मैं जिस कार्ल को जानता हूँ वो कार्ल इस विद्वान जनों की जमात में कही भी फिट नहीं बैठते है और न ही उनके लिए इस बात का कोई भी महत्व है कि जीवन में अपने ज्ञान से कितना  पैसा कमा ले पर ये सच है कि अपनी काली खासी का इलाज न करा सकने वाले कार्ल के सिधान्तो को बता कर पढ़ा कर न जाने कितने मनुष्य वैश्विक ज्ञानी बन गए कितनो को उनके सिधान्तो की छाव में कम से कम ६०-७० हज़ार रुपये  महीने की पेंशन मिल रही है पर ये वो  कार्ल मार्क्स की कहानी है जिसके पास खुद की लड़की के इलाज के लिए पैसे तक नहीं थे और उनको अपने कोट तक को गिरवी रखना पड़ा पर तब तक देर हो चुकी थी और लड़की  दुनिया से जा चुकी थी | आज हम सब उस कार्ल मार्क्स का दोहरा शतक जी रहे है जिसने  पुस्तकालय में उन किताबो के बीच बैठ कर अपने फेफड़े को छलनी कर डाला  जिसकी धूल उसकी सांसो में घुसकर  कर उसके जीवन को छत विछत कर गयी | कोई नही जानता कि दास कैपिटल , कम्युनिस्ट मैनिफिस्तो जैसे आदर्श ग्रन्थ देने वाले अपने जीवन को धूल के बीच कैसे धूल धूसरित कर रखा था .आज जब किसी के पास किताब देखने तक की फुर्सत नहीं है तब उस व्यक्ति ने क्या कर डाला था | आप को शायद पता  नही है कि कार्ल ने अपने से ४ साल बड़ी जेनी वोन वेस्त्फ्लेन से शादी की जबकि वो नहीं चाहते थे क्योकि जेनी के पिता जेर्मनी की सरकारमे ऊँचे पद पर थे  | जर्मनी सरकार उनके राई निश जीतुंग समाचार  पत्र को लेकर सरकार उनसे नाराज रहती थी और अपने सिधान्तो और राष्ट्र के लिए जीने वाले कार्ल को न जाने कितने देशो से निर्वासन की मार झेलनी  पड़ी पर वो कभी झुके नहीं पर आज हम को सरकार की घुड़की भी मिल जाती है तो हम अपने बिल में छिप जाते है ऐसे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति से जेनी ने शादी की और जिस दिन शादी कर ली उस दिन के बाद हर तरह के सुख में पलने वाली जेनी ने सिर्फ अपने  पति के सम्मान के लिए सारे सुख का त्याग कर दिया क्योकि वो नहीं चाहती थी कि कभी उनके कारण उनके पति को शर्मिंदा होना पड़े | आज एक सिर्फ पढने वाले व्यक्ति जो गरीब हो कितनी जेनी शादी कर के उसका साथ देना चाहती है ऐसे कार्ल के जीवन के दोहरे शतक मनाने वाले कार्ल की पत्नी का बड़ा भाई भी शादी के बाद जर्मनी सरकार मे मंत्री पद पा चुका था और इन्ही सब के बीच जेनी और कार्ल का बड़ा लड़का मर गया घर मे गरीबी का हाल ये था कि अपने मृतक बेटे के लिए काफिन बॉक्स तक बनवाने के पैसे नहीं थे और अगर जेनी चाहती तो अपने पिता भाई से सहायता ले सकती थी पर अपने पति की गारिमा को ध्यान में रख कर वो अपने पडोसी के घर गयी और कुछ पैसे उधार लायी और अपने पुत्र की अन्तेय्ष्टि की क्या ऐसे आदर्श जीवन का एक भी अंश आज हम जी रहे है शायद नहीं हमको आज के दौर में सिर्फ कार्ल मार्क्स के सिधान्तो को पढ़ा कर इति कर ली जाती है पर अगर उनके जीवन के इन पहलुओं को भी पढाया जाए तो शायद बच्चे के जीवन में शिक्षा के प्रति ज्यादा जाग्रति और संवेदनशीलता आएगी .कार्ल मार्क्स के ऊपर फूल  चढ़ा कर , उनकी फोटो लगा कर या सोशल मिडिया पर उनको शुभकामना देकर उनके २०० वे जन्मदिन की बधाई न देकर  सोचिये कि क्या आज तक आपने कभी कार्ल मार्क्स जैसे एक इंच भी जीवन जीकर समाज को कुछ देने का प्रयास किया है यदि नही तो कार्ल मार्क्स के साम्यवाद की यही सबसे बड़ी हार है जो कार्ल को सिर्फ ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाने वाली एक तस्वीर से ज्यादा कुछ नहीं बना रही जैसे बुद्ध के लिए आज इस देश में हो रहा है | कार्ल का जीवन उन सारे बुद्धिजीवियों के लिए प्रेरक है जो ये कह कर पीछे हट जाते है कि आर्थिक  विपन्नता के कारण या पारिवारिक वजहों से वो  शिक्षा के क्षेत्र मे कुछ नही कर पाए  क्योकि कार्ल ने इन सब बातो को झूठा साबित करते हुए मानव को पृथ्वी  की सबसे सुंदरतम कृति क्यों कहा जाता है ये सिद्ध करने में सफलता अर्जित की | अखिल भारतीय अधिकार संगठन ऐसे महा मानव को नमन करता है डॉ आलोक चान्टिया, अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Friday, 5 May 2023

