मानव , मानवता और भारत में भेद भाव
डॉ आलोक चान्टिया
संगोष्ठी सचिव , अध्यक्ष -अखिल भारतीय अधिकार संगठन एवं आल इंडियन एसोसिअसन ऑफ़ सोशल साइंटिस्टस
अवधारणात्मक संगोष्ठी लेख
जीवन एक ऐसा शब्द है जिसके प्रति पृथ्वी के सभी जीव जन्तुओ में एक आकर्षण रहता है और इसकी निरंतरता बनाये रखने के लिए सभी प्रयास भी करते रहते है , शायद इसी लिए मनुष्य भी एक प्राणी से ऊपर लेकर नही देखा जा सकता है परन्तु संस्कृति के कारण व अपनी स्थिति को थोडा बेहतर कहने की स्थिति में दिखाई देता है जिस पर भी एक वृहत विश्लेषण की आवश्यकता है / संगोष्ठी की विषय वास्तु के प्रकाश में सबसे पहले यह जानना अति आवश्यक है कि मानव को मानव कहा से माना जाये और इसके लिए जब हम उद्विकास के क्रम को देखते है तो मानव के साक्ष्य सबसे पहले आज से करीब ६० लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में मिलते है जिस वैज्ञानिक रूप से हम ऑस्ट्रालो पिथेकस कहते है जब कि पृथ्वी की आयु करीब ४५४ लाख वर्ष है जो यह बताने के लिए प्रयाप्त है कि मानव का जन्म पृथ्वी की काफी बाद की घटना है लेकिन आज तक मानवशाश्त्री इस बात पर सहमत नही है कि इसे मानव की श्रेणी में रखा जाये या नही क्योकि ऐसे प्रमाण है कि यह दो पैरो पर खड़ा होकर नही चल पाता था लेकिन होमो हैबिलिस के लिए प्रयाप्त प्रमाण है कि वह न सिर्फ दो पैरो पर खड़ा होकर चल सकता था बल्कि वह उपकरण निर्माता था और यह घटना आज से करीब ३० लाख साल पहले की है / यह वह समय था जब मानव पूरी तरह प्रकृति के सहारे था और प्रमाणों के आधार पर यह भी कहा जाता है कि ये अपने लोगो को भो मार कर कहा लेते थे ( नागा जनजाति में १९६२ के पूर्व तक ऐसी स्थिति थी कि जो ज्यादा सर काट कर लाता था उसकी शादी ज्यादा अच्छी होती थी औत उड़ीसा की बोडो जनजाति में काफी समय तक मानव को मार कर खाने की प्रथा थी ) / इस लिए मानव तो आज से तीस लाख साल पहले थे पर आज जिस मानव के ऊपर संगोष्ठी हो रही है वह राष्ट्र -राज्य के अंतर्गत रहने वाले मानव की बात ज्यादा है लेकिन यह जन न जरुरी है कि हमारी आधार रेखा कहा से है ? मानव के उद्विकास में जब नव पाषण काल आया तो मानव ने व्यवस्थित जीवन जीना शुरू कर दिया , यह वह समय था जब मनुष्य ने खेती करना आरम्भ कर दिया , जानवर को पालने लगा और घरो में रहने लगे , इस लिए यही वह स्थिति है जहा पर फली बार मनुष्यता या मानवता के साक्ष्य खोजे जा सकते है / यह एक सामान्य सी बात सी बात है कि मानव का बच्चा करीब २-३ साल तक असहाय अवस्था में रहता है और उसके साथ हर समय कोई न कोई सुरक्षा के लिए होना चाहिए और इसी साथ रहने की भावना ने स्व का निर्माण किया जिसने अंततः मानवता की आधारशिला रखी पर यह भी सिद्ध हो चूका है कि मनुष्य कोई स्वाभाविक लक्षण नही है बल्कि यह उपार्जित लक्षण है जो पूरी पर्थिवी पर सामान नही है / मानवता जैसे ही गुण अन्य जीव जन्तुओ में पाए जाते है और वह भी अपने समाज, समूह के लिए संवेदन शील रहते है पर मनुष्यता में सिर्फ यह फर्क आ जाता है कि मनुष्य अपने समूह के अलावा भी दुसरे समूह के लिए सोचता है / मनुष्य को समझने के लिए हमें जंगली भैस और पालतू भैस के व्यवहार को समझना होगा , जंगली भैस से हम वही व्यवहार नही पा सकते जो हम पालतू भैस से पा लेते है जो यह स्पष्ट करता है कि व्यवहार एक प्रक्रिया है जो अंत में मनुष्यता में बदल जाती है .
