मनुष्य को बाँट कर ,
मनुष्य को छांट कर ,
मनुष्य खुद क्या रहा ,
पर उसने क्या सहा ,
सब ने मिलके किया ,
खूब हसी और ठठ्ठे,
किसी ने उड़ाई शराब ,
और किसी ने ठुमके ,
जिस के खातिर ये सब ,
उसने भी घर का अँधेरा ,
मिटाने के लिए जलाया ,
एक दीपक ढूंढ़ लाया ,
चूल्हे पर पसीने से भीगी ,
रोटी की सोंधी महक ,
फटे कपड़ो में बदन ,
में उभरी एक चहक ,
जमीन में सोने का ,
पूरा होता उसका सपना ,
अँधेरे से गुजरते ऐसे ,
जीवन को पता ही नही ,
कि दूर कही हवा में ,
रौशनी से नहाये कमरे ,
शराब , मछली के स्वर ,
में फूल से लदे मनुष्य ,
कर रहे है उसी कि बाते ,
दिन ही नही वातानुकूलित ,
कट रही है उनकी राते ,
चाहते है उसके नाम पर ,
बोलने वाले हर कही
एक एक शब्द कि कीमत ,
चलने फिरने का भी मोल ,
लेकिन वह होता है गोल ,
कोठे कि तरह चलते मुजरे ,
उसके जीवन में क्या अब गुजरे ,
इस से किसी को क्या मतलब ,
बस खुद को साबित कर लिया ,
पर उसके लिए क्या किया ,
क्यों सोचे कोई इस पर ,
सेमिनार तो मुंडन , शादी ,
की तरह बस नाते दारी है ,
क्यों कि जीजा फूफा की,
होनी अब दावे दारी है
लड़की वालो की तरह ,
लूटे पिटे जन जाती के लोग ,
सब लुटा कर जिलाने की
जुगत में दामाद को ,
कर्ज में डूब कर हँसाने की ,
की लालसा आज भी है ,
जनजाति होने का अभिशाप ,
सेमिनार के दामादो को ,
हँसाने में कही आज भी है ,
रूठ न जाये क्या पता ,
दामाद है शिक्षा के ,
इसी लिए जनजाति को ,
बस मरते रहना है ,
इन्हें तो मनुष्य पर ,
खुद को जंगली करना है ,
आखिर इनकी दुकान जो ,
चलाते रहना है सेमिनार से ,
क्या हम भी मनुष्य बनेगे ,
इअसे होते र्ह्तेव सेमिनार से .........जनजाति पर न जाने कितने सेमिनार होते है सरकार लोकहो रुपये खर्च करती है जनजाति आज तक इस देश में समाया मनुष्य नही बन पाया ...इस देश में विकास को आइना तो देखिये ,..जब देश स्वतंत्र हुआ तो २१२ जनजातिय समूह थे जो आज बढ़ कर ६९८ हो गए है .......क्या हम जनजाति भारत बना रहे है ..क्या हम कबीला संस्कृति बढ़ा रहे है क्यों कि विकास के आईने में जनजाति एक नकारात्मक शब्द है ...और हम हर साल सेमिनार करते है ...क्या सेमिनार में वही नही होता जो मैंने पानी टूटी फूटी पंक्तियों में उकेरा है ...पर एहसास मर गया है हमारा
मनुष्य को छांट कर ,
मनुष्य खुद क्या रहा ,
पर उसने क्या सहा ,
सब ने मिलके किया ,
खूब हसी और ठठ्ठे,
किसी ने उड़ाई शराब ,
और किसी ने ठुमके ,
जिस के खातिर ये सब ,
उसने भी घर का अँधेरा ,
मिटाने के लिए जलाया ,
एक दीपक ढूंढ़ लाया ,
चूल्हे पर पसीने से भीगी ,
रोटी की सोंधी महक ,
फटे कपड़ो में बदन ,
में उभरी एक चहक ,
जमीन में सोने का ,
पूरा होता उसका सपना ,
अँधेरे से गुजरते ऐसे ,
जीवन को पता ही नही ,
कि दूर कही हवा में ,
रौशनी से नहाये कमरे ,
शराब , मछली के स्वर ,
में फूल से लदे मनुष्य ,
कर रहे है उसी कि बाते ,
दिन ही नही वातानुकूलित ,
कट रही है उनकी राते ,
चाहते है उसके नाम पर ,
बोलने वाले हर कही
एक एक शब्द कि कीमत ,
चलने फिरने का भी मोल ,
लेकिन वह होता है गोल ,
कोठे कि तरह चलते मुजरे ,
उसके जीवन में क्या अब गुजरे ,
इस से किसी को क्या मतलब ,
बस खुद को साबित कर लिया ,
पर उसके लिए क्या किया ,
क्यों सोचे कोई इस पर ,
सेमिनार तो मुंडन , शादी ,
की तरह बस नाते दारी है ,
क्यों कि जीजा फूफा की,
होनी अब दावे दारी है
लड़की वालो की तरह ,
लूटे पिटे जन जाती के लोग ,
सब लुटा कर जिलाने की
जुगत में दामाद को ,
कर्ज में डूब कर हँसाने की ,
की लालसा आज भी है ,
जनजाति होने का अभिशाप ,
सेमिनार के दामादो को ,
हँसाने में कही आज भी है ,
रूठ न जाये क्या पता ,
दामाद है शिक्षा के ,
इसी लिए जनजाति को ,
बस मरते रहना है ,
इन्हें तो मनुष्य पर ,
खुद को जंगली करना है ,
आखिर इनकी दुकान जो ,
चलाते रहना है सेमिनार से ,
क्या हम भी मनुष्य बनेगे ,
इअसे होते र्ह्तेव सेमिनार से .........जनजाति पर न जाने कितने सेमिनार होते है सरकार लोकहो रुपये खर्च करती है जनजाति आज तक इस देश में समाया मनुष्य नही बन पाया ...इस देश में विकास को आइना तो देखिये ,..जब देश स्वतंत्र हुआ तो २१२ जनजातिय समूह थे जो आज बढ़ कर ६९८ हो गए है .......क्या हम जनजाति भारत बना रहे है ..क्या हम कबीला संस्कृति बढ़ा रहे है क्यों कि विकास के आईने में जनजाति एक नकारात्मक शब्द है ...और हम हर साल सेमिनार करते है ...क्या सेमिनार में वही नही होता जो मैंने पानी टूटी फूटी पंक्तियों में उकेरा है ...पर एहसास मर गया है हमारा
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