Thursday, 1 March 2012

samaj ab samapti par hai

समाज एक स्वयं में सामाजिक बुराई है
बचपन से सामाजिक विज्ञानों में पढता और सुनता चला आ रहा हूँ कि समाज सभी जीव जन्तुओ में पाया जाता है पर एक अमूल चूल अंतर है , जब हम समाज की कल्पना जीव जन्तुओ के लिए ही करते है तो उसे जैविक समाज कहा जाता है , इस के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि जीन जंतु का समाज संस्कृति विहीन होता है यानि उनमे समाज की कल्पना बस तभी तक अस्तित्व में रहती है , जब तक बच्चा खुद चलने योग्य नही हो जाता है या खाने के योग्य नही हो जाता है लेकिन मनुष्य के सन्दर्भ में ऐसा नही है क्यों की मनुष्य स्वयं को पृथ्वी की सबसे सुन्दरतम कृति कह कर संस्कृति का निर्माता बन गया . संस्कृति नाम सुन ने में आसान लगता है और ऐसा प्रतीत होता है कि हम सब इस के बारे में सब कुछ जानते है पर ऐसा है नही क्यों कि संस्कृति को मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन जीने के तरीके के रूप में कह कर परिभाषित कर दिया गया परन्तु सम्पूर्ण जीवन जीने का तरीका क्या है ? और वो तरीके क्या वास्तव में समाज का निर्माण करते है या नही , यह एक विचारिये प्रश्न है . इस लिए सब से पहले हम सबको सांस्कृतिक समाज के बारे में गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए जो हम सब मनुष्यों को जानवरों के जैविक समाज से ऊपर ले जाता है .
संस्कृति में सम्पूर्ण जीवन जीने से तात्पर्य क्या है इस से भी पहले यह जन लेना चाहिए कि मनुष्य आज से करीब २० लाख साल पहले अपने को जानवरों से अलग करने के लिए प्रयास करने लगा थाई और किया भी पर एक सम्पूर्ण परवर्तन आज से करीब ४००० वर्ष पूर्व नव पाषण काल में दिखाई दिया जब मानव ने खाना बदोश जीवन से हट कर स्थायीत्व का जीवन जीना शुरू किया . झा संस्कृति जीवन जीने का तरीका है वही समाज संबंधो का जाल है पर संबंधो के इसी जाल ने कुछ समय तक अपना प्रभावी रूप बनाये रखा पर जैसे जैसे जनसँख्या बढती गई और मनुष्य एक परमार्जित खाना बदोशी की तरफ बढ़ा जनसंख्या का विस्तार हुआ और जीवन में प्रबंधन एक कठिन कार्य हो गया ...जिस उद्देश्य को लेकर नातेदारी को बनाया गया था , वही नातेदारी सबसे बड़ा प्रशन बन कर मनुष्य के सामने आ गया ...जैसे भाई और बहन के दायित्व में भाई की भूमिका ऐसी हो गई कि वो सैधांतिक रूप से बहन का रक्षक रह गया और जिस कल्पना को लेकर राखी जैसा पर्व शुरू हुआ था वो सिर्फ अलंकारिक ज्यादा रह गया ....आज दहेज़ के लिए जलाई  गई लड़की का भाई स्वयं कोई क्रयावाही नही कर सकता बल्कि उसे न्याय व्यवस्था के पास जाना है भले ही वो जनता हो कि उसकी बहन कि दुर्गति का जिम्मेदार कौन है ??????????? क्या समाज में भाई बहन का योगदान सिर्फ कागज पर रह गया ????????? इसके अलावा समाज में यौन संबंधो की अनियमितता को रोकने और संतान की जिम्मेदारी को सुनिश्चित करने के लिए विवाह जैसी व्यवस्था लायी गई पर समाज में जितना बड़ा प्रश्न चिन्ह इस संस्था पर है उतना किसी दूसरे पर नही . पहला प्रश्न अगर यह यौन संबंधो को निय्मीय करने वाला साधन था तो वेश्यावृति कहा से समाज में आई , जब सभी को सम्मान जनक तरीके से जीने का अधिकार है तो औरत समाज में एक मूल्यहीन समझे जाने वाले काम में खुद तो आई नही होगी और अगर विवाह से यौन संबंधो को नियमित किया जाना संभव था तो वेश्यावृति क्यों समाज में आई और अगर यह काया समाज निर्माताओ द्वारा ठीक माना जा रहा था तो वेश्यावृति करने वाली महिलाओ को गरिमा पूर्ण जीवन क्यों