यह भी एक स्पष्ट तथ्य है कि संस्कृति के निर्माण के बाद ही मनुष्यता का स्पष्टीकरण ज्यादा हुआ पर हर संस्कृति की पानी वहां क्षमता है और सीमा भी है जिसने मनुष्य को पृथ्वी पर प्रवजन के लिए प्रेरित किया पर इन सब में एक मानव समूह दूसरे मानव समूह से वातावरण, पर्यावरण और भौगोलिक आधार पर भिन्न होता गया जिसने प्रजाति और न्र जातीय सकेंद्रिता को जन्म दिया और एक ही अनुवांशिक आधार को रखने के बाद भी मानव मानव से खान पान , रंग आदि के कारण भिन्न दिखाई देने लगा और मानव समूहों ने इसे ही भेद भाव का आधार बना लिया /
मानव का प्रवजन जब एक बार शुरू हुआ तो भी अनवरत चलता ही रहा और उसी अनुपात में भेद भाव भी बढ़ता रहा जिसका सबसे बड़ा परिणाम द्वितीय विश्व युद्ध था जो प्रजातीय आधार पर लड़ा ही गया और जिस के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ की न सिर्फ स्थापना हुई बल्कि सार्वभौमिक मनवधिअर घोषणा पत्र भी १० दिसम्बर १९४८ को लाया गया / इसका अनुच्छेद एक में कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र रूप से जन्म लेता है और हर तरह से समान है और बुद्धि तथा अंतरात्मा से युक्त है , इसलिए सभी को भाई चाय का व्यवहार करना चाहिए , इसमें अप्रत्यक्ष रूप से मानवता की ही वकालत की गई है .
भारत में भेद भाव कोई नई घटना नही है क्योकि यहाँ की जाति व्यवस्था अपने आप में भेद भाव को बढ़ावा देती है और समानता का विरोध करती है पर राष्ट्र राज्य की संकल्पना में इस बात का ध्यान रखने की कोशिश की गई है की भेद भाव को काम किया जा सके / भारत के संविधान का प्रस्तावना " हम भात के लोग .............. में समानता का भाव तो लाता है पर इसके अनुच्छेद १५ से स्पष्ट है कि भारत में हर तरह के भेद भाव का प्रसार है जिसका निषेध इस अनुच्छेद में किया गया है लेकिन इसके बाद भी अनुच्छेद १७ भी भेद भाव की ही बात करता है जो जातीय भेद भाव को भारत में खोल कर रखता है ./ संविधान को गतिशीलता देने के लिए बहुत कानून बनाये गए जिसमे हिन्दू विवाह अधिनियम १९५५ का उल्लेख महत्व पूर्ण है क्यों कि इस अधिनियम से परम्परिक शादी को छूट दे रखी है जिसके कारण जौन सार बावर, टोडाऔर लुशाई जनजाति में आज भी बहु पति विवाह चल रहा है जो महिला के साथ भेद भाव से ज्यादा कुछ नही है / इसके अतिरिक्त संस्कृति के नाम बछेड, सांसी , बेडिया आदि जनजाति में वेश्या व्रती का प्रचाल भी भेद भाव का ही प्रमाण है /
भेद भाव को सबसे ज्यादा बढ़ावा मिला कर्यो के केंद्र, राज्य और समवर्ती सूचि में बाटने से और इस विभाजन ने सामान्य मानव को भेद भाव के साथ जीने को मजबूर कर दिया और भेद भाव का सबसे बढ़िया उदहारण मातृत्व लाभ के लिए मिलने वाला अवकाश है ....प्राइवेट , सरकारी ,अर्ध सरकारी में अलग अलग प्राविधान है जो भेद भाव ही है /
विधिक भेद भाव के अलावा भारत में शिक्षा ,जाति , धर्म , लिंग , वर्ग आदि आधारों पर भी भेद भाव है लेकिन इन सब से इतर यह जानने के लिए कि किस स्तर का भेद भाव इस देश में है , किसी भी व्यक्ति को अपना आंकलन करके यह देख न चाहिए कि वह किन लोग के साथ उठना , बैठना , खाना, रहना नही चाहता है और ऐसा वह क्यों करना चाहता है ????? वह किनके घर , पार्टी , शादी , संस्कार आदि में नही जाना चाहता है और क्यों नही चाहता है अगर इसका आधार उसे आर्थिक, जाति , धर्म आदि लगता है तो समन्ता से इतर उसके मन में एक भेद भाव चल रहा है जिसका निदान उसे स्वयं ही करके एक समरसता और समानता वाला समाज बनाना होगा और यही भेद भाव भारत के भेद भाव का मूल कारण है