क्या इस पर ध्यान देना जरूरी नहीं












 

नाम जैविक शरीर का एक कोड है और इस कोड को बदला जा सकता है

 अपने नाम को बदलना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत संवैधानिक मौलिक अधिकार है 


यह एक सामान्य सी बात है कि जब भी हम किसी भी व्यक्ति वस्तु स्थान का नाम लेते हैं तो हमारे दिमाग में तत्काल ही उस नाम के प्रतिबिंब के रूप में मस्तिष्क में एक आकृति उभर आती है और हम जान जाते हैं कि हमारे सामने जो नाम लिया गया है वह क्या है कौन है ऐसे ही जब हम किसी भी भीड़ में खड़े होकर किसी व्यक्ति का नाम पुकारते हैं तो एक समान मनुष्यों की भीड़ होने के बाद भी वही व्यक्ति उस नाम को सुनकर अपना दृष्टिकोण और अपनी अभिव्यक्ति करता है जिसका नाम पुकारा जा रहा है इससे यह तो स्पष्ट है कि नाम किसी भी व्यक्ति वस्तु स्थान के आकार संरचना व्यक्तित्व को परिभाषित करने वाला एक सशक्त माध्यम और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) a के अनुसार भी व्यक्ति को अपना नाम रखना या उस नाम को बदल कर दूसरा रख लेना उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत मौलिक अधिकार है इसको कोई यह कहकर नहीं रोक सकता कि तकनीकी कारणों से सरकारी दस्तावेजों में जो नाम दर्ज हो गया है उस नाम को दोबारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है और यह अदाओं पर और पेचीदा तब उभर कर सामने आई जब भारत के केरल राज्य के उच्च न्यायालय में कशिश गुप्ता नाम की एक 17 साल की लड़की ने याचिका दायर करके सीबीएसई बोर्ड के विरुद्ध  यह वाद दायर किया कि उसने अपना नाम परिवर्तित कर लिया है लेकिन सीबीएससी बोर्ड उसके नाम को तकनीकी आधार पर उतरने की विधियों के आधार पर परिवर्तित करने से इंकार कर रही इसके लिए वह परीक्षा नियम 69.1 (I) का हवाला दे कर सर्टिफिकेट में छप चुके नाम के बाद उस नाम को परिवर्तित करने से इंकार कर रही है जबकि कशिश गुप्ता ने अपने नाम को परिवर्तित करने की सारी औपचारिकताएं पूर्ण कर ली और उसके नाम को परिवर्तित करके नए नाम को स्वीकृति राज्य सरकार द्वारा भी मिल चुकी थी ऐसे में जब सीबीएसई बोर्ड ने उसके नाम को परिवर्तित करने से इंकार कर दिया तो याचिकाकर्ता ने केरल हाई कोर्ट में वाद दायर किया जिसके प्रकाश ने कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि नाम एक व्यक्ति के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है उसकी पहचान है वह समाज में उसी के द्वारा जाना जाता है पहचाना जाता है और यह उस व्यक्ति पर है कि वह अपने नाम के साथ किस तरह से जुड़ना चाहता है यदि कोई व्यक्ति यह चाहता है कि उसका नाम परिवर्तित हो जाए या उसे दूसरे नाम से जाना जाए तो यह भी उसके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और इसको बाधित नहीं किया जा सकता या उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा और इसीलिए केरल हाईकोर्ट में सीबीएसई बोर्ड को निर्देश देते हुए आदेश दिया है कशिश