हम भारत के लोग .........कहने को यह शब्द इतना सरल लगता है कि सभी आपको इस का मतलब समझा देंगे पर इतना सरल भी नही है क्यों कि सामान्य अर्थो में तो यह कहा जा सकता है कि जो भारत में रह रहे है पर जब इस शब्द के दर्शन में जायेंगे और भारत के संविधान के प्रस्तावना के आईने में इसे समझने की कोशिश करेंगे तब इस वाक्य के मतलब बदल जायेंगे क्योकि प्रस्तावना के साथ जब अनुच्छेद १५ , १६ और १७ को पढ़ा जायेगा तो तो स्वतः ही समझ में आ जायेगा कि भारत के लोगो की विविधता ने इस अर्थ को क्या रूप दिया है . शायद ही मुझे किसी गरंथ को बताने की जरूरत आपको पड़े क्योकि हम सब अपने आप में जन्म लेने के बाद एक गरंथ बन जाते है .ऐसा मै इस लिए कह रहा हूँ क्योकि जब मनुष्य जन्म लेता है तो वह पृथ्वी के अन्य प्राणियों की तरह ही एक जैविक प्राणी होता है लेकिन संस्कृति के दाएरे में आने के बाद वह इनता कुछ सेख लेता है कि जैविक प्राणी न जाने कहा छूट जाता है और उसका व्यवहार जैविक से इतर सांस्कृतिक हो जाता है और यही से जन्म लेती है भेद भाव की भावना क्यों कि जीवन इतना तुलनात्मक बना दिया जाता है कि जातीय सकेंद्रिता का भाव पैदा हो जाता है और नफरत का भाव आ जाता है . हो सकता है कि आपको मेरी बाते आप मानने को तैयार न हो पर आप स्वयं यह जानते है कि दुसरो के साथ आप अपना व्यवहार देते समय क्या सोचते है ...क्या आप सभी के साथ खाना , सोना , रहना , चलना , बात करना , विवाह करना , सम्बन्ध बनाना , पसंद करते है ????????? अगर नही तो भेद भाव को पड़ने की जरूरत ही नही है आप स्वयं जन सकते है कि किस स्तर तक हम एक दुसरे के प्रति भेद भाव करते है पर यह विश्लेषण है सांस्कृतिक स्तर पर लेकिन जब राष्ट्र राज्य के स्तर पर सोचते है तो भी भेद भाव की बात को कही पड़ने की जरूरत नही है क्यों कि सर्कार सभी के लिए सामान व्यवस्था लागु नही कर सकती है और यह वह आधारश अवस्था है जो कभी भी प्राप्त नही कि जा सकती , पुरे विश्व में कोई ऐसा देश नही है झा भेद भाव न हो बस उनका प्रकार भिन्न भिन्न है लेकिन जब भारत कि बात करते है तो संस्कृति के आदर पर उपजी विषमताओ के कर्ण सरकार को ऐसी नीतिया बनानी पड़ती है जो अंततः भेद भाव ही पैदा करती है जैसे जाति व्यवस्था ने शुरू में वर्ण व्यवस्था को जन्म से जोड़ कर जो जिसे कर रहा था , उसे ही स्थाई बना दिया पर जनसँख्या के विस्तार और अदुनिकता में पदार्थिक संस्कृति के समावेश ने इन लोगो के बीच ही इतनी विसंगतिया पैदा कर दी कि सर्कार की अवधारणा ने इसका समाधान आरक्षण में तलाशा जो आज भेद भाव के लिए सबसे गंभीर मुद्दा बन गया है और प्रजातान्त्रिक दाएरे में यह चुनावी आधार बन गया , जिस के कारण समरसता के भाव की जगह भेद भाव का इत बड़ा मकद जा फ़ैल गया है कि पहले से ज्यादा जातीय दूरी बढ़ी है .......पर इस तरह के भेद भाव का अंत क्या है ??????? क्या मानव मानव के बीच इतनी गहरी खाई बन जाएगी कि हम कबीलाई संस्कृति की ओर चले जायेंगे और एक दिन फिर आदिम सभ्यता की तरह हर वक्त लड़ते हुए गुजरेंगे ??????? या फिर जैविक और सांकृतिक मानव के बीच की दूरी मिटा कर हर व्यवस्था को सिर्फ जीने का एक तरीका भर मानेगे ?????? पर क्या यह सब करना इतना आसान होगा ???????? भेद भाव का अंतिम लक्ष्य क्या है ??????और इस से मानवता को क्या हासिल होगा ???????ऐसे तमाम बातो के लिए अखिल भारतीय अधिकार संगठन २१ मार्च को एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन राइ उमा नाथ बलि प्रेक्षा गढ़ में आयोजित कर रहा है ..यदि आप संगठन के साथ कुछ कहना चाहते हो तो अप पंजी कारण करा के कह सकते है ......www.seminar2012.webs.com .......मानवता की बात करना सबसे दुरूह होता जा रहा है ....डॉ आलोक चान्टिया
sunder rachna ....
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