डॉ आलोक चान्टिया
संगोष्ठी सचिव , अध्यक्ष -अखिल भारतीय अधिकार संगठन एवं आल इंडियन एसोसिअसन ऑफ़ सोशल साइंटिस्टस
अवधारणात्मक संगोष्ठी लेख
जीवन एक ऐसा शब्द है जिसके प्रति पृथ्वी के सभी जीव जन्तुओ में एक आकर्षण रहता है और इसकी निरंतरता बनाये रखने के लिए सभी प्रयास भी करते रहते है , शायद इसी लिए मनुष्य भी एक प्राणी से ऊपर लेकर नही देखा जा सकता है परन्तु संस्कृति के कारण व अपनी स्थिति को थोडा बेहतर कहने की स्थिति में दिखाई देता है जिस पर भी एक वृहत विश्लेषण की आवश्यकता है / संगोष्ठी की विषय वास्तु के प्रकाश में सबसे पहले यह जानना अति आवश्यक है कि मानव को मानव कहा से माना जाये और इसके लिए जब हम उद्विकास के क्रम को देखते है तो मानव के साक्ष्य सबसे पहले आज से करीब ६० लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में मिलते है जिस वैज्ञानिक रूप से हम ऑस्ट्रालो पिथेकस कहते है जब कि पृथ्वी की आयु करीब ४५४ लाख वर्ष है जो यह बताने के लिए प्रयाप्त है कि मानव का जन्म पृथ्वी की काफी बाद की घटना है लेकिन आज तक मानवशाश्त्री इस बात पर सहमत नही है कि इसे मानव की श्रेणी में रखा जाये या नही क्योकि ऐसे प्रमाण है कि यह दो पैरो पर खड़ा होकर नही चल पाता था लेकिन होमो हैबिलिस के लिए प्रयाप्त प्रमाण है कि वह न सिर्फ दो पैरो पर खड़ा होकर चल सकता था बल्कि वह उपकरण निर्माता था और यह घटना आज से करीब ३० लाख साल पहले की है / यह वह समय था जब मानव पूरी तरह प्रकृति के सहारे था और प्रमाणों के आधार पर यह भी कहा जाता है कि ये अपने लोगो को भो मार कर कहा लेते थे ( नागा जनजाति में १९६२ के पूर्व तक ऐसी स्थिति थी कि जो ज्यादा सर काट कर लाता था उसकी शादी ज्यादा अच्छी होती थी औत उड़ीसा की बोडो जनजाति में काफी समय तक मानव को मार कर खाने की प्रथा थी ) / इस लिए मानव तो आज से तीस लाख साल पहले थे पर आज जिस मानव के ऊपर संगोष्ठी हो रही है वह राष्ट्र -राज्य के अंतर्गत रहने वाले मानव की बात ज्यादा है लेकिन यह जन न जरुरी है कि हमारी आधार रेखा कहा से है ? मानव के उद्विकास में जब नव पाषण काल आया तो मानव ने व्यवस्थित जीवन जीना शुरू कर दिया , यह वह समय था जब मनुष्य ने खेती करना आरम्भ कर दिया , जानवर को पालने लगा और घरो में रहने लगे , इस लिए यही वह स्थिति है जहा पर फली बार मनुष्यता या मानवता के साक्ष्य खोजे जा सकते है / यह एक सामान्य सी बात सी बात है कि मानव का बच्चा करीब २-३ साल तक असहाय अवस्था में रहता है और उसके साथ हर समय कोई न कोई सुरक्षा के लिए होना चाहिए और इसी साथ रहने की भावना ने स्व का निर्माण किया जिसने अंततः मानवता की आधारशिला रखी पर यह भी सिद्ध हो चूका है कि मनुष्य कोई स्वाभाविक लक्षण नही है बल्कि यह उपार्जित लक्षण है जो पूरी पर्थिवी पर सामान नही है / मानवता जैसे ही गुण अन्य जीव जन्तुओ में पाए जाते है और वह भी अपने समाज, समूह के लिए संवेदन शील रहते है पर मनुष्यता में सिर्फ यह फर्क आ जाता है कि मनुष्य अपने समूह के अलावा भी दुसरे समूह के लिए सोचता है / मनुष्य को समझने के लिए हमें जंगली भैस और पालतू भैस के व्यवहार को समझना होगा , जंगली भैस से हम वही व्यवहार नही पा सकते जो हम पालतू भैस से पा लेते है जो यह स्पष्ट करता है कि व्यवहार एक प्रक्रिया है जो अंत में मनुष्यता में बदल जाती है .