गुप्ता के नाम के परिवर्तित होने के बाद जो नया नाम है उसको सर्टिफिकेट में भी परिवर्तित किया जाए यह विवाद तब ज्यादा गहरा गया जब गुप्ता ने अपने नाम को परिवर्तित करने की प्रक्रिया के बीच में ही सीबीएसई बोर्ड की हाईस्कूल की परीक्षा दी और स्कूल द्वारा उसका नाम परिवर्तित नाम के बजाय पूर्व वाला नाम ही भेज दिया गया जो सर्टिफिकेट गुप्ता के अनुसार उसका नाम नया वाला जाना चाहिए था इसीलिए उसने सीबीएसई बोर्ड के सर्टिफिकेट पर नाम परिवर्तित कराने के लिए आवेदन किया और सर्टिफिकेट  नाम परिवर्तित किए जाने से इनकार करने पर उसने केरल हाई कोर्ट में याचिका दायर की जिस पर यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया गया वैसे सामान्य सी बात है कि अक्सर अखबारों में यह देखने को मिलता है कि किसी भी व्यक्ति द्वारा अपने नाम परिवर्तन की घोषणा की जाती है और उस घोषणा में कहा जाता है कि अब उसका पूर्व नाम बदल गया है और अब वह अपनी इस नए नाम से जाना जाएगा इस प्रक्रिया के बाद ही वह सभी जो हो पर उस समाचार पत्र की कटिंग के साथ अपने नाम परिवर्तित किए जाने की सूचना देता है और उसके अनुसार उसका नाम सभी दस्तावेजों में पूर्व नाम की जगह नए नाम से लिख लिया जाता है लेकिन परीक्षाओं के सर्टिफिकेट पर नाम परिवर्तित किया जाना तकनीकी आधार पर हर जगह देखने को मिलता है जिससे है कभी-कभी नाम परिवर्तित करने वाले व्यक्ति को अपनी ही पहचान स्थापित करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है इसीलिए उपरोक्त प्रकरण एक महत्वपूर्ण प्रकरण है और इसको ज्यादा से ज्यादा प्रचार प्रसार करके इस बात की स्थापना की जा सकती है या की जानी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति अपना नाम परिवर्तित करता है तो सभी शैक्षिक प्रमाण पत्रों पर भी उससे संबंधित बोर्ड यूनिवर्सिटी और अन्य संस्थाएं उसने नाम को स्वीकार करने और उससे परिवर्तित करने से कोई भी रोक नहीं लगा सकती ऐसा करना सिर्फ और सिर्फ मौलिक अधिकार का उल्लंघन ही होगा 

आलोक चाटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

बुद्ध पूर्णिमा और लोकतंत्र

 


 बुद्ध पूर्णिमा और लोकतंत्र

जन्म एक जैविक प्रक्रिया है लेकिन जन्म की परिस्थितियां एक जैविक प्राणी होते हुए भी सबको अलग-अलग तरह से स्थापित करती है और इसी क्रम में सिद्धार्थ नाम से जन्म लेने वाला एक बालक कालांतर में महात्मा बुद्ध कहलाने लगा जिनका जन्म लुंबिनी मैं 563 ईसा पूर्व हुआ था और जिनकी मृत्यु 483 ईसा पूर्व हुई क्योंकि गौतम बुद्ध का जन्म ज्ञान और मृत्यु तीनों वैशाख की पूर्णिमा के दिन संपन्न हुआ इसीलिए बुद्ध पूर्णिमा का महत्व बढ़ जाता है

वर्तमान में बुध की प्रासंगिकता सिर्फ राजनीति से होकर गुजरने वाला तथ्य या फिर सोशल मीडिया पर उनके साथ फोटो लगा देने वाला तथ्य बनकर ज्यादा रहा जा रहा है और इसी क्रम में यह समझना जरूरी है कि गौतम बुद्ध वर्तमान में जब लोकतंत्र की पराकाष्ठा है तब क्या प्रासंगिकता है