नही प्राप्त था ?????????? समाज को बना ने में तो मानव में सारा श्रेय यह कह कर ले लिया किवह जानवरों से ऊपर है पर जिस तर से उसने प्रकृति को हानि पहुचाई उससे तो खी नही लगता कि मनुष्य मने समाज से निर्माण से कोई ज्यादा बेहतर कार्य किया यही नही समाज और संस्कृति के निर्माण ने मनुष्य के शरीर में प्रयाप्त परिवर्तन किये और अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य ने कच्चा भोजन खाना छोड़ दिया औ रजिस के कारण उसके शरीर में अमूल चूल परिवर्तन हो गए, लेकिन इस कारण से जो नुकसान हुआ हुआ वो यह था की मनुष्य अब कच्चा खाना पचाने में असमर्थ हो गया , उसके सामने मज़बूरी हो गई की वह पका खाना हो खाए और यह परेशानी जनसँख्या बढ़ने के करा दिनोदिन दुरूह होती चली गई जिसके कारण समाज में एक नै समस्या उभरी और वो समस्या थी गरीबी .....लोगो ने आज करीब कर्रेब पूरी पृथ्वी पर कब्ज़ा कर लिया है और जो भी अतिरिक्त मनुष्य यह है वो गरीबी का शिकार है पर जन वर गरीब जैसी समस्या से नही परेशां है क्योकि आज भी वो प्रकृति पर निर्भर है . इस बात से यह भी स्पष्ट है कि अपने आरंभिक चरण में तो समाज का निर्माण एक अद्भुत प्रयास था पर बाद में यह प्रयास ही मनुष्य और मनुष्यता के लिए अभिशाप बन गया .कोई भी प्राणी गर्भपात नही कराता न ही उसकी जनसँख्या भस्मासुर कि तरह बढती है , न तो किसी जंगली जानवर के खाने से शाकाहारी जंतु ख़त्म हुए और न हो रहे है अपर मनुष्य के एक प्रयास सांस्कृतिक समाज के निर्माण में न सिर्फ पूरे प्रयावरण को बर्बाद कर डाला बल्कि स्वयं मनुष्य अपने जीवन को चलाने में असमर्थ दिखाई दे रहा है . बेरोजगारी , आतंकवाद , सब कुछ इसी निर्माण का परिणाम है तो क्या समाज स्वयं में एक बुराई है ...निश्चित रूप से समाज एक बुराई ही है अपर जैसे एक सूक्ष्म मात्रामें जहर भी स्वस्थ्य के लिए फायेदे मंद होता है . शराब भी हितकारी होती है , उसी तरह अपने आरंभिक चरणों में समाज का निर्माण मनुष्य के जीवन को सुगम बनाने के लिए अचूक प्रयास था पर उसी के साथ जनसँख्या पर नियंत्रण न करना और खुद को प्रकृति का स्वामी समझ लेना मानव के लिए स्वयं दुखदाई हो गया और समाज एक अभिशाप बन गया , प्रकृति की अपेक्षा मुद्रा आधारित जीवन ने भुखमरी को ज्यादा फैलाया , गरीबी को बढाया और मानसिक रोग को जन्म दिया , कैंसर , टी बी , जैसी बीमारी हर घर पर दस्तक दे रही है पर समाज के पास इसका कोई अचूक इलाज नही है और आगे बढ़ने के सिवा कोई चारा नही है जबकि आगे सिर्ग अँधेरा ही दिखाई दे रहा है पर मनुष्य अब समाज के भस्मासुर के आगे विवश है , तो क्या हम सब को समाज को नकार देना चाहिए ??????????? शायद हा पर उसके लिए अब समय ही नही है क्योकि समाज खुद एक ऐसी बुराई के रूप में हमारे अन्दर समा चुकी है जिसको अपनाये बिना हम जिन्दा भी नही रह सकते पर जनसँख्या को रोक कर इसका इलाज किया जा सकता है .पर यक्ष प्रश्न यही कि जनसँख्या रोके कैसे  ????????? क्या संतान न पैदा  करे ???????? क्या विवाह न करे ????????? तो फिर नैसर्गिक अवश्यक्ताओ की पूर्ति कैसे होगी ????????? क्या जानवरों की तरह फिर हम यौन उन्मुक्त समाज स्वीकार कर ले ??????????? क्या अप्रत्यक्ष रूप से चल रही इस परम्परा को प्रत्यक्षा रूप से मनांव स्वकर करके इस सामाजिक बुराई पर बहस करने के लिए मुखौटा उतार कर बहस करने को तैयार है !!!!!!!!!!!! क्या यह एक और समाज की सामाजिक बुराई नही
डॉ आलोक चांत्तिया
अखिल भारतीय अधिकार संगठन

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