यह भी एक स्पष्ट तथ्य है कि संस्कृति के निर्माण के बाद ही मनुष्यता का स्पष्टीकरण ज्यादा हुआ पर हर संस्कृति की पानी वहां क्षमता है और सीमा भी है जिसने मनुष्य को पृथ्वी पर प्रवजन के लिए प्रेरित किया पर इन सब में एक मानव समूह दूसरे मानव समूह से वातावरण, पर्यावरण और भौगोलिक आधार पर भिन्न होता गया जिसने प्रजाति और न्र जातीय सकेंद्रिता को जन्म दिया और एक ही अनुवांशिक आधार को रखने के बाद भी मानव मानव से खान पान , रंग आदि के कारण भिन्न दिखाई देने लगा और मानव समूहों ने इसे ही भेद भाव का आधार बना लिया /
मानव का प्रवजन जब एक बार शुरू हुआ तो भी अनवरत चलता ही रहा और उसी अनुपात में भेद भाव भी बढ़ता रहा जिसका सबसे बड़ा परिणाम द्वितीय विश्व युद्ध था जो प्रजातीय आधार पर लड़ा ही गया और जिस के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ की न सिर्फ स्थापना हुई बल्कि सार्वभौमिक मनवधिअर घोषणा पत्र भी १० दिसम्बर १९४८ को लाया गया / इसका अनुच्छेद एक में कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र रूप से जन्म लेता है और हर तरह से समान है और बुद्धि तथा अंतरात्मा से युक्त है , इसलिए सभी को भाई चाय का व्यवहार करना चाहिए , इसमें अप्रत्यक्ष रूप से मानवता की ही वकालत की गई है .
भारत में भेद भाव कोई नई घटना नही है क्योकि यहाँ की जाति व्यवस्था अपने आप में भेद भाव को बढ़ावा देती है और समानता का विरोध करती है पर राष्ट्र राज्य की संकल्पना में इस बात का ध्यान रखने की कोशिश की गई है की भेद भाव को काम किया जा सके / भारत के संविधान का प्रस्तावना " हम भात के लोग .............. में समानता का भाव तो लाता है पर इसके अनुच्छेद १५ से स्पष्ट है कि भारत में हर तरह के भेद भाव का प्रसार है जिसका निषेध इस अनुच्छेद में किया गया है लेकिन इसके बाद भी अनुच्छेद १७ भी भेद भाव की ही बात करता है जो जातीय भेद भाव को भारत में खोल कर रखता है ./ संविधान को गतिशीलता देने के लिए बहुत कानून बनाये गए जिसमे हिन्दू विवाह अधिनियम १९५५ का उल्लेख महत्व पूर्ण है क्यों कि इस अधिनियम से परम्परिक शादी को छूट दे रखी है जिसके कारण जौन सार बावर, टोडाऔर लुशाई जनजाति में आज भी बहु पति विवाह चल रहा है जो महिला के साथ भेद भाव से ज्यादा कुछ नही है / इसके अतिरिक्त संस्कृति के नाम बछेड, सांसी , बेडिया आदि जनजाति में वेश्या व्रती का प्रचाल भी भेद भाव का ही प्रमाण है /
भेद भाव को सबसे ज्यादा बढ़ावा मिला कर्यो के केंद्र, राज्य और समवर्ती सूचि में बाटने से और इस विभाजन ने सामान्य मानव को भेद भाव के साथ जीने को मजबूर कर दिया और भेद भाव का सबसे बढ़िया उदहारण मातृत्व लाभ के लिए मिलने वाला अवकाश है ....प्राइवेट , सरकारी ,अर्ध सरकारी में अलग अलग प्राविधान है जो भेद भाव ही है /
विधिक भेद भाव के अलावा भारत में शिक्षा ,जाति , धर्म , लिंग , वर्ग आदि आधारों पर भी भेद भाव है लेकिन इन सब से इतर यह जानने के लिए कि किस स्तर का भेद भाव इस देश में है , किसी भी व्यक्ति को अपना आंकलन करके यह देख न चाहिए कि वह किन लोग के साथ उठना , बैठना , खाना, रहना नही चाहता है और ऐसा वह क्यों करना चाहता है ????? वह किनके घर , पार्टी , शादी , संस्कार आदि में नही जाना चाहता है और क्यों नही चाहता है अगर इसका आधार उसे आर्थिक, जाति , धर्म आदि लगता है तो समन्ता से इतर उसके मन में एक भेद भाव चल रहा है जिसका निदान उसे स्वयं ही करके एक समरसता और समानता वाला समाज बनाना होगा और यही भेद भाव भारत के भेद भाव का मूल कारण है
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