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध ने इस धर्म की स्थापना ही इसलिए किया था कि व्यक्ति धार्मिक कर्मकांड के जाल में उलझा ना रहे बल्कि अमूर्त रूप में अपने मानसिक स्थिति में जाकर या चिंतन कर सके कि वह कौन है और क्या है और इसी ब्राह्मणवाद के खिलाफ उन्होंने क्षत्रिय होते हुए भी एक धर्म की स्थापना कर दी वर्तमान में हम गौतम बुद्ध के रास्ते पर चलते हुए गौतम बुद्ध को ही कर्मकांड में इतना उलझा दिए हैं कि गौतम बुध की मुख्य शिक्षा बहुत दूर हो गई है

यह भी समझने की आवश्यकता है कि ज्यादातर हम यह कहते हैं कि फलां व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त हो गया ज्ञान प्राप्त होना किसी भी व्यक्ति के जैविक जीवन में अनुकरण की वह सामाजिक सांस्कृतिक स्थितियां है जो वह पैदा होने से पहले से ही ग्रहण करने लगता है और वही ग्रहण करें हुए सामाजिक सांस्कृतिक तत्व उसे एक विशिष्ट तरह का मानव बना कर समाज में प्रस्तुत कर देते हैं जिसके कारण हम किसी को हिंदू कहते हैं किसी को मुसलमान कहते हैं किसी को सिर्फ किसी को ईसाई या सिर्फ उन विशेषताओं के अनुकरण के कारण होता है लेकिन जब कोई व्यक्ति इन अनुकरण की पद्धति से अरे जाकर अपने दिमाग को उस स्थिति में ले जाता है जहां पर अन्य जीव-जंतुओं की तरह मानव भी एक प्राकृतिक मानव की तरह होता है और उस स्थिति में जब मानव प्रकृति के तत्वों को समझने में सक्षम हो जाता है तब उस दृष्टिकोण को ही हम ज्ञान कहते हैं और इस अर्थ में महात्मा बुध की ज्ञान प्राप्त करने की स्थिति को और ज्यादा समझने की आवश्यकता है क्योंकि हमने अनुकरण की पद्धति में जो कुछ भी सीख लिया है उसके अनुसार हमारे अंदर घृणा हिंसा प्रतिस्पर्धा आज इतना बढ़ गया है यह हम उस अनुकरण किए गए तत्वों से ऊपर जाकर सिर्फ मानव बन कर रहे नहीं पाते और इस अर्थ में गौतम बुध की शिक्षा को हमें समझना होगा

दुख से मुक्ति के आठ उपायों को बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग कहा है। ये हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मात, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। लेकिन आज ना हमारे पास समय दृष्टि है ना सम्यक संकल्प है ना सम्यक वाणी है हम बुद्ध को ही प्रश्नचिन्ह लगाते हुए उनके सिद्धांतों से दूर जा रहे हैं जबकि लोकतंत्र में बुद्ध की शिक्षा की बहुत आवश्यकता है

जब हम लोकतंत्र की बात करते हैं तो हमें गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़ी उस कहानी को समझना होगा जिसमें वह अपनी पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को छोड या त्याग कर देते हैं बाद में सन्यासी होने पर जब वह अपने गृह प्रदेश में लौटते हैं तो पत्नी यशोधरा उनसे शास्त्रार्थ जब करती है तो वह कहते हैं कि मैं पिछली बातों को तो नहीं जानता लेकिन तुम चाहो तो मेरे साथ आ सकती हो और उनके पुत्र और पत्नी दोनों उनके साथ सन्यासी हो जाते हैं लेकिन उसके बाद पत्नी और बेटे का क्या हुआ कोई नहीं बता सकता ना ही किसी ने आंसू ना होगा कि गौतम बुद्ध ने उन्हें अपना अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया आज बौद्ध धर्म के नाम पर प्रभंजना करने वाले या जो बौद्ध धर्म को नहीं मानते हैं उन सभी को लोकतंत्र में इस बात से शिक्षा लेनी चाहिए व्यक्ति को अपनी तरफ से उत्तराधिकारी घोषित करने में रुचि नहीं रखनी चाहिए नहीं तो उस दिन लोकतंत्र की हत्या हो जाती है यही नहीं वह दिन ही ऐसा होता है जब हम बौद्ध धर्म और बुध का खुले रूप से बहिष्कार करते हैं

आज जिस तरह से बौद्ध धर्म को मानने वाले और उसके सापेक्ष दूसरे धर्म के लोगों के बीच घृणा का माहौल है उसमें भी बुद्ध की शिक्षाओं को उतारना होगा जिसमें एक वेश्यावृत्ति करने वाली महिला की शिकायत होने पर बुद्ध उस गांव के लोगों से कहते हैं कि सब लोग अपना एक हाथ ऊपर उठाओ और ताली बजा कर दिखाओ सब कहते हैं संभव ही नहीं है तब बुद्ध कहते हैं तो आप ही सोचिए कि कोई महिला वैश्या फिर बनी अकेले कैसे आप के कारण ही वह वैश्या कहलाई है आज जो लोग भी आपस में द्वेष घृणा हिंसा फैला रहे हैं उन्हें समझना होगा कि वह बुद्ध की ही बनाएं मानकों से दूर जा रहे हैं

जिस समय बुद्ध ने ब्राह्मणवाद का विरोध करके बौद्ध धर्म की स्थापना किया था उसी के समानांतर में पूरे विश्व में कई ऐसे देश है जो धर्म का मतलब समझते ही नहीं थे और उस अज्ञात के प्रति जुड़ने की संभावनाओं के पीछे भाग रहे थे उसी का कारण है कि बुद्ध का यह प्रयास इस धर्म को विश्व के कई देशों में स्थापित करके इसे एक वैश्विक धर्म के रूप में स्थापित कर गया पर आज बुद्ध की वहीं शिक्षाएं बुद्ध के देश में न्यूनतम स्तर पर है बौद्ध धर्म अपने न्यूनतम स्तर पर है क्योंकि हम बुद्ध की शिक्षाओं से दूर हैं सामान्य अर्थों में बांट समझे तो जिसके पास बुद्धि है वही बुद्ध है और उस अर्थ में हम सिर्फ अपनी कपाल धारिता के कारण अपने को बुद्धिमान कहने लगे हैं लेकिन विश्लेषण की धरातल पर हमारे पास बुद्धि अब रहे नहीं गई है हम अनुकरण की पद्धति अपनाते हुए अपने को विभिन्न धर्म जाति से जुड़ने लगे हैं लेकिन बुध के ज्ञान की परंपरा में हम वहां जाकर अपने को मानव नहीं समझ पा रहे हैं जहां पर प्रकृति की गोद में हम सब एक तरह के जैविक प्राणी हैं और उस अर्थ में संतोषम परम सुखम की भावना रखते हुए हमें एक दूसरे के लिए जीने की जो संकल्पना होनी चाहिए वह गौतम बुद्ध के देश में कम होती जा रही है

गौतम बुद्ध लोकतंत्र की स्थापना में ही जिस तरह एक गाली देने वाले व्यक्ति को या समझाते हुए कहा कि जब आपका कोई दिया हुआ सामान में नहीं लेता हूं तो वह आपके पास ही रह जाता है ऐसे ही अगर आपने अपशब्द जो कहे हैं उसे मैंने ग्रहण ही नहीं किया तो वह आप शब्द भी आपके पास रह जाएंगे इतनी आदर्श चेतना वाली बात को आज हम अपने जीवन में उतारने से बचते हैं हम किसी गाली देने वाले किसी हिंसा करने वाले किसी मारपीट करने वाले को उसको पूरा जवाब देते हैं और वहीं पर आकर हम बौद्ध धर्म और गौतम बुद्ध के आदर्शों के सामने बिल्कुल खोखले खड़े हो जाते हैं हमसे प्रतीक के रूप में गौतम बुद्ध को अपने जीवन में उतार कर अपने जीवन के अर्थ ढूंढने वाले प्राणी जरा दिखाई देते हैं और इसी को समझ पाना आज बुद्ध पूर्णिमा के दिन नितांत आवश्यक है क्योंकि यही आदर्श लोकतंत्र की स्थापना होगी 

डॉ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Thursday, 4 May 2023

शराब की दुकान खोलना एक स्वास्थ्यवर्धक कदम( व्यंग्य)

  शराब की दुकान खोलना एक स्वास्थ्यवर्धक कदम( व्यंग्य)


 जब पूरी दुनिया को कोरोनावायरस ने अपने बाहों में जकड़ लिया है और प्रेम की परिभाषा में अब लिंग का कोई मतलब नहीं रह गया है चाहे समान लिंग हो चाहे विपरीत लिंग के लोग हो प्रेम किसी से भी जग किया जा सकता है तो प्रेम का सरूर चढ़ना भी तो जरूरी है और जब कोरोनावायरस की बाहों में व्यक्ति अपने जान से खेल रहा है बहुत तो बेचारे बिना शराब पिए उससे प्रेम करने के कारण मर चुके हैं ऐसे में शराब की दुकान खोलना नितांत आवश्यक है क्योंकि यदि प्रेम को डूबकर नहीं किया गया सुधीर प्रेम का मतलब क्या है और डूबने के लिए जरूरी है कि चाहे नाली में डूब जाए चाहे बिस्तर पर डूब जाइए  लेकिन डूब जाइए और डूबने के लिए चुल्लू भर पानी नहीं सिर्फ चुल्लू भर शराबी काफी है और कौन कहता है कि शराब पीना खराब होता है शराब के बिना तो कुछ चल ही नहीं सकता है नादान लोग यह तक नहीं जानते हैं कि एलोपैथी में जितनी भी सिर्फ बनती हैं सभी में अल्कोहल जरूर होता है यही नहीं होम्योपैथी में जितनी भी अर्क तैयार किए जाते हैं सभी में अल्कोहल होता ही है अब जब मेडिकल की दुकानें खुल सकती हैं तो वहां की दवाओं में बूंद-बूंद करके मिले अल्कोहल को पीने से तो अच्छा है कि अल्कोहल को ठीक से पीकर पूरी मेडिसिन को ही पेट में उतार लिया जाए अब वह बात बिल्कुल अलग है कि रोज सोने के अंडे दिए जाने वाली कहानी की तरह हाल लालच में लोग मुर्गी का पूरा पेट फाड़कर ज्यादा सोने के अंडे पाने की लालच में मुर्गी को भी मार दे रहे हैं और खुद भी हत्यारे बन रहे हैं जी बिल्कुल यही हो रहा है कि जिस बूंद बूंद शराब से जीवन सुखद हो सकता था और जीवन में एक स्वास्थ्य पूर्ण जीवन की कल्पना की जा सकती थी उसमें स्वास्थ्य की संपूर्णता को लालच में समझते हुए जिस तरह से लोग स्वयं डॉक्टर बनकर शराब की दुकानों के बाहर सीरप की तरह शराब खरीदकर पी रहे हैं और यह महसूस कर रहे हैं कि कल की सुबह में वह बिल्कुल स्वस्थ हो जाएंगे उनके लिए सिर्फ यही कहा जा सकता है कि भैंस के आगे बीन बजाओ भैंस खड़ी पग राय क्योंकि एक शराबी कब मान पाता है कि उसने कुछ गलत किया यही नहीं अगर शराबी शराब पीकर समाज सेवा नहीं करेगा तो उन न्यायालय व अधिवक्ताओं का क्या होगा जो महिला उत्पीड़न के वाद प्रतिवाद को रोज सुनते हैं और उसके माध्यम से अपने जीविकोपार्जन को सुनिश्चित करते हैं अब महिला सम्मान के लिए और समाज महिला के लिए लड़ता है खड़ा होता है उसके न्याय के लिए व्यवस्था करता है इस बात को साबित करने के लिए कहीं से तो फिर से कोई बात प्रारंभ की जाएगी और ऐसे बात को प्रारंभ करने के लिए घरों से बेहतर कौन सी जगह हो सकती है जहां पर एक शराबी व्यक्ति द्वारा घरेलू हिंसा को अंजाम दिया जाएगा और ऐसा करके वह सिर्फ अपना बलिदान नहीं देगा बल्कि समाज के कितने लोगों को रोटी देना ऐसे योद्धाओं के लिए फूल बरसाए जाने चाहिए क्योंकि वह घर फूंक तमाशा देख वाले सिद्धांत पर चलते हुए कोरोना संक्रमण के समय घर में रोटी तक के लिए तरसते परिवार और बच्चों के बीच वह पैसे का कहीं से भी जुगाड़ करके बच्चों की रोटी छीन कर शराब पीकर अपने परिवार के लिए नहीं समाज के लिए जीना शुरु करेगा क्योंकि अपने लिए जिए तो क्या जिए जीना है तो दूसरों के लिए जिए समाज के लिए जिए और इसीलिए शराब पीना कितना जरूरी है इसको कहने की जरूरत नहीं है बल्कि पहली बार शराब पीने वालों की महानता का बोध हो रहा है उनके त्याग उनके संकल्प की कहानी स्थापित हो रही है कि कैसे एक शराबी संपूर्ण समाज को सरकार को राजस्व देता है ठेके वाले को पैसा देता है न्यायालय पुलिस वकील सभी को रोजगार देता है घरेलू हिंसा में चोट खाए हुए लोगों को डॉक्टर के यहां भेज के डॉक्टर की रोटी का इंतजाम करता है और ऐसे व्यक्ति का सम्मान करने के बजाय यह कहना कि शराब की दुकान खोल कर गलत किया जा रहा है बिल्कुल ही गलत बात है बल्कि ऐसे शराब की दुकान और शराबियों का पूर्ण सम्मान होना चाहिए अच्छे काम करने वाले कोई आसमान से नहीं टपकते हैं वह हमारे ही आसपास हमारे साथ रहते हैं वह बात अलग है कि हम उनको नहीं पहचान पाते हैं और उनको पहचानने के लिए जरूरी है कि वह शराब पीकर सड़कों पर अनाप-शनाप हरकत करें नाली में गिरे पड़े मिले मारपीट करें गाली गलौज करें ताकि समाज के लोगों को पता चल पाए या असली सामाजिक कार्यकर्ता तो यही है जिनको हम लोग देख ही नहीं पा रहे थे इसलिए शराब पीने वालों के प्रति अपना दृष्टिकोण सकारात्मक करते हुए इन लोगों के त्याग संकल्प को महसूस करिए जो इस गंभीर संक्रमण के समय अपने घर परिवार की भ्रष्ट होती आर्थिक स्थिति की चिंता करें बिना तेज कैसे चले सरकार के पास कैसे आर्थिक पूर्ति हो सके राजस्व कैसे बढ़े इसके लिए वह अपनी किडनी लीवर सब बर्बाद कर देना चाहते हैं क्योंकि उनके लिए राष्ट्र पहले है उनके लिए अपने घर का कोई महत्व नहीं है उसको वह शराब के लिए कौड़ियों के भाव बेच देंगे क्योंकि इससे अच्छा समय कब आएगा जब आपके पास शराब पीने के लिए अगर पैसा नहीं है तो आपका मकान कौड़ियों के भाव दूसरे खरीद सकें और ऐसे में आपके त्याग को कैसे कमाया जा सकता है एक शराबी अपनी किडनी लीवर घर परिवार बच्चे सब की उपेक्षा करते हुए सिर्फ राष्ट्र को जीने के लिए सामने आया है ऐसे राष्ट्रीय लोगों के लिए निश्चित रूप से पुष्प वर्षा होनी चाहिए यह फूल का भी सौभाग्य होगा कि वह शराबियों के लिए सड़कों पर बिखेरा जाए क्योंकि ऐसे गुमनाम समर्पित लोग आज तक उस फूल ने तो न देखा था ना महसूस किया था इसलिए जो लोग शराब से दूरी बनाए हैं उससे जुड़ते हैं शराबियों को नफरत और घृणा से देखते हैं वह भी राष्ट्र का सहयोग करने के लिए आगे आए और इसके लिए आपको ज्यादा कुछ नहीं करना है बस अपने आसपास नजर घुमाएगा कहते भी हैं कि जैसी नजर वैसे ही दुनिया दिखाई देने लगती है बस आपको राष्ट्र की सेवा करने के लिए कोई ना कोई ऐसा ठेका दिखाई पड़ जाएगा जहां पर आप अपने पैसे को राष्ट्र में देकर अपनी बर्बादी पर निर्माण की वह आधारशिला रख सकते हैं जैसे मजबूत लकड़ी पानी से भी कर सरकार अपने ऊपर कुकुरमुत्ता को जन्म देती है और उस कुकुरमुत्ता को मशरूम कहकर हम लोग बड़े चाव से खाकर अपनी भूख मिटाते हैं तो क्या आप इस समय रात की भूख नहीं मिटाना चाहते हैं भूखे तो आप भी हैं ( व्यंग्य )आलोक चाटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन